बिभा त्रिपाठी

संभव है कि बीते आठ मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर राष्ट्रीय महिला आयोग द्वारा ‘मेन फॉर विमेन’ यानी ‘पुरुष महिला के लिए’ विषय का चयन लैंगिक समानता के लिए संयुक्त राष्ट्र महिला सौहार्द आंदोलन से प्रेरित होकर किया गया हो, जिसमें विश्व के ऐसे लोगों को जोड़ने का प्रयास किया गया जो कि ‘ही फार शी’ के लिए प्रतिबद्ध होते हैं, जिसमें आज तक इक्कीस लाख लोगों ने अपनी प्रतिबद्धता दिखाई है।

इस आंदोलन की मुख्य बात यह है कि इसमें हुए अध्ययन यह दर्शाते हैं कि लैंगिक विषमता को खत्म करने के लिए अभी दो सौ सत्तावन साल और लगेंगे और ऐसे आंदोलनों का आधार स्तंभ यह सूत्र वाक्य होता है कि ऐसे पुरुष, जो शक्ति और अधिकार संपन्न हैं, उन्हें महिलाओं को सशक्त और सुरक्षित बनाने के लिए प्रयास करना चाहिए। इस बात में कतई संदेह नहीं है कि जहां महिलाओं ने पुरुषों का साथ और सहयोग पाया है वहां वह और सशक्त होकर उभरी है, अपनी क्षमताओं को और भी निखारा है और अपने अपने क्षेत्रों में परचम भी लहराया है, परंतु जिस आंदोलन के सूत्रधार ही अभी पूर्ण समानता आने में ढाई सदी से अधिक का समय देते हैं!

वहां एक सरल और साधारण प्रश्न यह उठता है कि क्या आज की परिस्थितियों पर हम हाथ पर हाथ धर कर बैठे रहें और मूकदर्शक बन कर देखें कि महिला का शीलभंग हो रहा है, गलियों में, चौराहों पर, घरों की चारदीवारी के भीतर, सुधार गृहों में, आश्रमों में, अनाथालयों में और आश्चर्यजनक रूप से पुलिस थानों में भी। यह ऐसी जगह है, जहां किसी महिला को सर्वाधिक सुरक्षा का अहसास होना चाहिए। और जब इन जगहों पर भी उसे खौफनाक मंजर दिखाई देते हैं तो प्रश्न उठता है व्यवस्था पर, राजनीति पर, शासन पर और प्रशासन पर। जिस देश का नेतृत्व संभालने वालों को अपराधों के घटने का क्रम उसकी गंभीरता और निरंतरता किसी राज्य विशेष के राजनीतिक दल के संदर्भ में व्याख्यायित करना हो वहां एक उदासी, छलावा और निराशा के अलावा कुछ नहीं बचतो

अब हमें यह समझना होगा कि महिला हिंसा की कोई जाति नहीं होती, कोई नस्ल नहीं होता, कोई धर्म, मजहब भाषा या क्षेत्रीयता नहीं होती। महिलाओं को धन, धर्म और वर्ग में विभाजित करके हम उन्हें कोई न्याय नहीं दे पाते। दुखद यह है कि दलित, आदिवासी, घरेलू कामों को करने वाली या कामकाजी महिलाओं के भीतर जो सुरक्षा का भाव स्वाधीनता के सत्तर साल बीतने के बाद आ जाना चाहिए था, वह अब भी संभव नहीं हो पाया है। विडंबना तो यह है कि उच्च पदस्थ महिलाओं को, जिनमें कुछ सेना में तो कुछ पुलिस विभाग में कार्यरत हैं, उन्हें भी यौन उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है, उनके ऊपर भी अपनी आवाज को दबाए रखने का दबाव पड़ रहा है।ये परिस्थितियां देश के स्वास्थ्य और सुरक्षा के दृष्टिकोण से सही नहीं है। सरकारी नीतियों, नियमों, कानूनों, योजनाओं और घोषणाओं का दायरा बड़ा सीमित होता है, इसके लाभार्थियों की सोच और प्रयास आत्मकेंद्रित होती है, इसमें महिला पुरुष का तथाकथित विभाजन भी महत्त्वहीन हो जाता है।

आपराधिक न्याय प्रशासन के सभी अंगों के सक्रिय और संवेदनशील होने के बावजूद पीड़ित पक्षकार के न्याय का रास्ता दुरूह और दुर्गम बना हुआ है। निर्भया कांड के बाद किए गए बदलाव और एक कॉरपस निधि बनाए जाने के बावजूद शून्यता व्याप्त है। जहां सीसीटीवी कैमरे लगे हैं, पर समय पर काम नहीं करते और खेतों खलिहान में दिन में या रात में घटने वाली घटनाओं में कोई फर्क नहीं होता। हमारे देश में राष्ट्रीय अपराधों की सांख्यिकी, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो नामक संस्था द्वारा तैयार होती है, जो उन पीड़ितों का हवाला नहीं देती, जिन्होंने आपराधिक न्याय प्रशासन को अपनी ओर से गतिमान नहीं किया है, चाहे वह वयस्क अपराध पीड़िताएं हों या अवयस्क पीड़िताएं।

