सतीश देशपांडे

दिल्ली विश्वविद्यालय के मुख्य परिसर के पास जो मेट्रो स्टेशन है उसका नाम सिर्फ ‘विश्वविद्यालय’ है। सभी विशिष्टताओं से मुक्त इस सर्वसामान्य नाम का उच्चारण मेट्रो की हिंदी उद्घोषणाओं में ‘विष-विद्यालय’ जैसा सुनाई पड़ता है। हाल के दौर में दिल्ली विश्वविद्यालय से जुड़े सैकड़ों मेट्रो यात्रियों ने उस गुमनाम उद्घोषक की सूक्ष्म अंतर्दृष्टि को मन ही मन दाद दी होगी। पिछले चार-पांच साल निश्चित तौर पर दिल्ली विश्वविद्यालय के सबसे बुरे दिनों में गिने जाएंगे, लेकिन 2015 तक पहुंचते-पहुंचते तो मामला बहुत बिगड़ चुका है। आज केवल एक विश्वविद्यालय नहीं, बल्कि उच्चशिक्षा का सारा क्षेत्र विषैली नीतियों के घातक प्रहार से मरणासन्न है- बस थोड़ा-सा गंगाजल पिलाने की देर है। भारतीय उच्चशिक्षा का वर्तमान संकट उसकी आखिरी चुनौती है, क्योंकि इसके बाद वह मर चुकी होगी, और उसकी जगह एक विशाल व्यावसायिक प्रशिक्षण तंत्र स्थापित किया जाएगा, जिसमें ‘उच्च’ कहलाने लायक शिक्षा का नामोनिशान न होगा।

उपरोक्त कथन नाटकीय लग सकता है, लेकिन चिंता का मुद्दा तो यह है कि इसमें जरा भी अतिरेक नहीं है। त्रासदी इतनी गहरी और व्यापक है कि अतिशयोक्ति असंभव है। इस संकट की वजह बाहरी ताकतें नहीं, अपनी ही सरकार है, जो हाल के सत्ता परिवर्तन के बावजूद उच्चशिक्षा के मामले में कपिल सिब्बल से लेकर स्मृति ईरानी तक एक ही राग अलाप रही है। नई नीति को जिस शैली में लागू किया जा रहा है उसके तीन गुण हैं: समावेशन, सत्तावाद और हड़बड़ी। उच्चशिक्षा में सुधार के लिए प्रस्तावित नीतियां इस क्षेत्र के हर कोने को प्रभावित करेंगीं- कोई भी विषय, संस्थान या प्रांत अछूता नहीं रहेगा, सब में मूलभूत परिवर्तन अनिवार्य होगा।

ये सारे बदलाव ऊपर से लागू किए जा रहे हैं- इनमें से एक भी ऐसा नहीं है, जिसकी मांग छात्रों, शिक्षकों या अभिभावकों ने की हो। इन सभी सुधारवादी नीतियों की योजनाएं आला अफसरों ने बनाई हैं और ये उनके ही निर्देशन में लागू होंगी। प्रभावित संस्थानों और समुदायों से सलाह-मशविरे की विधिवत प्रक्रियाएं स्थगित कर दी गई हैं या मात्र औपचारिकता तक सीमित रखी गई हैं। उच्चशिक्षा के अब तक के सबसे बड़े सुधार अभियान को तुरंत लागू करने की मंशा से सरकार ने इसके लिए त्वरित समय-सारिणी तय की है, जिसे निभाने के लिए भारी दबाव बनाया जा रहा है।

तो इस विशाल, अभूतपूर्व अभियान के उद्देश्य क्या हैं? प्रस्तावित नई नीतियां मौजूदा उच्चशिक्षा व्यवस्था की किन कमियों-खामियों को दूर करेंगीं? इन सवालों के सीधे जवाब तो नहीं मिलते, लेकिन सरकारी आदेशों और दस्तावेजों से जो निहित उद्देश्य सामने आते हैं उनमें प्रमुख हैं एकरूपीकरण, केंद्रीयकरण और आधिकारिक नियंत्रण।

