उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में जानवरों को विधिक व्यक्ति का दर्जा देकर मनुष्य को उनका अभिभावक घोषित किया है। कुछ समय पहले इसी उच्च न्यायालय ने नदियों को बचाने के लिए उन्हें व्यक्ति का दर्जा दिया था। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि जीव-जंतुओं को बचाने की चिंता संगोष्ठियों के दायरे में ही सिमट कर रह जाती है। जबकि समृद्ध जैव-विविधता हमारे पर्यावरण की अनेक तौर-तरीकों से रक्षा करती है। इस दौर में जैव-विविधता घटने के कारण पर्यावरण पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। प्रकृति और वन्यजीवों के काम करने वाली संस्था डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2020 तक वन्य जीवों का दो तिहाई से भी ज्यादा हिस्सा विलुप्त हो जाएगा। यह रिपोर्ट बताती है कि भारत में 41 फीसद स्तनधारियों, 46 फीसद सरीसृपों, 57 फीसद उभयचरों और नदी-तालाबों की 70 फीसद मछलियों पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत सहित संपूर्ण विश्व में वन्यजीवों की संख्या तेजी के साथ घट रही है। वन्य जीवन पर मंडराता यह खतरा हमारे पर्यावरण के लिए नित नई समस्याएं पैदा कर रहा है।
मनुष्य द्वारा किए गए अंधाधुंध प्राकृतिक दोहन का नतीजा यह हुआ कि बीते चालीस सालों में पशु-पक्षियों की संख्या घट कर एक तिहाई रह गई। इस दौरान पेड़-पौधों की विभिन्न प्रजातियां भी आश्चर्यजनक रूप से कम हुर्इं। पेड़-पौधों की अनेक प्रजातियां तो विलुप्त होने के कगार पर हैं। जबकि समृद्ध वन्य जीवन हमारे पर्यावरण को पोषकता तो प्रदान करता ही है, हमारे जीवन पर भी सकारात्मक प्रभाव डालता है। विडंबना यह है कि वन्यजीवों पर मंडराते संकट को देखते हुए भी हम अपनी जीवन शैली बदलने को तैयार नहीं हैं। कुछ समय पूर्व वन्य जीवन पर एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी। इसमें बताया गया था कि पिछले चार दशकों में जंगली जानवरों की संख्या तीस फीसद घट गई। कुछ जगहों पर तो यह संख्या साठ फीसद घटी। इस अवधि के दौरान मीठे पानी में रहने वाले पक्षियों, जानवरों और मछलियों की संख्या में सत्तर फीसद गिरावट दर्ज की गई। विभिन्न कारणों से डाल्फिन, बाघ और दरियाई घोड़ों की संख्या भी आश्यर्चजनक रूप से घटी है। वर्ष 1980 से अब तक एशिया में बाघों की संख्या सत्तर फीसद कम हो चुकी है। इस दौर में विभिन्न पक्षियों के अस्तित्व पर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं। पक्षी हमारे देश की समृद्ध जैव विविधता की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी हैं। दुनिया में पक्षियों की लगभग करीब दस हजार प्रजातियां ज्ञात हैं। एक अनुमान के अनुसार, अगले सौ सालों में पक्षियों की लगभग एक हजार से ज्यादा प्रजातियां विलुप्त हो सकती हैं। भारत में पक्षियों की लगभग बारह सौ से ज्यादा प्रजातियां पाई जाती हैं। इनमें से लगभग पचासी प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर हैं। दरअसल, पशु-पक्षी अपने प्राकृतिक पर्यावास में ही अपने आपको सुरक्षित महसूस करते हैं, वहीं इनकी जैविक क्रियाओं के बीच एक संतुलन बना रहता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस दौर में विभिन्न कारणों से पक्षियों का प्राकृतिक पर्यावास उजड़ता जा रहा है। बढ़ते शहरीकरण और औद्योगीकरण के कारण वृक्ष लगातार कम होते जा रहे हैं। बाग-बगीचे उजाड़ कर इन जगहों पर खेती-बाड़ी की जा रही है। जलीय पक्षियों का प्राकृतिक आवास भी सुरक्षित नहीं बचा है। एक ओर पक्षी मानवीय लोभ की भेंट चढ़ रहे हैं, तो दूसरी ओर जलवायु परिवर्तन के कारण इनकी संख्या लगातार घटती जा रही है। इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है कि तमाम नियम-कानूनों के बावजूद पक्षियों का शिकार और अवैध व्यापार किया जा रहा है। लोग सजावट, मनोरंजन और घर की शान बढ़ाने के लिए तोते और रंग-बिरंगी गौरैया जैसे पक्षियों को पिंजरों में कैद रखते हैं। इसके साथ ही, तीतर जैसे पक्षियों का शिकार भी किया जाता है।
