डोकलाम से लेकर बाड़ाहोती और लद््दाख तक सीमा पर चीन की हेकड़ी की वजह उसकी विस्तारवादी नीयत व ताकत का दंभ तो रही ही है, इससे बड़ी वजह उसका मैकमोहन लाइन को नकारना है। सन 1914 में भारत और तिब्बत की सीमा तय करने के लिए तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत और तिब्बत के बीच सीमा को लेकर समझौता हुआ था, उसमें मैकमोहन लाइन तय हुई थी।

सिक्किम सेक्टर के डोकलाम क्षेत्र में भारत और चीन के बीच सीमा विवाद को लेकर चल रही तनातनी की आंच उत्तराखंड से लगी भारत-तिब्बत सीमा तक महसूस की जाने लगी है। सीमांत जिले चमोली के बाड़ाहोती क्षेत्र में चीनी सैनिकों के आए दिन भारतीय क्षेत्र में घुसने की घटनाओं ने इस क्षेत्र को और भी अधिक संवेदनशील बना दिया है। तिब्बत कब्जे के बाद चीन मैकमोहन लाइन को नामंजूर करने के साथ ही तवांग मठ और बदरीनाथ को एक बौद्ध मठ मान कर इस संपूर्ण क्षेत्र के भी अपना भूभाग होने का दावा करता है।
मई के दूसरे पखवाड़े में गंगटोक में केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने सीमा से सटे राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ सुरक्षा व्यवस्था पर बैठक की थी। इसके कुछ ही दिन बाद चीनी सेना के दो हेलिकॉप्टर बाड़ाहोती क्षेत्र में वायुसीमा का उल्लंघन कर घुस आए। इस बैठक में मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने चीनी सेना द्वारा बार-बार सीमा का उल्लंघन किए जाने का मुद््दा उठाया था। चीन द्वारा सीमा का उल्लंघन किए जाने की यह पहली घटना नहीं है। सन 1956 में भारत और चीन की सेनाएं डोकलाम की तरह बाड़ाहोती में भी आमने-सामने डट गई थीं। तिब्बत की ओर से भौगोलिक कारणों से और बिल्कुल सीमा तक सड़कों का जाल बिछ जाने तथा निकट ही ल्हासा तक रेल के पहुंचने के कारण इस क्षेत्र में चीन सामरिक दृष्टि से स्वयं को ज्यादा सुविधाजनक स्थिति में पाता है।

कभी भारत-तिब्बत का व्यापार-केंद्र रहा बाड़ाहोती भी एक पठारी क्षेत्र है जो कि 1962 के बाद से निर्जन ही है। नारायण दत्त तिवारी से लेकर अब तक के उत्तराखंड के सभी मुख्यमंत्री आंतरिक सुरक्षा पर केंद्र के साथ होने वाली बैठकों में चीनी सेना द्वारा उत्तराखंड से लगी सीमा का उल्लंघन करने का मसला उठाते रहे हैं। 2013 की बैठक में विजय बहुगुणा ने घुसपैठ की दर्जनों घटनाओं का ब्योरा रखा था। उसी साल बाड़ाहोती क्षेत्र में चीनी सेना ने तीन बार सीमा का उल्लंघन किया था। उससे अगले साल चीनी हेलिकॉप्टर इसी क्षेत्र में काफी देर तक मंडराता रहा। जुलाई 2015 में चीनी सैनिकों ने बाड़ाहोती क्षेत्र के बुग्याल में भारतीय चरवाहों के टेंट उखाड़ कर उनका राशन नष्ट कर उन्हें भगा दिया था। भारत सरकार की ओर से चमोली के जिला प्रशासन के अधिकारियों के दल द्वारा लगभग हर साल चार बार (जून से अक्टूबर माह) बाड़ाहोती में भ्रमण कर उपस्थिति दर्ज कराई जाती है। लेकिन 2016 में हर साल की तरह अपने भूभाग का सत्यापन करने गई चमोली प्रशासन की टीम को चीनी सैनिकों ने भगा दिया था।

पिथौरागढ़, चमोली और उत्तरकाशी की भारत और तिब्बत के बीच लगभग 365 किलोमीटर लंबी सीमा सुरक्षा की दृष्टि से बहुत ही संवेदनशील हो गई है। इस सीमा पर हिमालय में लगभग बारह दर्रे सार्वजनिक हैं। इनमें उत्तरकाशी का एक दर्रा, चमोली की नीती और माणा घाटियों के पांच दर्रे और पिथौरागढ़ के छह दर्रे शामिल हैं। चीन की फितरत के मद््देनजर ही भारत सरकार ने 1960 में अल्मोड़ा से पिथौरागढ़, गढ़वाल से चमोली और टिहरी से उत्तरकाशी अलग कर, तीन नए जिलों का सृजन कर एक नया मंडल गठित कर दिया था। उस मंडल का नाम पहली बार उत्तराखंड दिया गया जो कि 1965 तक चला; उसके बाद विघटित कर गढ़वाल और कुमाऊं दो मंडलों को बरकरार रखा गया।
डोकलाम से लेकर बाड़ाहोती और लद््दाख तक सीमा पर चीन की हेकड़ी की वजह उसकी विस्तारवादी नीयत व ताकत का दंभ तो रहा ही है, इससे बड़ी वजह उसका मैकमोहन लाइन को नकारना है। सन 1914 में भारत और तिब्बत की सीमा तय करने के लिए तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत और तिब्बत के बीच सीमा को लेकर समझौता हुआ था, उसमें मैकमोहन लाइन तय हुई थी। इस समझौते और नक्शे पर ब्रिटिश विदेश सचिव हेनरी मैकमोहन और तिब्बत सरकार के प्रतिनिधि लोंचेन सात्रा ने हस्ताक्षर किए थे। लेकिन चीन ने तत्काल इसे अस्वीकार कर दिया था। चूंकि हेनरी मैकमोहन के नेतृत्व में शिमला में सर्वेक्षकों और नक्शानवीसों की मदद से यह परिकल्पितसीमारेखा नक्शे पर तय की गई थी, इसलिए इसे मैकमोहन लाइन का नाम दिया गया, जिसे शुरू में भारत सरकार ने ही मानने से इनकार कर दिया था। सन 1935 में ब्रिटिश सिविल सेवा के अधिकारी ओलफ कैरोइ द्वारा सरकार को आश्वस्त किए जाने के बाद ही यह काल्पनिक रेखा सर्वे आॅफ इंडिया द्वारा भारत के नक्शे में दिखाई जाने लगी।

