राजनीति में महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व देने के राजनीतिक दलों के दावे निर्मूल साबित हो रहे हैं। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में महिला उम्मीदवारों की संख्या दस प्रतिशत से भी कम है। नगालैंड और पुदुच्चेरी ऐसे राज्य हैं, जहां एक भी महिला विधायक नहीं है। जब 1951 में पहली लोकसभा बैठी तो सिर्फ 22 महिलाएं थीं, और अब पिछले चुनाव में 66 महिलाएं लोकसभा सदस्य चुनी गर्इं। ये आंकड़े भारतीय लोकतंत्रात्मक व्यवस्था में, महिलाओं की कमतर स्थिति को साफ तौर पर इंगित करते हैं। भारतीय परिप्रेक्ष्य में, महिलाओं के राजनीतिक विकास के संबंध में गहन विश्लेषण करने के लिए चार मुख्य बिंदुओं पर विचार करना जरूरी है- राजनीतिक जागरूकता, राजनीति में भागीदारी, राजनीतिक नेतृत्व प्राप्त करना तथा नेतृत्व प्राप्त कर निर्णयों को प्रभावित करना और दिशा देना। सबसे पहला पड़ाव ‘राजनीतिक जागरूकता’ है, उसके बगैर राजनीतिक विकास संभव ही नहीं।
देश के राजनीतिक परिदृश्य में शुरू से महिलाओं की मौजूदगी कम बेशक रही है, पर सच यह है कि महिलाओं में राजनीतिक चेतना का विकास तेजी से हो रहा है जिसका प्रमाण है पिछले कुछ चुनावी आंकड़े। महिलाएं यह जानने का प्रयास करने लगी हैं कि जिन्हें उन्हें चुनना है वे उनके हितों के प्रति सचेत हैं या नहीं। सीधे तौर पर वे नेता जो शराबबंदी, इलाकों में बेहतर सहूलियतें लाने की बात करते हैं वे उन्हें वोट देना चाहती हैं। विभिन्न अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि महिलाएं पहले से कहीं अधिक मुखर हुई हैं। यह निर्विवादित है कि राजनीतिक जागरूकता में पंचायत चुनाव में महिलाओं को मिला आरक्षण एक अहम कारण है। ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं में पंचायत चुनाव के कारण ज्यादा राजनीतिक जागरूकता आई है।

राजनीतिक जागरूकता के बाद ‘राजनीति में भागीदारी’ दूसरा पड़ाव है। पंचायती राज संस्था, जो जमीनी लोकतांत्रिक ढांचे निर्मित करती है, में महिलाओं की भागीदारी ने ग्रामीण संरचना को सकारात्मक परिवर्तनों की दिशा में बढ़ाया। यह तय था कि अगर राजनीतिके निचले पायदान में महिलाओं को आरक्षण नहीं मिलता तो वे किसी भी तरह अपनी भागीदारी सुनिश्चित नहीं कर पातीं। इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर डेमोक्रेटिक एंड इलेक्टोरल असिस्टेंस स्टॉकहोम-2014 के आंकड़े दिखाते हैं कि ऐसे देशों की संख्या बढ़ी है जहां सार्वजनिक चुनावों में कई तरह का महिला आरक्षण लाया गया है। नब्बे के दशक की शुरुआत में फिलीपींस, पाकिस्तान और बांग्लादेश ने महिला प्रतिनिधियों के लिए दस से पैंतीस प्रतिशत सीटों को आरक्षित किया। इन देशों में महिलाओं को आरक्षण सिर्फ उन्हें समान नागरिक के तौर पर स्वीकार करने के लिए नहीं बल्कि निर्णय लेने की प्रक्रिया में स्त्रीपरक दृष्टिकोण को सम्मिलित करने के लिए किया गया है।

भारत की राजनीतिक संस्थाओं में महिलाओं की कम संख्या है। पंद्रहवीं लोकसभा में, कुल चुने गए सांसदों का केवल दस प्रतिशत (543 सीट में से 59) महिलाएं थीं। कुल 8070 उम्मीदवारों में महिला उम्मीदवारों का अनुुपात केवल 6.9 प्रतिशत था। सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में महिला उम्मीदवारी सबसे अधिक थी। कुल 8136 उम्मीदवारों में 668 महिलाएं थीं। यह कुल उम्मीदवारों का 8.21 प्रतिशत था। 2009 के आम चुनावों के मुकाबले यह एक प्रतिशत की बढ़त है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि सोलहवीं लोकसभा के चुनावों में महिलाओं की सफलता की दर पुरुष उम्मीदवारों से बेहतर रही। सोलहवीं लोकसभा के चुनावों में 668 महिलाओं में से 61 महिला उम्मीदवार (कुल महिला उम्मीदवारों का 9.13 प्रतिशत) लोकसभा के लिए चुनी गर्इं, जबकि पुरुष उम्मीदवारों की सफलता केवल 6.36 प्रतिशत थी।  राज्यों में प्रदर्शन के संदर्भ में, पश्चिम बंगाल में चुनाव के नतीजे अपूर्व रहे जहां जीतने वाली महिलाओं की संख्या दुगुनी हो गई। कुल बयालीस उम्मीदवारों में यह संख्या चौदह है। ये आंकड़े दो अलग तस्वीरें पेश कर रहे हैं। एक यह कि महिलाओं के नेतृत्व को लेकर कई प्रश्न खड़े करने के बावजूद वे अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर रही हैं। दूसरे, यह एक चेतावनी भी है कि महिलाओं को अगर राजनीति के प्रथम पायदान पर आरक्षण नहीं दिया गया, तो उनके ‘सशक्तीकरण’ के प्रयास पूरे नहीं हो पाएंगे।