सुधारवादी अभियान का सबसे स्पष्ट और प्रबल आग्रह है उच्चशिक्षा का एकरूपीकरण। यह महज पाठ्यचर्या (करीकुलम) के मानकीकरण तक सीमित नहीं, बल्कि पाठ्यविवरण (सिलेबस) के समानीकरण की मुहिम है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा मानव संसाधन मंत्रालय के निर्देशानुसार जारी किए गए आदेश के मुताबिक हर विषय के स्नातकीय (बीए, बीएससी, बीकॉम आदि) पाठ्यविवरणों में अस्सी फीसद सामग्री पूरे देश में एक समान होगी, और इसे निर्धारित करने का अधिकार केवल आयोग के पास होगा। बाकी बीस प्रतिशत पाठ्यसामग्री को विश्वविद्यालय अपने स्तर पर बना सकते हैं।

इसके साथ ही परीक्षण प्रणाली को भी देश भर में समान बनाने का प्रस्ताव है- अब प्रतिशतांक के बदले ग्रेड दिए जाएंगे। समानता लाने के पीछे घोषित लक्ष्य है- सारे देश के उच्च शैक्षणिक संस्थानों में छात्रों की निर्बाध आवाजाही कायम करना। उदाहरण के तौर पर एक छात्रा ने अगर स्नातक पाठ्यक्रम का पहला वर्ष केरल के किसी विश्वविद्यालय से किया है, तो वह दूसरे-तीसरे वर्ष की पढ़ाई के लिए केरल से बाहर देश के किसी भी विश्वविद्यालय में बिना रोक-टोक प्रवेश पा सकेगी।

भारतीय उच्च शैक्षणिक व्यवस्था से परिचित कोई भी व्यक्ति तुरंत समझ सकता है कि यह तुगलकी मिजाज की नीति है, जिसका जमीनी वास्तविकताओं से कोई वास्ता नहीं। छात्रों की मनमाफिक आवाजाही के आड़े आने वाला सबसे बड़ा बाधक पाठ्यविवरण की विविधता नहीं, बल्कि चहेते विषयों और संस्थानों में जगह की कमी और इस तंगी से उत्पन्न गला-काट स्पर्धा है। इस सूरत में जो भी नीति प्रमाणित गुणवत्ता वाले शैक्षणिक संस्थानों के अभाव से जूझने का प्रयास न करे वह अप्रासंगिक बनने को अभिशप्त रहेगी। एकरूपीकरण अभियान निरर्थक ही नहीं, नुकसानदेह भी होगा, क्योंकि सबके लिए अनिवार्य मानक औसत या बहुसंख्यक संस्थानों की क्षमता को ध्यान में रख कर तय किए जाएंगे और कुशल संस्थानों को औसत की ओर घसीटा जाएगा।

समान सिलेबस से उत्तम संस्थानों को तो क्षति पहुंचेगी ही, औसत संस्थानों का भी भला नहीं होगा, क्योंकि उनकी समस्या उचित मानकों का अभाव नहीं, बल्कि इन मानकों पर अमल करने की क्षमता और संसाधनों की कमी है।

तमाम विविधताओं के बावजूद आज भी हजारों छात्र अपने मनपसंद संस्थानों या विषयों में दाखिला पाने लायक न्यूनतम योग्यता तो रखते हैं, मगर सीमित स्थानों के कारण केवल उन चंद छात्रों को दाखिला मिल पाता है, जिनके सबसे ज्यादा नंबर हों। पाठ्यविवरण के समान या भिन्न होने से इस समस्या का कोई रिश्ता नहीं है। प्रवेश की होड़ इतनी भीषण हो गई है कि प्रतिशतांकों को ग्रेड में बदलने का नवाचार भी बेमानी होगा, क्योंकि प्रवेश-परीक्षाओं में एक ही अंक के सौवें भाग का निर्णायक होना आम बात बन चुकी है।

