संघर्ष ऐसा शब्द है, जो इंसान की नियति के साथ शुरू से ही बंधा हुआ है। जिंदा रहने का संघर्ष, बेहतरी का संघर्ष और विचारधाराओं का संघर्ष- एक सिलसिला लगातार बना रहता है। इंटरनेट ने संघर्ष या प्रतिरोध को नए आयाम दे दिए हैं। इन आयामों के चलते स्थितियां बदली हैं। ऐसा नहीं है कि इंटरनेट नहीं था, तब संघर्ष या प्रतिरोध या क्रांतियां नहीं थीं। वामपंथी लेखक तारिक अली ने अपने एक व्याख्यान में कहा कि ऐसा नहीं है कि सोशल मीडिया और इंटरनेट के बगैर बदलाव नहीं आए। भारत का 1857 का स्वतंत्रता-संघर्ष तो बिना आधुनिक संचार-माध्यमों के ही हुआ। रोटियों के जरिए संदेश भिजवाए गए थे 1857 के संघर्ष में। पर आज की स्थितियों में बदलाव की हर जंग कमोबेश इंटरनेट-सोशल मीडिया का सहारा तलाशती है। आज की स्थितियों में बदलाव की जंग में लगे लोग मीडिया का सहारा लेना चाहते हैं। मुख्यधारा के मीडिया में उन्हें अपने सहारे प्राय: नहीं मिलते हैं।
अमेरिका के मार्क्सवादी प्रोफेसर डेविड हार्वे ने एक व्याख्यान में बताया कि उन्होंने कर्ज-संस्कृति पर एक लेख अमेरिका के अखबार ‘वॉल स्ट्रीट जर्नल’ के लिए लिखा, वह नहीं छपा। मुख्यधारा के मीडिया में प्राय: इस तरह के लेख नहीं छपते। पर डेविड हार्वे अपनी बात अब बहुत जोरदारी के साथ सोशल मीडिया जैसे ट्विटर, यू-ट्यूब पर रखते हैं। कार्ल मार्क्स की किताब ‘दास कैपिटल’ पर डेविड हार्वे के व्याख्यान यू-ट्यूब पर उपलब्ध हैं। इन्हें सुन कर, देख कर ‘दास कैपिटल’ पर एक नजरिया समझा जा सकता है। सहमति या असहमति अलग बात है, वह हर विवेकवान व्यक्ति का अपना अधिकार है। पर कोई एक पक्ष मीडिया में एक सिरे से अनुपस्थित हो जाए, यह बात भी स्वस्थ विमर्श के लिए सही नहीं है। मुख्यधारा के मीडिया में डेविड हार्वे को चाहे बहुत जगह न मिलती हो, मगर सोशल मीडिया पर उनकी पहुंच अप्रतिबंधित है। कोई भी उनकी बात सुन सकता है, देख सकता है।
सोशल मीडिया सबके लिए खुला है, बल्कि कुछ ज्यादा ही खुला है। आतंकी संगठन आइएसआइएस को भरती करने का जुगाड़ भी इंटरनेट दे देता है और अपनी क्रूरताओं को दर्शाने के लिए यू-ट्यूब वीडियो भी सोशल मीडिया में मिल जाते हैं। हाल में आतंकवाद के मसले पर जी-बीस के शिखर सम्मेलन को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस बात पर गहरी चिंता जाहिर की कि आइएस जैसे खूंखार संगठन दहशतगर्दों की भरती के लिए इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे हैं। यह बात तमाम अंतरराष्ट्रीय मंचों से कही जाती रही है कि कोई भी देश आतंकवाद के लिए अपनी जमीन का इस्तेमाल न होने दे। पर आतंकवाद के लिए सोशल मीडिया का भी इस्तेमाल न हो पाए, यह भी उतना ही अहम तकाजा है।
कुल मिला कर सोशल मीडिया काफी खुला माध्यम है। इस खुलेपन के सदुपयोग और दुरुपयोग दोनों संभव हैं और वे हो रहे हैं। अपने देश में लोगों को भड़काने, अफवाह फैलाने और सांप्रदायिक भावनाएं भड़काने के इरादे से सोशल मीडिया का अनेक बार इस्तेमाल हुआ है। असम के कोकराझार में हुए दंगों के समय जहर उगलने के लिए सोशल मीडिया के जरिए भ्रामक सूचनाएं फैलाई गर्इं और धमकियां दी गर्इं। इस सबसे नाहक ही डर का माहौल और तीखा हुआ तथा बेंगलुरु, हैदराबाद, मुंबई आदि महानगरों से पूर्वोत्तर के एक खास समुदाय के लोगों को बड़ी संख्या में पलायन करना पड़ा। कुल मिला