रबी फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय हो गया है। वहीं खरीफ की फसल बेचने के लिए किसान मंडियों में पहुंचे चुके हैं। इस साल जब खरीफ फसलों का न्यूतनतम समर्थन मूल्य तय किया गया था तो किसानों के चेहरे पर खुशी थी, क्योंकि कुछ फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में अच्छी बढ़ोतरी की गई थी। लेकिन समर्थन मूल्य की घोषणा कागजों में ही नजर आ रही है। किसान मंडियों में बैठे हैं और सरकारी खरीद की गारंटी न होने के कारण कई फसलों को न्यूनतम समर्थन मूल्य से काफी कम कीमत पर बेच रहे हैं। किसानों की मजबूरी को न तो सरकार समझ रही है, न व्यापारी। सरकार की जिम्मेवारी थी कि घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य को लागू करवाती। लेकिन सरकार अपने इस दायित्व से पीछे हट चुकी है। तमाम मंडियों में किसान नेता सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं, पर अभी तक कोई परिणाम नहीं निकला है। किसानों को राहत सिर्फ कपास और सोयाबीन की फसलों पर मिली है, जिसका घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल रहा है।

किसानों के भले के लिए तमाम कदम उठाए जाने के दावे किए गए हैं। हाल ही में रबी की फसलों का न्यूतनम समर्थन मूल्य किया गया। लेकिन अब सवाल यही उठ रहा है कि न्यूतनम समर्थन मूल्य की घोषणा कर देने भर से क्या होगा, जब सरकार द्वारा तय मूल्य पर मंडियों में खरीद ही नहीं होगी। सरकार ने जुलाई में जब खरीफ की फसलों का न्यूतनम समर्थन मूल्य घोषित किया था तो किसानों को कुछ उम्मीद जगी थी। घाटे की खेती से परेशान किसानों को लगा था कि इस बार कुछ राहत मिलेगी। सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा तो कर देती है, लेकिन इस मूल्य पर खरीद की गारंटी नहीं देती। वैसे भी अभी तक पूरे देश में धान और गेहूं की फसल के अलावा किसी और फसल की खरीद की गारंटी नहीं है। धान और गेहूं खरीद की भी गारंटी सिर्फ कुछ राज्यों में है जिनमें पंजाब और हरियाणा शामिल हैं। बाकी फसलों की कीमत न्यूनतम समर्थन मूल्य तय होने के बाद भी बाजार ही तय करता है, जो न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम ही होती है। इस साल भी किसानों के साथ वही हुआ, जो पहले होता था। किसान मंडियों में अपनी खरीफ की फसल लेकर पहुंचे, लेकिन उन्हें ज्यादातर फसलों पर सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिला। कई फसलों की कीमत न्यूनतम समर्थन मूल्य से काफी कम थी। पंजाब और हरियाणा में अब धान मंडियों में आ रहा है। बासमती धान तो मंडियों में आ चुका है। दूसरी किस्में आने वाली हैं। लेकिन बाकी जो फसल मंडियों में आई हैं, उनकी कीमतों को देख किसानों के चेहरे का रंग उड़ गया है। बाजरे का न्यूतनम समर्थन मूल्य सरकार ने 1950 रुपए प्रति क्विंटल तय किया था, लेकिन इसका बाजार मूल्य 1350 रुपए प्रति क्विंटल रह गया। हरियाणा और राजस्थान की मंडियों में किसानों ने बाजरे की इस कीमत का जोरदार विरोध किया। पर उन्हें मजबूरी में 1350 से 1400 रुपए प्रति क्विंटल बाजरा बेचना ही पड़ा। ज्वार का न्यूनतम समर्थन मूल्य सरकार ने 2430 रुपए प्रति क्विंटल तय किया था, लेकिन महाराष्ट्र की मंडियों में इसका बाजार मूल्य 1300 रुपए प्रति क्विंटल ही रहा। यही हाल मक्का का था जिसका न्यूतनम समर्थन मूल्य 1700 था, लेकिन कर्नाटक की मंडियों में यह 1400 रुपए प्रति क्विंटल ही खरीदा गया। पंजाब जैसे राज्य में मक्का आठ सौ रुपए प्रति क्विंटल ही बिका।