मौजूदा सुधारों के दूसरे और तीसरे आयाम हैं- केंद्रीयकरण और अधिकारिक नियंत्रण, जिनका एक-दूसरे से करीबी रिश्ता है। इस मामले में भी सरकार की मंशा साफ है- सभी उच्च शैक्षणिक संस्थानों को एकछत्र नियंत्रण के अधीनस्थ करना और साथ ही नियंत्रण को सांस्थानिक स्तर से निकाल कर उच्च अधिकारियों के स्तर पर पहुंचाना। अभी यह प्रक्रिया केंद्रीय और राष्ट्रीय संस्थानों से शुरू हो रही है, पर इसमें कोई शक नहीं कि इसे प्रांतीय स्तर पर भी लागू किया जाएगा। विश्वविद्यालयों और समांतर संस्थानों की विभिन्न निर्वाचित और मनोनीत समितियां और सभाएं, जिनका नीतिनिर्धारण में महत्त्वपूर्ण स्थान था, अब किनारे कर दी जाएंगी।

इसके साथ ही उच्च शैक्षणिक संस्थानों की स्वायत्तता को खारिज कर एक ऐसा केंद्रीयकृत सत्तातंत्र स्थापित किया जाएगा, जो विश्वविद्यालयों और कॉलेजों को नौकरशाही की श्रेणीबद्ध शैली में संचालित करेगा। उच्च शिक्षातंत्र में पढ़ाने वाले शिक्षक अब विचारशील बुद्धिजीवी की जगह मात्र सरकारी कर्मचारी बन कर नौकरशाही व्यवस्था के अधीन कर दिए जाएंगे और उन्हें अपने मोटे वेतन के बदले आज्ञाकारी मौन साधना होगा। पाठ्यक्रम, शैक्षणिक नीति आदि मामलों में उनका दखल बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और उनकी भूमिका ऊपर से निर्धारित पाठ्यसामग्री छात्रों को पहुंचाने तक सीमित रहेगी।

राष्ट्रीय स्तर पर मंचित होने जा रहे इस ऐतिहासिक दुखांत का सबसे चौंकाने वाला पहलू है, इसके बारे में सार्वजनिक उदासीनता। इसका एक कारण है उच्चशिक्षा और शिक्षकों के बारे में बदलता लोकमत। शिक्षा अब विद्या और ज्ञान की चीज से ज्यादा नौकरी पाने और सामाजिक गतिशीलता के साधन के रूप में दिख रही है। ऐसे में मध्यवर्गीय मानस को लग सकता है कि शिक्षा का व्यवसायीकरण उचित है, क्योंकि आखिर यह रोजगार का जरिया ही तो है। लेकिन ऐसा सोचने से दो महत्त्वपूर्ण बातें भुला दी जाती हैं। पहली यह कि व्यावसायिक जरूरतों और प्रशिक्षणात्मक पाठ्यक्रम में- चाहे वह कितना भी रोजगार-परस्त या ‘प्रोफेशनल’ क्यों न हो- कभी सीधा रिश्ता नहीं होता।

व्यावसायिक जीवन का सबसे कीमती और अत्यावश्यक हुनर है परिवर्तन का सामना कर पाना। शिक्षण और प्रशिक्षण में यही अंतर है। प्रशिक्षण छात्र को जानी-पहचानी समस्याएं सुलझाने में दक्ष बनाता है, लेकिन भविष्य की अनजान समस्याओं से निपटने के साधन मुहैया नहीं कराता। ‘उच्च’ कहलाने वाली शिक्षा की यही खासियत है कि उसका व्यापक फलक, समीक्षात्मक रवैया और उदारवादी नजरिया छात्रों में अपरिचित चुनौतियों का सामना कर पाने का कल्पनाशील कौशल विकसित करता है।

