‘रे मानव कैसी विरक्ति यह जीवन के प्रति, …छाया से रति!’ कविवर सुमित्रानंदन पंत की ये पंक्तियां तब बहुत याद आर्इं, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने महाराष्ट्र दौरे के क्रम में होवरक्राफ्ट के जरिये अरब सागर में उतर कर करीब बत्तीस एकड़ की चट्टान पर शिवाजी के प्रस्तावित मेमोरियल का जल-पूजन की मार्फत शिलान्यास किया। इस मेमोरियल की परियोजना छब्बीस सौ करोड़ रुपयों की है और उसमें शिवाजी की 192 मीटर की जो विशालकाय मूर्ति लगाई जानी है, वह दुनिया में सबसे ऊंची होगी- गुजरात में नरेंद्र मोदी की ही पहल पर लग रही सरदार वल्लभ भाई पटेल की प्रतिमा ‘स्टैच्यू आॅफ यूनिटी’ से भी दस मीटर ज्यादा बड़ी। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस, राज्यपाल सी विद्यासागर और शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे की उपस्थिति में जल-पूजन से पहले मोदी ने ट्वीट किया, ‘छत्रपति शिवाजी साहस, वीरता और सुशासन के प्रतीक थे और यह स्मारक उनकी महानता को समर्पित होगा’, तो उनके इस आप्तवाक्य का भाष्य फडणवीस के इन शब्दों में सामने आया, ‘वीर मराठा छत्रपति शिवाजी को भी रोकने की कोशिश की गई थी, लेकिन उन्हें कोई नहीं रोक पाया। हम भी किसी विरोध को इस प्रोजेक्ट के आड़े नहीं आने देंगे।’
इस भाष्य में उन्होंने अनचाहे ही जता दिया कि मेमोरियल को लेकर, और तो और, उसके आसपास भी सर्वसम्मति नहीं है। मछुआरों का कहना है कि मेमोरियल के निर्माण से उसके आसपास के समुद्र की मछलियां खत्म हो जाएंगी और उनकी जीविका पर असर पड़ेगा। इस कारण मेमोरियल के विरोध में एक आॅनलाइन अभियान भी चलाया गया था, जिसे इक्कीस हजार से ज्यादा लोगों का समर्थन मिला। इस विरोध में कांगे्रस पार्टी भी साझीदार हुई मगर जरा दूसरी तरह से, यह कहती हुई कि प्रोजेक्ट पर पहला हक उसका था! तब कुशलतापूर्वक जल-पूजन संपन्न होने से गदगद फडणवीस ने कहा कि वे किसी भी विरोध को मेमोरियल के आड़े नहीं आने देंगे, तो विरोध से जुड़ी असहमतियों को कुचल देने के उनके दर्प को सहज ही महसूस किया जा सकता है।
महापुरुषों का कद उनके स्मारकों या मूर्तियों के आकार-प्रकार से तय नहीं होता और शिवाजी इस मेमोरियल के निर्माण के बाद भी उतने ही महान रहने वाले हैं, जितने वे अभी हैं। इतिहास को उनके साथ जो भी न्याय या अन्याय करना था, कर चुका है और अब भाजपा व उसकी सरकारों के प्रयासों से उसमें कोई रद््दोबदल संभव नहीं है। लेकिन लोकतंत्र के तकाजे से उनसे यह सवाल तो पूछा ही जाना चाहिए कि वे शिवाजी की मूर्ति की राजनीति की आड़ में जनभावनाओं का खेल करती हुई उन आम लोगों के जीवन व जीविका से खिलवाड़ क्यों कर रही हंै, (उनके अनुसार) शिवाजी जिनके नायक थे और जिनके लिए उन्होंने संघर्ष किया था।हम जानते हैं कि भारतीय जनता पार्टी व उसकी सरकारें गुजरात में सरदार वल्लभ भाई पटेल की मूर्ति के निर्माण में भी इसी तर्ज पर जनभावनाओं को खूब भुना चुकी हैं। लोहे के दान जैसे उनके बहुप्रचारित छद्मों के बीच इस मूर्ति की परियोजना में कितना धन लग गया, कितना लगना है और उससे किसका और कितना वास्तविक लाभ होगा, इस बारे में अभी तक कुछ ठीक-ठीक नहीं पता। अब उन्होंने महाराष्ट्र में समुद्र तट से डेढ़ किलोमीटर अंदर शिवाजी की मूर्ति और स्मारक का जो दांव चला है और जिसके बारे में कहा जा रहा है कि वहां दस हजार लोग एक साथ आ सकेंगे और मंदिर, पुस्तकालय व फूड कोर्ट जैसी सुविधाएं भी होंगी, उससे होगा कुल मिलाकर यही कि मुंबई के आसपास के पर्यटन स्थलों में एक और नाम जुड़ जाएगा। दुख की बात है कि इतने भर के लिए किसी को भी, यहां तक कि खुद को भाजपा-विरोधी बताने वाली पार्टियों को भी, यह अनुमान लगाने या अध्ययन करने में दिलचस्पी नहीं है कि इससे कितने लोगों पर क्या बीतने वाली है।