अरहर की दाल का न्यूतनम समर्थन मूल्य 5675 रुपए प्रति क्विंटल तय किया गया, लेकिन किसानों को इसे 3400 रुपए प्रति क्विंटल बेचने को मजबूर होना पड़ा। मूंग का न्यूनतम समर्थन मूल्य 6975 प्रति क्विंटल तय किया गया, पर किसानों से मूंग को 5200 प्रति क्विंटल खरीदा गया। सबसे ज्यादा खराब हालात तो उड़द की रही, जो न्यूनतम समर्थन मूल्य से आधे कीमत पर ही निकालनी पड़ी। उड़द का न्यूतनम समर्थन मूल्य 5600 रुपए प्रति क्विंटल तय किया गया था। रागी उत्पादकों को भी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर झटका लगा है। इसका न्यूतनम समर्थन मूल्य 1900 रुपए प्रति क्ंिवंटल से बढ़ा कर 2897 रुपए किया गया था, लेकिन बाजार में यह 2100 रुपए प्रति क्विंटल पर ही जाकर रुक गई। किसानों को अभी तक सिर्फ सोयाबीन और कपास में ही राहत मिली है। ये दोनों फसलें न्यूनतम समर्थन मूल्य के आसपास बाजार में खरीदी गई हैं। सोयाबीन की कीमतों में हल्की गिरावट जरूर है। कपास तय न्यूनतम समर्थन मूल्य 5150 रुपए तय था। यह बाजार में 5200 रुपए क्विंटल तक बिका है। कपास की कीमत के लिए इस बार अंतराष्ट्रीय परिस्थितियां और कुछ हद तक सूखा जिम्मेवार है। गुजरात में इस बार सूखे के कारण कपास पैदावार पिछले साल के मुकाबले कम रहने की संभावना है। चीन और अमेरिका के बीच चल रहे व्यापार युद्ध का लाभ भी भारतीय कपास उत्पादकों को मिल सकता है, क्योंकि चीन भारत से कपास आयात की तैयारी कर रहा है। वहीं, सोयाबीन का निर्यात भी चीन में बढ़ सकता है, क्योंकि चीन का सोयाबीन आयात भी अमेरिका से ही ज्यादा है। अगर चीन और अमेरिका बीच व्यापार युद जारी रहा तो भारतीय सोयाबीन उत्पादकों के चेहरे पर खुशी बढ़ सकती है। हालांकि सोयाबीन के मुख्य उत्पादक राज्य मध्य प्रदेश में सोबायीन न्यूतनम समर्थन मूल्य से थोड़ा नीचे बिका है।

न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा मात्र से ही किसानों की हालत ठीक नहीं होगी। फसल बीमा योजना लागू करने के लिए सरकार को गंभीरता से प्रयास करने होंगे, क्योंकि किसानों पर प्राकृतिक मार पड़ रही है और बीमा होने के बावजूद किसानों को इसका लाभ नहीं मिल रहा है। जम्मू-कश्मीर में कश्मीर घाटी के अंदर अभी तक प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना लागू नहीं की गई है। कश्मीर घाटी के धान उत्पादकों को इस बार ओलावृष्टि से भारी नुकसान हुआ। घाटी में कई जिलों में धान की फसल खराब हो गई। लेकिन किसानों पर दोहरी मार यह थी कि फसलों का बीमा नहीं था। ओले और तूफान से कश्मीर में बागवानी को भी भारी नुकसान पहुंचा। कई इलाकों में सेब की फसल चौपट हो गई। हालांकि प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना जम्मू क्षेत्र में लागू है। जिन बीमा कंपनियों ने जम्मू क्षेत्र में फसल बीमा में अपनी दिलचस्पी दिखाई, उन्होंने कश्मीर घाटी में कोई रुचि नहीं ली। कुछ कंपनियों से जब सरकार ने बात की तो कंपनियों ने घाटी के लिए ज्यादा प्रीमियम की मांग की। पंजाब में भी भारी बारिश के कारण धान की फसल काफी खराब हो गई। हरियाणा में भी लगभग यही हाल रहा। पंजाब में बारिश के बाद नमी के कारण किसानों को बासमती 2300 रुपए प्रति क्विंटल तक बेचने को मजबूर होना पड़ा। हालांकि सरकार ने रबी का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय कर दिया है। गेहूं का न्यूतनम समर्थन मूल्य 1840 रुपए और चने का 4620 रुपए प्रति क्विंटल तय किया गया है। रबी में सबसे महत्त्वपूर्ण फसल गेहूं है, क्योंकि देश के अंदर रबी के फसल के कुल रकबे का पचास फीसद में गेहूं की खेती होती है। तीन राज्य पंजाब, हरियाणा और मध्य प्रदेश गेहूं के मुख्य उत्पादक राज्य हैं। पर रबी के न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ किसानों को कितना मिलेगा, यह समय बताएगा। अकेले डीजल की बढ़ती कीमत ने किसानों की कमर तोड़ दी है। डीजल महंगा होने के कारण ही किसानों को प्रति एकड़ 1400 रुपए अतिरिक्त खर्च करने पड़ रहे हैं। खाद और कीटनाशकों की कीमतों में भी भारी बढ़ोतरी हुई है। डीएपी की कीमत में प्रति टन तीस फीसद और अन्य खादों की कीमतों में भी बीस से पच्चीस फीसद की बढ़ोतरी इस साल है। सवाल है ऐसे में किसान के सामने पीड़ा झेलने के अलावा रास्ता क्या रह ही क्या जाता है।