हमारे देश में उपभोक्ता खुद इतने जागरूक नहीं हैं कि वे खाने-पीने के सामानों से लेकर सौंदर्य प्रसाधन बनाने वाली कंपनियों को नियमों पर चलने के लिए बाध्य कर सकें। अक्सर इसकी जिम्मेदारी कुछ एनजीओ या अन्य निजी-सरकारी संगठन उठाते हैं। इधर ऐसी ही एक पहलकदमी भारत के औषधि महानियंत्रक (डीजीसीआई) और राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) ने की है। इन संगठनों ने सौंदर्य प्रसाधन बनाने वाली नामी कंपनियों के उत्पादों में हर्बल सामग्रियों, जैसे कि जौ, अंजीर और अखरोट के नाम पर प्लास्टिक के सूक्ष्म कण (माइक्रोबीड्स) की मिलावट का मुद््दा उठाया है, जो न सिर्फ इंसानी सेहत के लिए, बल्कि पर्यावरण के लिए भी नुकसानदेह है। इनका इस्तेमाल टूथपेस्ट, फेसवॉश, स्क्रब, बॉडीवॉश और हैंडवॉश आदि में धड़ल्ले से किया जा रहा है। सुंदरता बढ़ाने वाले ऐसे उत्पादों का हमारे चेहरे और शरीर पर जो कुछ असर पड़ना है, वह तो लोग आगे चलकर महसूस करेंगे, फिलहाल एनजीटी ने यह मुद््दा उठाया है कि प्लास्टिक के ये सूक्ष्म कण हाथ-मुंह धोने के बाद नाली के रास्ते जलस्रोतों में मिल रहे हैं और इस तरह पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहे हैं।
जिन चीजों के बल पर लोग, खासतौर से महिलाएं सुंदरता हासिल करना का सपना पाले हुए हैं, उनमें से बहुतेरे उत्पाद कैंसर तक फैला सकते हैं। यह मामला गंभीर इसलिए भी हो गया है क्योंकि त्वचा की देखभाल और रंगत सुधारने से लेकर बालों आदि की देखभाल के ज्यादा ऊंचे दावे अब सौंदर्य प्रसाधन कंपनियां करने लगी हैं। स्पष्ट है कि वे ऐसा उनमें डाले जाने वाले तत्त्वों और रसायनों के आधार पर कर रही हैं, लेकिन ये रसायन क्या हैं, उनकी मात्रा कितनी है, और कहीं वे इंसान और पर्यावरण के लिए खतरनाक तो नहीं है- इस बारे में आमतौर पर कहीं से कोई निर्देश नहीं मिल रहा है। सुंदरता की देखभाल के लिए प्रयुक्त होने वाले उत्पादों में मौजूद घातक रसायन इंसानों के शरीर में पहुंच रहे हैं, यह बात कई अध्ययनों से साबित हुई है। जैसे लंदन स्थित ब्रूनेल विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों द्वारा अट्ठाईस देशों में संचालित किए गए एक अध्ययन के नतीजे कुछ ही अरसा पहले सामने आए हैं। इस अध्ययन में आम जीवन में प्रयोग किए जाने वाले पच्चीस रसायनों को शामिल किया गया। पाया गया कि इनमें से पचास रसायन ऐसे हैं जो अकेले तो ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचाते, लेकिन दूसरे रसायनों के साथ मिलाए जाने पर क्रियाएं करके वे कैंसरकारक रसायनों में बदल जाते हैं। वर्तमान में जिस तरह से विभिन्न सौंदर्य प्रसाधन कंपनियां अपने उत्पादों में पहले के मुकाबले ज्यादा असर होने के दावे कर रही हैं, उससे प्रतीत होता है कि उन्होंने रसायनों की मात्रा बढ़ाई होगी या विभिन्न रसायनों के ऐसे मिश्रण तैयार किए होंगे, जो तुरंत परिणाम तो देते हैं पर उनसे स्वास्थ्य संबंधी अत्यधिक खतरे हो सकते हैं।
पर समस्या यह है कि सुंदर दिखने की चाह लोगों को बिना जांचे-परखे ऊंचे दावों वाले लोशन, फेसवॉश, क्रीम, शैंपू की तरफ खींचे ले जा रही है जो आखिर में उनमें कैंसर जैसे गंभीर मर्ज पैदा कर देते हैं। आज के कामकाजी माहौल में स्वस्थ-सुंदर दिखने की अनिवार्यता जैसे पहलुओं ने महिलाओं के साथ-साथ पुरुषों को भी अपनी सुंदरता कायम रखने के लिए सतत काम करने को प्रेरित किया है। गांव-कस्बों की महिलाएं भी इसमें पीछे नहीं है। वहां भी टीवी के प्रभाव व शहरी महिलाओं की देखादेखी ब्यूटी पार्लर जाने का चलन जोर पकड़ रहा है।