शिवाजी पर अपना पहला हक जताने वाली शिवसेना को चिंता है तो बस इतनी कि भाजपा उसका ‘अधिकार’ छीन रही है और बीएमसी (बृहन मुंबई महानगरपालिका) पर भी कब्जा जमाने के फेर में है। लेकिन दूसरी तरफ, वह इस बात को लेकर खुश है कि भारतीय जनता पार्टी ने उसकी मांग पर उसके नेता उद्धव ठाकरे को प्रधानमंत्री की सभा में उनके बगल वाली कुर्सी उपलब्ध करा दी। कांग्रेस इस बात को लेकर परेशान है कि भाजपा ने उसकी योजना हथिया ली है, जबकि बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती की चिंता थोड़ी अलग है, यह कि महापुरुषों की आत्मा के अपमान और छाया से रति के इस काम में भारतीय जनता पार्टी व मोदी सरकार दोहरे मापदंड अपना रही हैं। वे खुद तो जिस महापुरुष की चाहती हैं बड़ी से बड़ी मूर्ति लगा रही हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश में दलितों के महापुरुषों के पार्कों व मूर्तियों के निर्माण में बसपा व उसकी सरकार द्वारा किए गए ऐसे ही काम पर एतराज जताती रही हैं। यानी बसपा को मूर्ति पर होने वाले नाहक खर्च और जीविका पर पड़ने वाले असर से नहीं, बस दोहरे मापदंड से दिक्कत है।
साफ है कि सारी पार्टियां एक तरह के प्रतीकवाद को और मजबूत करने में लगी हैं। यह कवायद उनका एक ‘शार्टकट’ तरीका है ताकि वे बिना किसी आदर्श और मूल्य पर चले, अपने को महापुरुषों की अनुयायी दिखा सकें। किसी भी पार्टी को मेमोरियल के विरोधियों के इस सवाल से सरोकार नहीं है कि उस पर जितनी लागत आ रही है, उतने में कितने स्कूल, कॉलेज, अस्पताल बनवाए जा सकते थे? समुद्र के भीतर चट्टान पर मेमोरियल बनाने को लेकर पर्यावरणविदों द्वारा जताई जा रही चिंताओं की भी अनदेखी की जा रही है। यह तब है जब मुंबई के मछुआरे, खासकर कोली समुदाय के लोग, लंबे समय से इस परियोजना का विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि इससे उनकी रोजी-रोटी छिन जाएगी। विगत मई में मछुआरों ने परियोजना के विरोध में अरब सागर में ‘नाव रैली’ भी की थी। उनके आंदोलन की अगुआई पारंपरिक मछिमार सेवा समिति और मछिमार सर्वोदय सोसाइटी कर रही हैं।
फिलहाल, नक्कारखाने में तूती की आवाज के बीच मेमोरियल से सीधे प्रभावित हजारों मछुआरे फडणवीस सरकार के इस आश्वासन के ही भरोसे हैं कि उन्हें मेमोरियल तक जाने के लिए फेरी सेवा के अधिकार में प्राथमिकता दी जाएगी ताकि उनकी आय में होने वाले नुकसान की भरपाई हो सके। राज्य के लोक निर्माण मंत्री चंद्रकांत पाटील ने वादा किया है कि मछुआरों व उनके परिजनों को कुछ नौकरियों में और स्मारक तक फेरी सेवा के अधिकार में तवज्जो दी जाएगी। लेकिन इस मामले में भी पेच है। कई लोग पूछ रहे हैं कि राजनीतिक लाभ के लिए शुरू की गई किसी परियोजना से आम जनता का नुकसान हो और सरकार उनकी भरपाई कर अपने लोक कल्याणकारी होने का दिखावा करे, तो इससे ज्यादा दुखद क्या होगा? महाराष्ट्र सरकार को बताना चाहिए कि क्या शिवाजी का मेमोरियल कोई आकस्मिक विपदा है, जिसके लिए वह प्रभावितों को मुआवजा देगी? अंत में एक और सवाल बहुत मौजूं है। शिवाजी या सरदार पटेल का कद मूर्तियों से आंकना और उन्हें मूर्तियों में सीमित करना उनका सम्मान है, या उनके नाम पर एक सियासी खेल? उनकी मूर्तियां देख और बोल सकतीं तो क्या वे अपनी ऊंचाई में मगन होकर चुपचाप आम लोगों को त्रस्त होता देखती रहतीं?
