पंकज शर्मा
जिन्हें लगता था कि राहुल गांधी पता नहीं कहां चले गए हैं और अब कांग्रेस का क्या होगा, वे राहुल के लौटने के बाद उनकी भाग-दौड़ और जुबानी सक्रियता देख कर जरा हकबकाए हुए हैं। करीब दो महीने के अपने अज्ञातवास से वापस आने के बाद राहुल ने दिल्ली के रामलीला मैदान से जो दौड़ शुरू की है, उसकी पदचाप केदारनाथ, पंजाब और विदर्भ तक ने सुन ली है। लोकसभा में भी राहुल भारतीय जनता पार्टी और खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुटकी लेने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने दे रहे हैं। 2019 आने में अभी वक्त है। लेकिन इतना तो तय है कि ये राहुल, वो राहुल नहीं हैं और अगर अपनी सियासी त्वरा वे इसी तरह बनाए रखें तो कांग्रेस के दिन उतने भी बुरे नहीं हैं, जितने पिछले बरस की गर्मियों में दिखाई दे रहे थे।
राहुल की राह लंबी है। अपनी सोहबत पर अटूट विश्वास के चलते कांग्रेस के माथे पर लगा चौवालीस साल का कलंक राहुल को ठीक से सोने नहीं देता होगा। वे यह भी जानते होंगे कि इसे धोने के पहले अगले चार साल में उन्हें जिस बाधा-दौड़ से रूबरू होना है, वह काफी पसीना मांगती है। राहुल के मौजूदा तेवरों में यह ठोस संकेत तो दिखाई देता है कि वे हर कीमत चुकाने को तैयार होकर आए हैं। कांग्रेस के शीशम से लिपटी पुरातन और नई-नवेली अमरबेलों से अगर वे बचे रह सके तो उनकी नई चेतना कांग्रेस को 2019 आते-आते पुनर्जीवन दे सकती है।
इसके लिए राहुल को अगले चार बरस में प्रादेशिक चुनावों के चक्रव्यूह से गुजरना होगा। इस दौरान देश भर में 3217 विधानसभा क्षेत्रों के चुनाव होंगे। दो दर्जन से ज्यादा इन राज्यों में पिछले पांच वर्षों में हुए चुनावों में कांग्रेस को सिर्फ 828 सीटें मिली हैं। बावजूद इसके कांग्रेस की हालत इसलिए ठीक-ठाक मानी जाएगी कि अगर आधा दर्जन राज्यों को छोड़ दें तो बाकी सब में कांग्रेस को पैंतीस से पचास प्रतिशत तक वोट मिले थे। जहां कांग्रेस को बुरी तरह मुंह की खानी पड़ी, उनमें से एक राज्य बिहार है और वहां इसी साल नवंबर में विधानसभा के चुनाव होने हैं। पिछली बार के चुनाव में कांग्रेस बिहार की सभी दो सौ तैंतालीस सीटों पर लड़ी थी और महज चार पर जीत पाई थी। उसे वोट भी सिर्फ 8.37 प्रतिशत मिला था।
बिहार राहुल गांधी के लिए सबसे पहली चुनौती है। उनके मजमे में एकला चलो रे का इकतारा बजाने वाले भी हैं और समान विचार वाले राजनीतिक दलों के साथ चलने का समूह-गान गाने वाले भी। भाजपा-विरोधी वोटों को बंटने से रोकने के फर्ज और अपनी पार्टी की जड़ें गांव-गांव तक मजबूत करने के धर्म में से कोई एक राहुल को चुनना होगा।
