अजय मेहरा
अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) और दिल्ली के उपराज्यपाल, जो राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में द्वैध शासन प्रणाली के कारण निर्वाचित सरकार की अपेक्षा महत्त्वपूर्ण शक्ति बटोरे केंद्र सरकार के प्रतिनिधि हैं, के बीच की जंग पच्चीस मई को एक नई ऊंचाई पर पहुंची, जब दिल्ली उच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को जनमत का आदर करने का परामर्श दिया। उच्च न्यायालय में दिल्ली के एक पुलिसकर्मी ने भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो की उसके खिलाफ की गई कार्रवाई के विरुद्ध अपील की थी कि दिल्ली पुलिस केंद्र सरकार के अधीन है इसलिए दिल्ली सरकार उन पर कार्रवाई नहीं कर सकती। केंद्र सरकार ने भी यह आदेश जारी किया था कि दिल्ली सरकार केंद्र सरकार के अधिकारियों पर अभियोग नहीं लगा सकती। दिल्ली उच्च न्यायालय का फैसला ‘आप’ सरकार के हर कदम को सही नहीं बताता है, बल्कि यह बताता है कि केंद्र सरकार इस प्रश्न को भाजपा और ‘आप’ के बीच प्रतिष्ठा का प्रश्न बना रही है।
इससे पूर्व दिल्ली सरकार के मुख्य सचिव की नियुक्ति को लेकर केंद्र और दिल्ली सरकारों के बीच तनातनी हुई और केंद्र सरकार ने आज्ञा जारी की कि केंद्रीय कैडर के अधिकारियों का तबादला, तैनाती और नियुक्ति उपराज्यपाल उनके प्रतिनिधि के रूप में करेंगे। दुर्भाग्यवश यह संवैधानिक प्रश्न न रह कर ‘आप’ और भाजपा के बीच राजनीतिक द्वंद्व का रूप धारण कर चुका है। दिल्ली के मुख्य सचिव की नियुक्ति को लेकर विवाद इसलिए बेमानी लगा कि शकुंतला गैमलीन का नाम दिल्ली सरकार की केंद्र को दी हुई सूची में था, पर न सिर्फ उनकी नियुक्ति पर दिल्ली सरकार ने एतराज जताया, उन पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगाए, जो राजनीतिक और प्रशासनिक दृष्टि से ठीक नहीं है। ‘ट्रांजैक्शन आॅफ बिजनेस रूल्स’ नियुक्तियों पर उपराज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच परामर्श का प्रावधान करता है, इस परिपाटी की इज्जत करना दोनों के लिए उपयुक्त है।
‘आप’ की दिल्ली सरकार का पच्चीस मई को मंत्रिमंडल की खुली बैठक आयोजित करना और 26-27 मई का दिल्ली विधानसभा का विशेष सत्र- जहां ‘आप’ के आदर्श शास्त्री ने उपराज्यपाल पर महाभियोग चलाने की शक्ति विधानसभा को देने की वकालत की और केंद्र सरकार के विरुद्ध बहुमत से प्रस्ताव पारित हुआ- यह सब अनावश्यक राजनीति है। कांग्रेस और भाजपा ने सत्ता में होते हुए दिल्ली के राज्य के विषय को टाला है, मगर सत्ताच्युत होने पर इसकी मांग की है।
एक इसी प्रकार का द्वंद्व 2002 में हुआ, तत्कालीन उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने दिल्ली की कांग्रेस सरकार के पर कतरने के लिए ‘ट्रांजैक्शन आॅफ बिजनेस रूल्स’ की धारा 48 (अब नियमों में नहीं) लागू करने की घोषणा की, जिसे भाजपा की साहिब सिंह वर्मा सरकार के लिए निरस्त कर दिया था। इस स्थिति का भारतीय राज्य व्यवस्था और संवैधानिक सरकार के परिप्रेक्ष्य से अगर निष्पक्ष विश्लेषण किया जाए तो इसमें तीन परस्पर संबद्ध प्रश्न उठते हैं- पक्ष स्वावलंबन, स्वायत्तता और भारत की राजधानी दिल्ली का अधिशासन। विवादास्पद विषय यह है कि इस स्थिति में अपनी आबादी में लगातार बढ़ोतरी करती जा रही दिल्ली का शासन किसी का भी सरोकार नहीं है। भाजपा दिल्ली में अपनी हार को भूली नहीं है और उपराज्यपाल का इस्तेमाल राजधानी पर नियंत्रण करने के लिए करना चाहती है और ‘आप’ इस विवाद का उपयोग अपने राष्ट्रीय राजनीतिक लाभ के लिए करना चाहती है।