ऐसे में जहां विश्व के अन्य देशों में राष्ट्रीय अपराध पीड़िता सर्वेक्षण या राष्ट्रीय अपराध पीड़ित ब्यूरो जैसी संस्थाएं स्थापित की गई हैं और जिनके माध्यम से यह पता लगाया जाता है कि ऐसे लोगों का प्रतिशत क्या है, जो किसी न किसी प्रकार के हिंसा, उत्पीड़न, दुर्व्यवहार, शोषण अथवा विभेद के शिकार हो रहे हैं, ताकि उनके लिए नीतियां बने और उन्हें उनके घर, कार्यस्थल, सार्वजनिक स्थल, मल्टीप्लेक्स, लिफ्ट, अस्पताल, आॅपरेशन थिएटर, बाथरूम आदि जगहों पर भी सुरक्षित रखा जा सके। वास्तव में देश की बात करें या वैश्विक परिदृश्य की चर्चा करें, एक समाज के विचलन के अनेक केंद्र होते हैं।

सोशल मीडिया, प्रिंट मीडिया, फिल्में और अब वेब सीरीज के माध्यम से जिस समाज का चित्रण किया जा रहा है वह ऐसा समाज है जिसका कोई मानक नहीं है, जिसमें कोई प्रतिमान नहीं है, जिसमें नैतिकता की कोई भूमिका नहीं है, जिसमें नशा, लैंगिक दुराचरण, अश्लीलता और आपराधिकता में कुछ भी असहज या अस्वाभाविक नहीं समझा जाता और सब कुछ ऐसे परोसा जाता है जैसे यही नया रिवाज हो।

सूचना क्रांति एवं वैज्ञानिक तथा तकनीकी प्रगति के दुरुपयोग ने रिश्तों की मर्यादा को भी तार-तार कर दिया है, प्रख्यात मनोविश्लेषक सिगमंड फ्रायड के शब्दों में कहा जाए तो पूरे के पूरे जनमानस का सुपर ईगो जिसे मर्यादा और आदर्शों का पुंज कहा जाता था, एक विलुप्त होती प्रजाति के समान विलुप्त होता दिखाई दे रहा है, सभी के भीतर का ईगो उसे नियंत्रित कर रहा है, उनका चेतन मन जिसे अहं या ईगो की संज्ञा दी जाती है, वह बिल्कुल निस्तेज हो चुका है और ईडिपस कॉम्प्लेक्स और इलेक्ट्रा काम्प्लेक्स जो क्रमश: पिता और पुत्र के बीच तथा माता और पुत्री के बीच होता है, उसने हर उम्र के लोगों को अपनी गिरफ्त में ले रखा है।

एक तरफ द्रुत गति से हो रहे बदलावों के मद्देनजर हमारी न्यायपालिका लैंगिक रूप से अनुमन्य समाज का गठन कर रही है, जहां विवाह और परिवार जैसी संस्था से लोग पल्ला झाड़ रहे हैं और आधुनिकता के नाम पर हावी होती नग्नता के शिकार हो रहे हैं, वहां यह भी उल्लेखनीय है कि एक तरफ जो लड़का, युवा या प्रौढ़ स्वयं को आधुनिकता का पोषक मानता है, व्यक्तित्व के अनछुए हिस्सों में रूढ़िवादी पितृसत्ता का वर्चस्व भी बनाए रखता है। व्यक्तित्व के इस दोहरेपन की मार उन तथाकथित आधुनिक, शिक्षित और पेशेवर महिलाओं को ज्यादा झेलनी पड़ती है, जिन्होंने सोचा था कि उनकी मांओं का उत्पीड़न विवाह संस्था में बंधने के कारण होता है और इसलिए उन्होंने एक विरोध का बिगुल बजाया और स्वच्छंदता की राह पकड़ी।

कहने का तात्पर्य है कि जब तक हमारा समाज, जिसमें पुरुष एवं महिला और उभय लिंगी सभी शामिल हैं, उसमें श्रम और शरीर का सम्मान करना नहीं सिखाया जाएगा तब तक महिला सुरक्षा का आश्वासन नहीं मिल पाएगा। वर्तमान समय में ‘ही फार शी’ या ‘मेन फॉर विमेन’ के साथ ही ‘शी फार ही’ और ‘शी फार शी, विमेन फॉर मेन’ और ‘विमेन फॉर विमेन’ की भी बात करनी होगी। किसी व्यक्तिगत पहलू का सामान्यीकरण करना विषय की गंभीरता को कमतर करना होता है, अत: घटनाओं का निरपेक्ष विवेचन करना चाहिए, उनका राजनीतिकरण नहीं करना चाहिए और एक नई मुहिम ‘समाज बदलाव के लिए’ ‘सोसायटी फॉर चेंज’ ‘एस फॉर सी’ चलाना चाहिए, जिसमें ‘सब सब के लिए’ ‘आॅल फार आल’ या ‘ए फॉर ए’ के लिए काम करें तो शायद हम अपने समाज की सुरक्षा के लिए आश्वस्त हो सकें।