बिहार विदा होगा तो 2016 में 824 विधानसभा क्षेत्रों के चुनाव राहुल के सामने होंगे। अगले साल मई में पश्चिम बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और पुदुच्चेरी में कांग्रेस का रास्ता मखमली बनाना किसी के लिए भी आसान नहीं है। पिछले चुनावों में कांग्रेस ने इन राज्यों में कुल मिलाकर 170 सीटें जीती थीं। यह आंकड़ा जितना कमजोर दिखता है, उतना है नहीं, क्योंकि कांग्रेस ने अपने उम्मीदवार सिर्फ 353 सीटों पर उतारे थे। असम की सभी 126 सीटों पर कांग्रेस जरूर लड़ी थी और उनमें से 78 उसने जीत भी लीं, लेकिन पश्चिम बंगाल में वह 294 में से सिर्फ 66 सीटों पर लड़ी और 42 पर जीती। केरल की 140 में से 81 सीटें कांग्रेस ने लड़ीं और 38 जीतीं। तमिलनाडु की 234 में से सिर्फ 63 सीटों पर कांग्रेस ने उम्मीदवार उतारे, और अपनी झोली में महज पांच सीटें ला पाई। राहुल के सामने इस बार वहां सबसे बड़ी दुविधा अपने हमजोली की तलाश की होगी।
2017 में राहुल गांधी को फिर 690 विधानसभा क्षेत्रों में अपना जौहर दिखाना होगा। इस बार उत्तर प्रदेश और पंजाब जैसे राज्यों की चुनौती उनके सामने होगी। मार्च और मई के महीनों में ही उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर की विधानसभाओं के चुनाव भी होंगे। इन पांच प्रदेशों में पिछली बार हुए चुनावों में कांग्रेस को 157 सीटें मिली थीं। बावजूद इसके कि पिछली बार राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश की खाक छानने में कोई कसर बाकी नहीं रखी थी और बावजूद इसके कि कांग्रेस ने राज्य की 403 सीटों में से 355 पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे, पार्टी अट्ठाईस पर सिमट गई थी। राहुल को देखना होगा कि उन्हें डगर-डगर घुमाने वाले देश भर में और खासकर उत्तर प्रदेश में इस बार कोई कोताही न होने दें। 2017 में पंजाब भी कांग्रेस के लिए बेहद अहम होगा और वहां की सांगठनिक उथल-पुथल पर राहुल को वक्त रहते लगाम कसनी होगी।
अगले लोकसभा चुनावों से एक साल पहले 2018 की शुरुआत गुजरात के विधानसभा चुनाव से होगी। गुजरात की 182 विधानसभा सीटों में से कांग्रेस पिछली बार छह को छोड़ कर सभी पर लड़ी थी। नरेंद्र मोदी का जादू जब लोगों के सिर चढ़ कर बोल रहा था, तब भी कांग्रेस ने गुजरात में 61 सीटें जीती थीं और उसे 40.5 प्रतिशत वोट मिले थे। गुजरात की तैयारी अगर कांग्रेस अभी से कर ले तो वहां भाजपा को ता-ता-थैया कराना कोई बहुत मुश्किल भी नहीं है। 2018 में सात प्रदेशों की 694 विधानसभा सीटों पर चुनाव होंगे। पिछली बार इनमें से तीन सौ सीटें कांग्रेस को मिली थीं।
हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड और त्रिपुरा में कांग्रेस की हालत आज भी कमोबेश ठीक-ठाक है और बिला नागा सियासी व्यायाम के जरिए उसे और बेहतर बनाए रखने में राहुल गांधी क्यों कामयाब नहीं रहेंगे?
मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान की विधानसभाओं का कार्यकाल यों तो 2019 के शुरू होते ही खत्म हो रहा होगा, लेकिन उनके चुनाव भी 2018 के दिसंबर में हो जाएंगे। इन तीन राज्यों की 520 सीटों में से कांग्रेस को पिछली बार सिर्फ 118 पर जीत हासिल हो सकी थी। राजस्थान में तो सभी दो सौ सीटें लड़ने के बाद भी उसे महज इक्कीस सीटें मिली थीं। इस हार के बाद पहले दिन से ही राजस्थान पर कांग्रेस जिस तरह ध्यान दे रही है, उसने वहां के राजनीतिक आसमान को अनुकूल बनाया है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी राहुल गांधी अगर देर नहीं करेंगे तो कुहासा जल्दी ही छंटना शुरू हो जाएगा।
वर्ष 2019 की गर्मियां आते-आते पांच और राज्यों की विधानसभाएं भी कायाकल्प का इंतजार कर रही होंगी। ज्यादा संभावना यही है कि आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओड़िशा, अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम के विधानसभा चुनाव मई में लोकसभा चुनाव के साथ ही होंगे। इसलिए इन राज्यों में तब चलने वाली लहरों का असर, जाहिर है कि, पड़ेगा। मोदी-लहर तब कितनी उछालें लेगी, राहुल गांधी लहर तब कितना आसमान छुएगी, इसका आकलन अभी कौन कर सकता है? आज का तथ्य तो यह है कि इन प्रदेशों में कांग्रेस को पिछली बार 533 में से सौ सीटें ही मिली थीं। ओड़िशा में भी उसकी सांसें बुरी तरह फूल गई थीं।
तेलंगाना को अलग राज्य का दर्जा देने की पहल कांग्रेस ने ही की, 2004 का चुनाव इसी मुद््दे पर कांग्रेस और तेलंगाना राष्ट्र समिति ने मिल कर लड़ा था। तेलंगाना के निर्माण से कांग्रेस ने वहां की जन-आकांक्षाओं को पूरा करने का अपना सामाजिक दायित्व भले ही निभा दिया, मगर यह संवेदना सियासी तौर पर उसे भारी पड़ी है। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना की पारंपरिक कांग्रेसी जमीन को फिर सींचने की जिम्मेदारी भी राहुल को निभानी होगी, ताकि दोनों प्रदेशों में कांग्रेस घर की भी रहे और घाट की भी।
क्या यह सब इतना आसान होगा? क्या राहुल गांधी इतना पसीना बहा पाएंगे? क्या अब वे फिर उदास होकर कहीं नहीं जाएंगे? क्या अब वे ताजिंदगी मैदान में डटे रहेंगे? ऐसे सभी सवालों के जवाब तो अगले कुछ महीनों में पूरी तरह साफ हो ही जाएंगे। राहुल का ताजा जज्बा अगर कोई इशारा है तो इशारों को न समझने वाले आने वाले दिनों में आंखें फाड़े घूम भी रहे होंगे। लेकिन असली सवाल तो यह है कि क्या राहुल के साथ कांग्रेस भी इतना पसीना बहा पाएगी? जिनका पसीना सूख गया है, क्या वे समांतर टहनियां उगने देंगे? बरसों से बोंसाई की खेती करने वाले अपनी केंचियां सिराने को तैयार होंगे?
मोबाइल-दस्तक से पूरी की गई दस करोड़ की सदस्य-संख्या के बूते इतरा रही भाजपा तो इस जनम में कांग्रेस-मुक्त भारत का अपना ख्वाब पूरा नहीं कर पाएगी, मगर जो कांग्रेस में मुक्त भाव से टहल रहे हैं उनका क्या होगा? इसलिए सवाल यह नहीं है कि राहुल गांधी कांग्रेस को कहां ले जाएंगे। सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि आज की कांग्रेस राहुल गांधी को कहां ले जाएगी? भट्टा-पारसौल से नियमगिरी पहाड़ियों तक राहुल क्या पहले नहीं घूमे? देहातों में रात बिताने से लेकर कुलियों तक से बतियाने का काम क्या राहुल ने पहले नहीं किया? तो राहुल के बोए बीजों की फसल कहां चली गई? क्या जिन पर खाद-पानी देने की जिम्मेदारी थी, जिन पर खर-पतवार हटाने की जिम्मेदारी थी, उन्होंने अपनी जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभाई?
राहुल गांधी को 2019 तक तीन हजार से ज्यादा जो विधानसभाई डगर भरने हैं, वे तो वे भर भी लेंगे, लेकिन उससे ज्यादा ऊंचा पहाड़ तो उन्हें कांग्रेस के अंत:पुर में चढ़ना है। इस ऊबड़-खाबड़ रास्ते में उन्हें रहजनों से निपटना है। रहबरों की तलाश करनी है। यह अकेला ऐसा काम है, जिसे उन्हें खुद करना होगा। यह अकेला ऐसा काम है, जिसे दूसरों पर छोड़ने के नतीजे दोबारा भुगतने का समय अब नहीं है। यह एक काम वे जितनी नफासत से कर पाएंगे, 2019 की राह पर कांग्रेस उतनी ही सरपट दौड़ पाएगी।
(लेखक कांग्रेस से संबद्ध हैं।)
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