राकेश तिवारी

मोदी सरकार ने पिछले एक वर्ष में अकादमिक और सांस्कृतिक संस्थानों में जिन लोगों को शीर्ष पदों पर बैठाया है उनमें से ज्यादातर की योग्यता को लेकर गंभीर सवाल उठे हैं। यहां विशेष रूप से मानव संसाधन, सूचना एवं प्रसारण और संस्कृति मंत्रालयों के संदर्भ में बात हो रही है। भाजपा और उसके बिठाए लोग उठ रहे विवादों को राजनीति से प्रेरित कहते हैं। गलत को सही ठहराने के लिए भाजपा और संघ ने कुतर्क की नई-नई शैलियां विकसित की हैं। पर पता तो उन्हें भी होगा कि तमाम संस्थाओं-संस्थानों में अब तक, अपवाद को छोड़ दें तो, आमतौर पर ऐसे प्रतिभाशाली और ‘विजनरी’ लोग रहे हैं जिनकी योग्यता, उनकी किसी भी तरह की विचारधारा के बावजूद, असंदिग्ध रही है। फिर सरकार और आरएसएस इन संस्थाओं की प्रतिष्ठा के साथ खिलवाड़ क्यों कर रहे हैं? कहीं इसलिए तो नहीं कि वे इन्हें शत्रु खेमे के शिविर की तरह देखते हैं और ध्वस्त कर देना चाहते हैं?

ताजा विवाद देश के अत्यंत प्रतिष्ठित पुणे स्थित भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान (एफटीआइआइ) की संचालन परिषद का अध्यक्ष टीवी अभिनेता और भाजपा के सदस्य गजेंद्र चौहान को बनाए जाने से उठा है। एफटीआइआइ सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के तहत आने वाला एक स्वायत्त संस्थान है। चौहान ने पिछले वर्ष लोकसभा चुनावों में पार्टी का प्रचार भी किया। उनकी योग्यता को लेकर सवाल उठाने वाले और उनकी नियुक्ति के खिलाफ हड़ताल कर रहे छात्रों को हैरानी इस बात की है कि जिस संस्थान के अध्यक्ष कभी अंतरराष्ट्रीय ख्याति के अडूर गोपालकृष्णन, मृणाल सेन, गिरीश करनाड, यूआर अनंतमूर्ति और श्याम बेनेगल जैसी प्रतिभाएं रहीं, उस पद को अब एक ऐसे टीवी अभिनेता सुशोभित करेंगे जो भाजपा के कार्यकर्ता हैं और जिन्होंने ‘महाभारत’ धारावाहिक में अभिनय के सिवा कोई उल्लेखनीय काम फिल्म या टेलीविजन की दुनिया में नहीं किया है। किसी का विरोध केवल भाजपाई या संघी होने के कारण हो रहा है ऐसा कहना इसलिए गलत है क्योंकि भाजपा का सांसद रहते 2001 में विनोद खन्ना को अध्यक्ष बनाए जाने का विरोध नहीं हुआ था। विनोद खन्ना की योग्यता संदिग्ध नहीं थी। चौहान की नियुक्ति का विरोध केवल छात्र नहीं कर रहे, बल्कि फिल्म जगत के कई बड़े नाम और अलग-अलग दलों के कम से कम चार सांसद भी विरोध जता चुके हैं।

एफटीआइआइ सोसाइटी में ‘पर्सन्स ऑफ एमिनेंस’ श्रेणी में नामित आठ में से चार सदस्य भी सीधे-सीधे आरएसएस से संबद्ध बताए जाते हैं। इनमें से अनघा घईसास और नरेंद्र पाठक के मीडिया के जरिए सामने आए बयान अपनी आक्रामकता के कारण चिंताजनक हैं। दरअसल, कलाओं और ज्ञान-विज्ञान की संस्थाओं में नवनियुक्त प्रमुखों और सदस्यों के अब तक के बयानों से यह भी संदेश गया है कि कोई फिल्म, कलाकृति, रचना, इतिहास या शिक्षा उसी तरह होनी चाहिए जिस तरह वे चाहते और सही समझते हैं। जाहिर है, उनके लिए अवैज्ञानिक, अंधविश्वासी और रूढ़िवादी विचारों से इस देश को उबारने की पांच-छह दशकों की सारी कोशिशें फिजूल थीं।

इससे पहले भीष्म पितामह की भूमिका निभाने वाले मुकेश खन्ना को चिल्ड्रन्स फिल्म सोसाइटी का प्रमुख बना दिया गया था, जो भाजपा के लिए चुनाव प्रचार कर चुके हैं। इसी तरह कुछ महीने पहले पहलाज निहलानी को फिल्म सेंसर बोर्ड (सेंट्रल बोर्ड आॅफ फिल्म सर्टिफिकेशन आॅफ इंडिया) का प्रमुख बनाए जाने पर विवाद हुआ था। सेंसर बोर्ड में कुछ और ऐसे सदस्य शामिल किए गए हैं जो भाजपा समर्थक या कार्यकर्ता के तौर पर जाने जाते हैं।