उदारतावादी विश्वदृष्टि व्यावसायिक प्रशिक्षण के लिए भी अनिवार्य है, क्योंकि वह उसकी मौलिकता का आधार है, जिसके जरिए वह तेजी से आ रहे बदलावों का मुकाबला आत्मविश्वास के साथ कर सकता है। उच्चशिक्षा को रोजगार-योग्य प्रशिक्षण का पर्याय मान लेने से जो दूसरी बात हम भूल जाते हैं, वह है रोजगार और जिंदगी का फर्क, जो कमोबेश बाजार और समाज के बीच के फासले का ही स्वरूप है। इसमें कोई शक नहीं कि बाजार और अर्थव्यवस्था में शरीक होकर रोजी-रोटी कमाना लगभग हर इंसान की नियति है और इसे निभाने में हम अपने जीवन का बहुत बड़ा हिस्सा झोंक देते हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि बाजार के हित और समाज के हित एक या हमेशा एक-दूसरे के अनुकूल होते हैं। हमारे युग में बाजार का वर्चस्व अपनी चरम सीमा पर है। ऐसे समय में अगर समाज के हित बाजार के हित से टकराते हैं, तो समाज के हितों की रक्षा के लिए वैचारिक और व्यावहारिक संसाधन कहां से मिलेंगे?

आधुनिक युग में उच्चशिक्षा की प्रतिष्ठा उसके ठीक इसी प्रकार के संसाधनों के कारगर स्रोत होने पर टिकी है। लेकिन आज हम इस अमूल्य सामूहिक संपदा को बाजार के हवाले करने पर तुले हुए हैं, क्योंकि शिक्षा का व्यवसायीकरण उसका बाजारीकरण ही तो है!

यहां सवाल किसी शुचितावादी द्विभाजन का नहीं, बल्कि अनुपात और मर्यादाओं का है। विशुद्ध ‘सात्विक’ शिक्षण का कोई सतयुग कभी रहा भी हो तो वह कब का गुजर चुका है और आज के विश्वविद्यालयों के लिए दुनियादारी से परहेज करना न तो संभव है और न ही उचित। लेकिन बाजार के हितों की कद्र करना और बाजार के हाथों बिक जाने में बहुत बड़ा अंतर है, और इसे भुला देना आत्मघाती हो सकता है। उच्चशिक्षा संबंधित नई नीतियां इसी आत्मघातक राह पर बढ़ते जाने के संकल्प से प्रेरित हैं, भले ही वे सार्वजनिक उच्चशिक्षा को संबोधित कर रही हैं। आर्थिक शक्तियां और सत्ता तंत्र, दोनों से संवाद निभाते हुए भी कुछ दूरी बनाए रखने से ही उच्चशिक्षा अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभा सकती है। पर आज का सत्तातंत्र उच्चशिक्षा की समीक्षात्मक प्रवृत्ति को मिटा कर उसे नौकरशाही का अभिन्न अंग बनाते हुए बाजार के स्वार्थों को साधने का माध्यम बना रहा है।

बिहार के एक भूतपूर्व मुख्यमंत्री के बारे में किंवदंती थी कि उन्होंने जानबूझ कर राज्य के विश्वविद्यालयों को बर्बाद किया, क्योंकि उच्चशिक्षा अगड़ी जातियों का गढ़ था और इसके ध्वस्त होने से पिछड़ों को फायदा होने की अपेक्षा थी। आज हर जाति, समुदाय और वर्ग के बिहारवासी को इस आत्मघाती तर्क के दीर्घकालीन नतीजों का अहसास होगा। इसी कोटि का एक अलग रणनीतिक तर्क आज राष्ट्रीय स्तर पर अपनी विषैली नीतियों से उच्चशिक्षा की हत्या करने पर तुला है। अगर इन नीतियों का व्यापक विरोध नहीं हुआ तो यह तय है कि आने वाले दिनों में ‘विश्वविद्यालय’ केवल एक मेट्रो स्टेशन का नाम बन कर रह जाएगा।

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