वर्ष 2014 में दिल्ली स्थित पर्यावरणवादी संस्था ‘सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवार्नमेंट’ (सीएसई) ने एक स्वतंत्र व देशव्यापी जांच में यह दावा किया था कि देश में जिन सौंदर्य प्रसाधनों का बढ़-चढ़ कर इस्तेमाल किया जा रहा है उनमें तरह-तरह के जहरीले तत्त्वों की जरूरत से ज्यादा मात्रा है। ऐसे प्रसाधन महिलाओं में त्वचा कैंसर, पेट की रसौली जैसे गंभीर रोग पैदा कर रहे हैं। ड्रग्स एंड कॉस्मैटिक एक्ट के मुताबिक यदि सौंदर्य प्रसाधन में निर्धारित मात्रा से ज्यादा रसायन पाए जाते हैं, तो इसे कानून का उल्लंघन माना जाएगा और दोषी व्यक्ति, संस्था अथवा कंपनी को सजा और जुर्माना भुगतना पड़ेगा। लेकिन इन कानूनों की प्राय: अनदेखी ही होती है।
कानून होने के बाद भी सौंदर्य प्रसाधनों में बड़ी मात्रा में खतरनाक तत्त्वों का मिलना साबित करता है कि न तो उनकी नियमित जांच हो रही है और न उनकी बिक्री रोकी जा रही है। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि एक तरफ देश में ऐसे कानूनों के सुनिश्चित पालन की व्यवस्था नहीं है, तो दूसरी तरफ उपभोक्ता संगठन अभी इस बारे में इतने जागरूक और सुदृढ़ नहीं हैं कि वे कंपनियों और सरकार को नियमों के पालन के लिए बाध्य कर सकें। खुद उपभोक्ता भी इस बारे में प्राय: कोई पहल नहीं करते, भले ही उन्हें इस कारण कितने ही घातक नतीजे क्यों न झेलने पड़ रहे हों। सवाल है कि इतने अधिक खतरों के बावजूद भारत ही नहीं, विकसित देशों में भी ऐसे विषाक्त सौंदर्य प्रसाधनों की बिक्री रोक पाना आसान क्यों नहीं हो पा रहा है? इसका एक जवाब ब्रेस्ट कैंसर फंड की स्वास्थ्य विज्ञानी, सलाहकार नैंसी इवांस ने अपने एक अनुभव में लिखा है। उनका कहना था कि इसकी वजह मिलीभगत होती है। उनके अनुसार, सौंदर्य प्रसाधनों के सुरक्षात्मक स्तर की जांच करने वाली अमेरिकी संस्था फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) ने अपने सात दशकों के इतिहास में सौंदर्य प्रसाधन बनाने वाली सिर्फ नौ ऐसी कंपनियों पर रोक लगाई, जो मानव जीवन से खिलवाड़ कर रही थीं। इससे प्रतीत होता है कि निगरानी करने वाली संस्थाओं की मिलीभगत से भी सौंदर्य प्रसाधनों में जहरीले तत्त्वों का घालमेल चलता रहा है, जिससे कैंसर के मामले दुनिया भर में बढ़ रहे हैं।
ध्यान देने की एक और बात यह है कि हमारे देश में आयातितसौंदर्य प्रसाधनों को लेकर काफी ज्यादा मोह है। यहां विदेशी ब्रांडों की ऐसी मांग है कि उन पर आंख मूंद कर भरोसा किया जाता है। यहां तो अभी किसी सरकारी संस्था ने यह पता लगाने की शायद कोई कोशिश भी नहीं की है कि भारतीय महिलाओं में कैंसर के जो मामले बढ़ रहे हैं, कहीं उनके पीछे सौंदर्य प्रसाधनों की भी तो कोई भूमिका नहीं है। यही नहीं, भारत में तो स्थापित ब्रांडों की नकल भी धड़ल्ले से की और बेची जाती रही है। ऐसे में, किसी नामी ब्रांड की नकल के रूप में बिक रहे उत्पाद में कितने अधिक खतरनाक तत्त्व मौजूद हो सकते हैं, इसका अंदाजा उपयोगकर्ता को शायद ही हो पाए। लोग इस बात की तो शिकायत करते हैं कि उन्हें नामालूम कारणों से बड़ी-बड़ी बीमारियां हो जाती हैं, जबकि वे तो अच्छे से अच्छा खाते हैं, मगर वे यह जांच करने की जहमत शायद ही उठाते हैं कि जो शैंपू, क्रीम, पाउडर, डियोडरेंट आदि इस्तेमाल कर रहे हैं, कहीं वे नकली तो नहीं? या फिर कहीं उनमें सेहत को नुकसान पहुंचाने वाले जहरीले रसायन तो नहीं? शहरों में किसी हद तक इससे संबंधित जागरूकता दिखाई पड़ सकती है, पर गांव-कस्बों की महिलाओं में तो सौंदर्य प्रसाधनों का और भी चाव होता है। ऐसे में वे उन उत्पादों के लिए लालायित रहती हैं जिनके विज्ञापन जोर-शोर से टीवी पर दिखाई देते हैं। काश, सरकार या कोई संस्था इतने ही जोर-शोर से देश की महिलाओं को बता पाए कि सुंदरता का मतलब चेहरे पर क्रीम-पाउडर पोत लेना नहीं है बल्कि खुद को स्वावलंबी बनाते हुए समाज में अपनी उपयोगिता को साबित करना है।