राजग सरकार की ओर से उत्कृष्टता के तमाम संस्थानों और प्रतिष्ठा में अद्वितीय संस्थाओं के उच्च पदों पर अपने लोगों को बैठाया जाना बहुत चौंकाने वाली बात नहीं थी। यह काम कांग्रेस ने भी किया। पर संबंधों के तमाम समीकरणों के बावजूद अकादमिक या सजर्नात्मक योग्यता का पैमाना इतना कमजोर पहले कभी नहीं रहा। जाहिर है, मोदी सरकार यह सारी कवायद अपने लोगों को केवल उपकृत करने के लिए नहीं कर रही। वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पृष्ठभूमि वाले या सीधे-सीधे भाजपा से जुड़े लोगों को चुन-चुन कर इसलिए बैठा रही है क्योंकि संस्थाओं के आधुनिक और तार्किक सोच को कुंद करना और एकांगी बनाना उसकी रणनीति है।

भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद को ही लें। इसका अध्यक्ष उन प्रो. वाइ सुदर्शन राव को बनाया गया जिनका कहना है कि भारत में विमान और परमाणु हथियार की खोज पांच हजार साल पहले हो चुकी थी। उनका मत यह भी रहा है कि हिंदू महाकाव्यों के जरिए इतिहास को बेहतर समझा जा सकता है। जाति-व्यवस्था पर उनके विचारों को लेकर भी विवाद रहा है। उन्होंने आइसीएचआर की परामर्श समिति से अंतरराष्ट्रीय ख्याति के इतिहासकारों को बाहर जाने को विवश किया।

प्रसिद्ध इतिहासकार रोमिला थापर ने तो सुदर्शन राव की नियुक्तिको अंधेरे दिनों का संकेत करार दिया था। उन्होंने प्रो. राव की अकादमिक योग्यताओं को लेकर भी सवाल उठाए थे। पिछली राजग सरकार में भी भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद भगवाकरण की बहस के केंद्र में रहा, पर पसंद-नापसंद को लेकर स्थितियां हास्यास्पद हो जाने तक कभी नहीं बिगड़ीं। इसी तरह पिछले वर्ष नवंबर में भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद का अध्यक्ष एक ऐसे व्यक्ति को बना दिया गया जिनका मानना है कि नरेंद्र मोदी भगवान का अवतार हैं।

इसी वर्ष मार्च में आइआइटी-मुंबई के अध्यक्ष अनिल काकोदकर और मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी के बीच कुछ भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों में निदेशक के पदों पर नियुक्तिको लेकर मतभेद हो गए थे। काकोदकर ने सवाल उठाया था कि क्या हमारी उत्कृष्ट शैक्षणिक संस्थाओं में स्वायत्तता को दरकिनार कर राजनीतिक मकसद साधने का खेल रचा जा रहा है? यह गंभीर सवाल था और इस पर बहस व विचार-विमर्श की पर्याप्त गुंजाइश है। इससे पहले दिल्ली-आइआइटी के निदेशक पद से आर शेवगांवकर ने भी इस्तीफा दे दिया था। ताजा मामला भाजपा से संबद्ध एक संस्था की निदेशक और पार्टी सांसद की पत्नी स्वरूप संपत को केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड में मनोनीत किए जाने का भी सामने आया है।

मोदी सरकार देश-विदेश में भारत की पांच हजार साल पुरानी महानता का बखान करते नहीं थकती। क्या उसे इतनी बात पता नहीं कि आज अगर इस देश का दुनिया भर में कोई सम्मान है तो वह बहुत कुछ आइआइटी, आइआइएम, एनआइटी, एफटीआइआइ, एनएसडी, जेएनयू, अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान जैसे शिक्षण-प्रशिक्षण के उत्कृष्ट संस्थानों और साहित्य, कला, संस्कृति, इतिहास, विज्ञान आदि क्षेत्रों की शीर्ष संस्थाओं के कारण भी है। इनकी स्वायत्तता इसलिए कायम रखी जाती रही, ताकि ये बिना सरकारी हस्तक्षेप के स्वतंत्र रूप से काम कर सकें और बेहतर कर सकें। स्वायत्तता में दखलंदाजी की छिटपुट कोशिशें बेशक पहले भी होती रहीं, लेकिन संस्थाओं के मजबूत आंतरिक लोकतंत्र में वे बहुत सफल नहीं हुर्इं। पर आज स्वायत्तता के लिए कवच का काम करने वाला ढांचा भी ध्वस्त होता दिख रहा है।

इसका ताजा उदाहरण दुनिया में अपनी प्रतिष्ठा कायम कर चुके भारतीय प्रबंधन संस्थानों (आइआइएम) का है। इन संस्थानों ने स्वायत्तता में काम करते हुए ही प्रबंधन जगत में अपनी साख बनाई। लेकिन स्मृति ईरानी के नेतृत्व में मानव संसाधन विकास मंत्रालय अब एक विधेयक (इंडियन इंस्टीट्यूट्स आॅफ मैनेजमेंट बिल, 2015) के जरिए देश के भारतीय प्रबंधन संस्थानों को ‘रेगुलेट’ (नियंत्रित) करने की इच्छा रखता है।