महिलानेतृत्व पर अविश्वास करने वाले प्राय: यह तर्क देते हैं कि महिलाओं में राजनीति की समझ कम होती है क्योंकि उनके जीवन का अधिकांश हिस्सा अपने घर-परिवार के मध्य व्यतीत हो जाता है। इसे आज भी महिलाओं की प्राथमिक जिम्मेदारी माना जाता है। दूसरे, पुरुष नेताओं के मुकाबले महिलाओं के चुनाव जीतने की संभावना कम होती है। पहला तर्क कुछ नया नहीं है। यह तर्क उन्नीसवीं सदी के आरंभ से ही दिया जाता रहा है जब महिलाओं ने मताधिकार की मांग की थी। आज विश्व की श्रम-शक्ति में बड़ी संख्या में महिलाएं मौजूद हैं। फिर, दक्षिण अफ्रीका, नार्वे, डेनमार्क में वे विधायिका और अन्य निर्णयकारी निकायों में चालीस प्रतिशत से अधिक हैं। इससे सिद्ध होता है कि अगर पर्याप्त सामाजिक और पारिवारिक समर्थन मिले तो महिलाएं घर के उत्तरदायित्व के साथ-साथ सार्वजनिक उत्तरदायित्व भी कुशलता से निभा सकती हैं। यह कहना कि महिलाओं के चुनाव जीत सकने की संभावना कम होती है, तथ्यों से मेल नहीं खाता। यह कटु सत्य है कि परंपरावादी भारतीय समाज में पुरुषों की तुलना में महिला उम्मीदवारों के समक्ष विश्वसनीयता की समस्या ज्यादा होती है। महिलाओं को अपनी योग्यता सिद्ध करनी होती है। गुजरात सरकार ने महिला सशक्तीकरण के लिए एक अच्छी पहल करते हुए ‘समरस योजना’ चलाई है, जिसके तहत प्रदेश सरकार उन पंचायतों को पांच लाख का इनाम देती है जिनके सरपंच समेत सभी प्रतिनिधि महिलाएं हों। प्रदेश सरकार की इस योजना का ही परिणाम है कि 254 गांवों ने गांवों की बागडोर पूरी तरह से महिलाओं को दे दी है।

हाल ही में केंद्र सरकार ने निर्णय लिया है कि महिला सरपंचों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए उनके दायित्वों व अधिकारों के संबंध में प्रशिक्षण दिया जाएगा। इसके पीछे उद््देश्य स्पष्ट है कि सरपंच बनने के बाद महिलाओं को अपने वित्तीय व राजनीतिक अधिकारों की जानकारी नहीं होती, जिसके कारण उनके परिवार के पुरुष अनावश्यक हस्तक्षेप करके, उनकी शक्तियों का उपभोग करते हैं। ‘महिला सरपंच कठपुतली मात्र’ हैं यह कथन पूरी तरह सच नहीं है। चूंकि महिलाओं का सत्तासीन होना आज भी पुरुष सत्तात्मक समाज को सहज स्वीकार नहीं है, यही कारण है कि येन-केन-प्रकारेण उनके कार्यों में हस्तक्षेप करने की चेष्टा की जाती है। पर ज्यों-ज्यों महिला सरपंचों को अपने अधिकारों का ज्ञान हो रहा है वे अवांछित हस्तक्षेपों का विरोध कर रही हैं। ऐसे कई उदाहरण हैं कि उनके कार्यों को देश में ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी सराहा गया है। राजनीति में प्रवेश करने से पहले कई और सामाजिक पहलू हैं जो एक महिला के लिए व्यवधान उत्पन्न करते हैं। इसके चलते बहुत-सी महिलाएं पूरी तरह ठहर जाती हैं या फिर नेतृत्व की भूमिका के अपने प्रयासों में देर कर देती हैं। धन जुटाना, बहुत-सी महिलाओं के लिए, जो पुरुषों के बराबर धन नहीं कमातीं या फिर उनकी आय का कोई स्रोत नहीं है, चुनौतीपूर्ण हो सकता है। फिर भी इन चुनौतियों का सामना करते हुए वे राजनीति में भागीदारी कर रही हैं। राजनीतिक विकास का तीसरा तथा चौथा पड़ाव राजनीतिक नेतृत्व प्राप्त करना तथा नेतृत्व प्राप्त कर निर्णयों को प्रभावित करना है व दिशा देना है। समानुपातिक प्रतिनिधित्व की दहलीज पर भले महिलाएं नहीं पहुंच पाई हों लेकिन पहले की तुलना में उनकी उपस्थिति का दायरा जरूर बढ़ा है। महिलाओं की राजनीतिक विकास यात्रा अभी बहुत लंबी है। तमाम चुनौतियों के बीच, स्वयं को सिद्ध करना दुष्कर कार्य अवश्य है, पर असंभव नहीं।