मैकमोहन लाइन पश्चिम में भूटान से लेकर करीब 890 किलोमीटर के क्षेत्र को रेखांकित करते हुए नक्शे पर खींची गई। पूर्व में इसने ब्रह्मपुत्र नदी तक के करीब 260 किलोमीटर के क्षेत्र को सीमाओं में बांटा। जब यह समझौता हुआ उस समय तिब्बत स्वतंत्र देश तो था मगर वह चीन से उसी तरह संरक्षण प्राप्त था, जिस तरह भूटान को भारत का संरक्षण प्राप्त है। इसलिए चीन की दृष्टि में तिब्बत को इस तरह का समझौता करने का अधिकार ही नहीं था। चीन अपने आधिकारिक मानचित्रों में मैकमोहन रेखा के दक्षिण में पैंसठ हजार वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र को तिब्बती स्वायत्त क्षेत्र का हिस्सा दर्शाता है। इस क्षेत्र को चीन दक्षिणी तिब्बत बताता है। 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय चीनी फौजों ने कुछ समय के लिए इस क्षेत्र पर अधिकार भी जमा लिया था, लेकिन बाद में चीनी सेना वापस हट गई थी। लेकिन 1993 व 1996 के समझौतों के तहत दोनों देशों ने वास्तविक नियंत्रण रेखा का सम्मान करने पर सहमति जताई थी, जिसका सम्मान चीन की सेना नहीं कर रही है।

चीनी दखल से पहले तिब्बत एक स्वतंत्र देश था तो गढ़वाल और कुमाऊं भी कभी स्वतंत्र राज्य थे। अतीत में गढ़वाल राज्य और तिब्बत के बीच दोस्ती और दुश्मनी दोनों ही रहीं। दुश्मनी के दौर में कभी गढ़वाल राज्य तिब्बत पर हमला करता था तो कभी तिब्बती इस क्षेत्र में घुस आते थे। गढ़वाल के महानायक लोदी रिखोला से लेकर माधोसिंह भंडारी और भीमसिंह तक गढ़ सेनापतियों के तिब्बत-विजय के प्रसंग इतिहास में मौजूद हैं। गढ़वाल में तिब्बत को हूणदेश और तिब्बतियों को हुणिया या हूण कहते थे। तिब्बती शासक गढ़वाल राज्य पर हमला कर लूटपाट के लिए अंदर तक चले आते थे और फिर गढ़नरेशों की सेनाएं हूणों को दापा तक खदेड़ देती थीं। एक बार गढ़नरेश महिपति शाह ने दापागढ़ के बौद्ध विहार पर कब्जा कर अपने सेनापति भीमसिंह के भाई को वहां का प्रशासक नियुक्त कर दिया था। लेकिन उस समय गढ़वाल के आयुधजीवी क्षत्रिय एक दूसरे का पकाया हुआ खाना नहीं खाते थे और स्वयं खाना पकाते समय केवल लंगोट धारण करते थे। इस कमजोरी का लाभ उठा कर तिब्बती सैनिकों ने गढ़वाली शिविर पर छापा मार कर खाना पका रहे नंगधड़ंग गढ़वाली सैनिकों को मार डाला था। बाद में सहअस्तित्व की भावना से दोनों राज्यों में व्यापारिक संबंध भी प्रगाढ़ होते गए। भारत के व्यापारी नेलंग-जादुंग, नीती-माणा और मिलम क्षेत्र से तिब्बत की मंडियों में अनाज और कपड़ा आदि सामान पहुंचाते थे और बदले में वहां से ऊन, हींग और चट्टानी नमक जैसी सामग्री गढ़वाल और कुमाऊं में लाते थे। हालांकि चीनी दखल के कारण 1956 के बाद यह व्यापार घटता चला गया और 1962 में चीनी आक्रमण के बाद तो पूरी तरह बंद हो गया। वर्ष 1991 में चीनी प्रधानमंत्री के भारत आगमन पर एक समझौते के तहत 1992 से केवल कुमाऊं क्षेत्र से व्यापार शुरू किया गया। वर्तमान में उक्त व्यापार की व्यवस्था भारत सरकार के वाणिज्य मंत्रालय के निर्देशानुसार जिला प्रशासन पिथौरागढ़ द्वारा की जाती है।