इस विधेयक के दायरे में दूसरे अन्य संस्थानों को भी लाए जाने की बात है। इससे आशंका यह जताई जा रही है कि आईआईएम को जो विशेष दर्जा प्राप्त है और जो चमक इन संस्थानों की रही है, वह फीकी पड़ सकती है। इसमें अच्छी बात केवल यह बताई जाती है कि इन प्रबंधन संस्थानों द्वारा डिप्लोमा की जगह डिग्री दी जा सकेगी। लेकिन सरकारी नियंत्रण के बाद वह डिग्री प्रतिष्ठा योग्य रह जाएगी, यह थोड़ा संदिग्ध हो जाता है। यह आशंका इसलिए भी जताई जा रही है क्योंकि अब तक जिन संस्थाओं में फेरबदल हो चुका है, ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि राष्ट्रीयता के विचारों के नाम पर वहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों को विस्तार देने का काम शुरू हो गया है।

राष्ट्रीय पुस्तक न्यास (एनबीटी) ने प्रधानमंत्री के स्वच्छता अभियान के मद्देनजर स्वच्छता पर, योग पर और संघ से संबद्ध प्रतिभाओं पर पुस्तकें छापना शुरू कर दिया है। वहीं मेधा पाटकर से संबंधित एक अध्याय को अपनी एक पुस्तक से हटा दिया। कुछ समय पूर्व एनबीटी में अध्यक्ष की नियुक्ति को लेकर विवाद हो चुका है। सत्रह उपन्यासों और बीस कहानी संग्रहों के प्रतिष्ठित मलयालम लेखक ए सेतुमाधवन को उनका कार्यकाल पूरा होने से सात महीने पहले इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया गया; फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक रहे बलदेव भाई शर्मा को उसका अध्यक्ष बनाया गया।

जिस संस्थान के अध्यक्षों में सेतुमाधवन के अलावा प्रसिद्ध इतिहासकार विपिन चंद्रा, ओड़िया के प्रसिद्ध कवि सीताकांत महापात्र, प्रसिद्ध कन्नड़ साहित्यकार यूआर अनंतमूर्ति जैसे लोग रह चुके हों, उसका नया अध्यक्ष संघ के मुखपत्र ‘पांचजन्य’ के पूर्व संपादकको बनाया गया है जिनके खाते में एक भी प्रकाशित पुस्तक नहीं है। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के तहत आने वाला प्रकाशन विभाग दीनदयाल उपाध्याय और हेडगेवार पर पुस्तकें छापने में लगा है। पिछले कुछ समय में साहित्य अकादेमी जैसी स्वायत्त संस्था ने, जिसमें एक निर्वाचित अध्यक्ष होता है, प्रधानमंत्री के स्वच्छता अभियान से अपने दो-तीन साहित्यिक आयोजनों को जोड़ा है। संगीत नाटक अकादेमी ने इक्कीस जून से योग पर एक सप्ताह का आयोजन किया।

संस्कृति मंत्रालय के तहत आने वाली ललित कला अकादेमी का तो और भी बुरा हाल है। सरकार ने इसी वर्ष अप्रैल से इस स्वायत्त संस्था का प्रबंधन अपने हाथों में ले लिया। मंत्रालय के एक अतिरिक्त सचिव को अकादेमी में केंद्र सरकार की ओर से अगले आदेश तक के लिए प्रशासक बना कर बैठा दिया गया है। इसके खिलाफ कुछ लोग अदालत की शरण में गए हैं। चौदह सांसदों के अलावा देश के एक सौ तीस से ज्यादा बुद्धिजीवियों ने इसके विरुद्ध राष्ट्रपति को ज्ञापन दिए हैं। देश भर के कलाकारों ने भी राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और संस्कृति मंत्री को ज्ञापन सौंपे हैं।

स्वायत्तता छीनने का मकसद निश्चय ही स्वतंत्र विचारों पर अंकुश लगाना, असहमति के अधिकार को खत्म करना है। साथ ही, जिस तरह के उद्देश्यों के लिए संस्थाओं का इस्तेमाल हो रहा है वह बहुत खतरनाक संकेत है। बड़ी चिंता इस बात की लेकर है कि संस्थाओं के पिछले पचास-साठ वर्षों में बने प्रगतिशील ढांचे को तोड़ कर कहीं इस देश की बहुलता और विविधता के स्रोतों को पूरी तरह छिन्न-भिन्न न कर दिया जाए। प्रधानमंत्री ने पिछले हफ्ते कहा कि इमरजेंसी देश के इतिहास का सबसे अंधकारपूर्ण दौर था। लेकिन सवाल है कि हमने उससे क्या सबक सीखे हैं? इमरजेंसी को याद करने की सार्थकता तभी हो सकती है जब लोकतांत्रिक कायदों और प्रक्रियाओं और संस्थाओं की स्वायत्तता का लिहाज किया जाए। पर हो इसके उलट रहा है।

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