पक्षी विभिन्न रसायनों और जहरीले पदार्थों के प्रति अतिसंवेदनशील होते हैं। ऐसे पदार्थ भोजन या फिर पक्षियों की त्वचा के माध्यम से पक्षियों के अंदर पहुंच कर उनकी मौत का कारण बनते हैं। डीडीटी, विभिन्न कीटनाशक और खरपतवार खत्म करने वाले रसायन पक्षियों के लिए बहुत खतरनाक सिद्ध हो रहे हैं। मोर जैसे पक्षी कीटनाशकों की वजह से काल के गाल में समा रहे हैं। पर्यावरण को स्वच्छ रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला गिद्ध पशुओं को दी जाने वाली दर्द निवारक दवा की वजह से मौत का शिकार हो रहा है। गिद्ध मरे हुए पशुओं का मांस खाकर पर्यावरण साफ रखने में मदद करता है। पशुओं को दी जाने वाली दर्द निवारक दवा के अंश मरने के बाद भी शरीर में रह जाते हैं। जब इन मरे हुए पशुओं को गिद्ध खाते हैं तो यह दवा गिद्धों के शरीर में पहुंच कर उनकी मौत का कारण बनती है। इस दौर में हमारे घर-आंगन में गौरैया कहीं दिखाई नहीं देती। वैज्ञानिकों का मानना है कि भोजन में कमी, घोेंसलों के निर्माण के लिए उचित जगह न मिलना और माइक्रोवेव प्रदूषण जैसे कारक गौरैया की घटती संख्या के लिए जिम्मेवार हैं। शुरुआती पंद्रह दिनों में गौरैया के बच्चों का भोजन मुख्य रूप से कीट-पतंगें ही होते हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि गौरैया के बच्चों के आसपास भोजन के रूप में कीट-पतंगों की संख्या कम होने के कारण उनकी मृत्यु दर बढ़ रही है।
दरअसल, इस दौर में हम अपने बगीचों में सुंदरता बढ़ाने के लिए विदेशी या फिर ऐसे पौधों को ज्यादा उगाते हैं जो प्राकृतिक रूप से उस जगह पर नहीं उगते हैं। ऐसे पौधे स्थानीय पौधों की तुलना में उस जगह पर रहने वाले कीट-पतंगों को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाते हैं। साथ ही इन पौधों को ज्यादा रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक रसायनों की आवश्यकता होती है। ये रसायन वातावरण को प्रदूषित कर लाभकारी सूक्ष्मजीवों और कीट-पतंगों को भी खत्म कर देते हैं। ऐसी स्थिति में गौरैया जैसे पक्षियों के लिए भोजन की कमी हो जाती है। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने आसपास स्थानीय पौधों को ज्यादा उगाएं। ऐसे पौधों को रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक रसायनों की ज्यादा जरूरत नहीं पड़ती है और वे स्थानीय कीट-पतंगों को अपनी ओर आकर्षित करने में भी सफल रहते हैं। इस दौर में गौरैया जैसे पक्षियों के साथ-साथ तोते पर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं। गौरतलब है कि विश्व में तोते की लगभग तीन सौ तीस प्रजातियां ज्ञात हैं। अगले सौ सालों में इनमें से एक तिहाई प्रजातियों के विलुप्त होने का अनुमान है। भारत में जिन पक्षियों के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है, उनमें उपरोक्त पक्षियों के अतिरिक्त ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, गुलाबी सिर वाली बत्तख, हिमालयन बटेर, साइबेरियाई सारस, बंगाल फ्लेरिकन और उल्लू आदि प्रमुख हैं।
दरअसल, जब भी जीवों के संरक्षण की योजनाएं बनती हैं तो बाघ, शेर तथा हाथी जैसे बड़े जीवों के संरक्षण पर तो ध्यान दिया जाता है, लेकिन पक्षियों के संरक्षण को अपेक्षित महत्त्व नहीं दिया जाता। पक्षियों के संरक्षण के लिए भी सरकार को ठोस योजनाएं बनानी होंगी। अब समय आ गया है कि सरकार और हम सब मिल कर जैव विविधता को बचाने का सामूहिक प्रयास करें। हमें यह समझना होगा कि जैव विविधता पर मंडराता यह खतरा भविष्य में हमारे अस्तित्व पर भी प्रश्नचिह्न लगा सकता है।