भारत के शाश्वत नगर दिल्ली ने मुगलों के पतन के बाद से अधिशासन की समस्या का सामना किया है। 1857 के विद्रोह के बाद यह पंजाब का एक जिला-नगर बना। सुविधाएं आर्इं, 1863 में पहली नगरपालिका भी, पर ब्रिटिश सैनिकों और अधिकारियों के शाहजहानाबाद में होने के कारण।
इसकी मोहक सौम्यता के कारण विक्टोरिया के भारत की साम्राज्ञी घोषित होने पर 1877 में, वाइसराय लॉर्ड करजन द्वारा 1903 में (राजधानी कलकत्ता थी) और दिल्ली के राजधानी बनने पर 1911 में अंगरेजों ने दरबार लगाया। 1912 से 28 जनवरी, 1950 तक यह मुख्य आयुक्त का प्रांत रहा, संविधान ने इसे एक ‘पार्ट सी राज्य’ का दर्जा दिया; कार्यपालिका की शक्तियां मुख्य आयुक्त में निहित थीं। राज्य पुनर्गठन आयोग (1956) ने कहा, क्योंकि ‘कानून-व्यवस्था, स्थानीय स्वशासन की संस्थाएं, इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट और दिल्ली तथा नई दिल्ली में लोक सेवाओं को नियंत्रित करने वाले अन्य सांविधिक बोर्ड’ राज्य विधानमंडल के दायरे में नहीं थे, प्रशासनिक स्तर में गिरावट आ गई। आयोग ने दिल्ली के लिए प्रातिनिधिक संस्था दिए बगैर केंद्रशासित क्षेत्र का दर्जा निर्धारित किया। दिल्ली की महानगरपालिका से उस उद्देश्य की पूर्ति नहीं हुई। 1966 में मेट्रोपोलिटन काउंसिल की स्थापना हुई, जिसे केवल अनुशंसा का अधिकार था।
एक प्रभावकारी स्वशासी संस्था के प्रति केंद्र सरकार के संशय के कारण दिल्ली की नगरपालिका भी अस्तव्यस्तता की स्थिति में रही है। नई दिल्ली में एक नगरपालिका समिति (एनडीएमसी) और दिल्ली महानगरपालिका (एमसीडी) में कार्यकारी शक्तियां एक अधिकारी के हाथ में रही हैं। निर्वाचित प्रतिनिधि केवल विमर्श कर सकते थे। शीला दीक्षित की सरकार ने 2011 में एमसीडी को तीन भागों में बांट दिया।
कांग्रेस और भाजपा ने दिल्ली के दर्जे पर संकीर्णता दिखाई है, विपक्ष में रहते हुए राज्य बनाने की मांग की है और सरकार में आने पर इसकी उपेक्षा की है। इसी कारण दिल्ली 1993 में द्वैध शासन वाला क्षेत्र बना- केंद्र प्रशासित क्षेत्र के साथ सत्तर सदस्यीय विधानसभा और सीमित शक्तियों वाली सरकार। तब से भाजपा पांच वर्षों तक और कांग्रेस पंद्रह वर्षों तक सत्ता में रही। ‘आप’ ने 2013 और 2015 में राजनीतिक समीकरण बदल दिया। यों तो जब भी केंद्र और दिल्ली में अलग-अलग सरकारें रही हैं विरोधाभास प्रखर हुए हैं, पर ‘आप’ ने आरंभ से ही टकराव की राजनीति द्वारा अपनी पहचान बनाने और बढ़ने का प्रयास किया है और इस संवैधानिक प्रश्न को राजनीतिक रंग देकर वे दिल्ली को राष्ट्रीय मंच के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। भाजपा उनके हाथों में खेल रही है।
भारतीय संविधान के उनहत्तरवें संशोधन, 1991 द्वारा सम्मिलित किए अनुच्छेद 239 एए से राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली का निर्माण हुआ है। इस सरकार को सातवीं अनुसूची में राज्य-सूची के सभी विषयों पर विधायी अधिकार हैं; केवल पुलिस, अदालत, अदालती शुल्क और जमीन उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं है। दूसरा, अनुच्छेद 239 एए (3 सी) संसद को सभी विषयों पर, जो कानून बन चुके हैं उन पर भी, समांतर पर अधिभावी शक्ति देता है। तीसरा, उपराज्यपाल को परिच्छेद 4 द्वारा निर्वाचित सरकार पर स्वनिर्णयगत अधिकार और सरकार के निर्णयों को राष्ट्रपति (केंद्र सरकार) के पास भेजने का अधिकार है। चौथा, उपराज्यपाल को विधानसभा का सत्र न होने पर अध्यादेश जारी करने का अधिकार है, पर इसे छह हफ्तों में विधायिका की स्वीकृति मिलनी आवश्यक है। अंतत: उपराज्यपाल अनुच्छेद 239 एइ के तहत अनुच्छेद 239 एए को निलंबित करने का परामर्श राष्ट्रपति को दे सकता है। प्रत्यक्षत:, संवैधानिक रूप से राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की निर्वाचित सरकार का पलड़ा हल्का रखा गया है, पर रोजाना के कामकाज में स्वायत्तता है और संघर्ष की कोई गुंजाइश नहीं अगर ट्रांजैक्शन आॅफ बिजनेस रूल्स का अनुसरण किया जाए।
दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल (केंद्र सरकार का एक प्रतिनिधि) के बीच मौजूदा झगड़ा अधिकतर ट्रांजैक्शन आॅफ बिजनेस रूल्स से संबद्ध है, जो शक्ति-संतुलन को और भी ज्यादा उपराज्यपाल की ओर झुकाता है। फिर भी, मुख्यमंत्री और मंत्रिमंडल के लिए इस व्यवस्था में उपराज्यपाल के साथ नियमित मंत्रणा और सहयोग से सरकार चलाने के लिए पर्याप्त अवसर हैं। इसमें उपराज्यपाल की किसी भी फाइल को मांगने की शक्ति (19), आठ वर्जित विषय जिन पर मुख्यमंत्री के लिए मुख्यसचिव द्वारा उपराज्यपाल को सूचित करना आवश्यक है (23) है।
मांग पर विस्तृत सूचना देने की मुख्यमंत्री की अनिवार्य भूमिका, धारा-42 जिसके अनुसार हर विधेयक का विधानसभा में पेश होने से पहले उपराज्यपाल द्वारा निरीक्षित और स्वीकृत होना अनिवार्य है। चौथा (उपराज्यपाल के कार्यपालिका संबंधी कार्यों के विषय में) और पांचवां अध्याय (केंद्र सरकार से संबंधित) उपराज्यपाल के पद को महत्त्वपूर्ण बनाते हैं। इन सबके बावजूद, जैसा कि शीला दीक्षित ने हाल ही कहा, दोनों के लिए साथ मिल कर काम करना संभव और श्रेयस्कर है।
वर्तमान रस्साकशी के मूल में अरविंद केजरीवाल की आंदोलनपरक, लामबंदी की राजनीति है, जो उनके इस दूसरे अवतार में थोड़ी सूक्ष्म है, पर उद्देश्य उनके और ‘आप’ के लिए राष्ट्रीय मंच की तलाश है। उनकी रणनीति केंद्र सरकार से उलझ कर भाजपा को एक केंद्रपरक और ‘आप’ को एक विकेंद्रीकरण उन्मुख दल के रूप में उजागर करना है। इस प्रक्रिया में उन्होंने अधिशासन की राजनीति को संवैधानिक लालित्य और शिष्टाचार से मुक्त कर दिया है। आइएएस को केंद्रोन्मुख दिखने में नौकरशाही से संघर्ष की उनकी रणनीति भी अदूरदर्शी है, क्योंकि इससे प्रशासन में उनको समर्थन मिलना कठिन होता जा रहा है।
‘आप’ की रणनीति से अपने को एक कोने में धकेले जाने पर भाजपा और केंद्र सरकार भी प्रखर हो रही है और उपराज्यपाल भी कठोर रुख अपना रहे हैं। वैसे इस स्थिति में भी केंद्र सरकार को संवैधानिक विशेषज्ञों से परामर्श कर मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल के साथ बैठ, इस समस्या को द्विपक्षीय रूप से हल करना चाहिए। कांग्रेस और अन्य दलों को भी साथ रखने में लाभ ही है।
यों तो दिल्ली की स्थिति अजीबोगरीब रही है, पर 2002 में भाजपा ने राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश की। तेरह वर्ष बाद ‘आप’ के साथ दूसरा पक्ष भाजपा है। पर केंद्र में कांग्रेस होती तो भी कुछ ऐसा ही होता। मुख्य प्रश्न भारत के 1.8 करोड़ विभिन्न जनसंख्या वाली दिल्ली का अधिशासन है, जहां अगर देश के 1945 सबसे अमीर रहते हैं, तो डेढ़ लाख बेघर भी रहते हैं; इनके बीच विभिन्नता भरा मध्यवर्ग है। ऐसे विविधतापूर्ण राजधानी-महानगर को प्रशासित करना जटिल अवश्य है, पर राष्ट्रहित में सारे राजनीतिक दल इसका हल ढूंढ़ सकते हैं।
सारे विश्व में राजधानी वाले शहरों का प्रशासन एक राजनीतिक प्रश्न रहा है। बर्लिन का प्रशासनिक तंत्र स्वायत्त है और संघीय सरकार उस पर नियंत्रण नहीं करती। वाशिंगटन डीसी, लंदन, ओटावा, एम्सटर्डम, कैनबरा, पेरिस आदि नगरों में निर्वाचित नगर प्रशासन है, जो शहरी व्यवस्था का खयाल रखता है। वैसा ही कुछ ब्रिटिश शासन ने दिल्ली के विषय में भी सोचा था। अधिकतर नगरों में मेयर वहां का प्रतिनिधि होता है। पुलिस, जिस पर दिल्ली की लड़ाई हो रही है, नगर प्रशासन के पास होती है, पर कोई भी दल इसे अपनी राजनीति का हिस्सा नहीं बनाता।
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