कर देखने की बात यह है कि आंदोलनों और संघर्षों के तौर-तरीके बदले हैं। हाई-टेक होते समाज में क्रांति और विरोध के तरीके भी बदल गए हैं। पहले जहां हिंदुस्तान में 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में क्रांति के संदेश रोटी और कमल के फूल के माध्यम से भेजे गए, वहीं मिस्र के तहरीर चौक से लेकर ग्रीस की उठापटक से जुड़ी संघर्ष गाथाएं इंटरनेट के जरिए पूरी दुनिया तक पहुंच रही हैं। संघर्षों का भूमंडलीकरण हो रहा है। मतलब अमेरिका में चलने वाले किसी संघर्ष से भारतीय उसी समय परिचित हो सकते हैं। उससे सबक भी सीख सकते हैं।
अमेरिका का एक बहुत ही चर्चित आंदोलन चला है -ओकुपाई वॉल स्ट्रीट के नाम से। ओकुपाई वाल स्ट्रीट का फेसबुक पर पेज है। उसमें इस आंदोलन के बारे में तमाम जानकारियां पोस्ट की जाती हैं। ओकुपाई वॉल स्ट्रीट मूलत: कॉरपोरेट राज के खिलाफ चलने वाला आंदोलन है। ओकुपाई वाल स्ट्रीट का मूल स्वर यह है कि अमेरिका की अर्थव्यवस्था पर कंपनियों का कब्जा है, ये कंपनियां अमेरिका के आम आदमी के हित में काम नहीं होने देती हैं। वॉल स्ट्रीट में अमेरिका का सबसे महत्त्वपूर्ण शेयर बाजार न्यूयार्क स्टाक एक्सचेंज है, जहां अमेरिका की शीर्ष कंपनियों के शेयरों में लेन-देन होता है। आकुपाई वॉल स्ट्रीट के तहत इन कंपनियों पर ही सांकेतिक कब्जे की बात कही जाती है।
ओकुपाई वॉल स्ट्रीट आंदोलन अमेरिका में खासा चर्चित रहा है। यह आंदोलन बराबर संदेश फैला रहा है कि अमेरिका में एक प्रतिशत लोग ही संसाधनों के बड़े हिस्से पर कब्जा किए बैठे हैं और निन्यानवे प्रतिशत जनता उन संसाधनों से वंचित है। अब तो ओकुपाई कॉमिक्स, ओकुपाई कार्टून भी बनने लगे हैं।
अमेरिका में ओकुपाई आंदोलन को चलाने में, उसे जीवनी-शक्ति देने में इंटरनेट-सोशल मीडिया का बहुत योगदान है। ओकुपाई यानी कब्जा करो का आह्वान अब विश्व के दूसरे देशों में भी हो रहा है। हाल में दिल्ली में छात्रों ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के कुछ कदमों के विरोध में आकुपाई यूजीसी आंदोलन चलाया। इंटरनेट या सोशल मीडिया विश्व के एक हिस्से के संघर्ष को दूसरे हिस्से तक बहुत जल्दी पहुंचा देता है, कम से कम जानकारियों के स्तर पर। इन जानकारियों का इस्तेमाल विश्व के दूसरे हिस्सों के लोग भी कर सकते हैं।
ओकुपाई आंदोलन से जुड़े कार्यकर्ता सोशल मीडिया-इंटरनेट के जरिए अपनी बातें अमेरिका में लगातार रख रहे हैं। इस आंदोलन से जुड़े अर्थशास्त्र के एक अमेरिकी प्रोफेसर रिचर्ड वोल्फ भी अपनी वे बातें सोशल मीडिया पर रख रहे हैं, जो आमतौर पर मुख्यधारा के मीडिया में नहीं आ पातीं। प्रोफेसर रिचर्ड वोल्फ अमेरिका के कुछ उन चुनिंदा विद्वानों में हैं, जो अमेरिका को समाजवाद की ओर ले जाना चाहते हैं। रिचर्ड वोल्फ यू-ट्यूब पर अमेरिकी अर्थव्यवस्था के बारे में तमाम जानकारियां और विचार साझा करते हैं। उनकी तमाम बातों का आशय यह है कि अमेरिकी राजनीति पूरे तौर पर कंपनियों के कब्जे में है। अमेरिकी नेता कुछ भी ऐसा नहीं करेंगे, जो कंपनियों के हितों पर चोट करता हो, और ये कंपनियां अपने मुनाफे के लिए सरकारी नीतियों का इस्तेमाल करती हैं।
रिचर्ड वोल्फ की बातों का आशय यह है कि कंपनियां सस्ती लागत की तलाश में अपने संयंत्र और कारखाने चीन जैसे देशों में ले जा रही हैं। अमेरिकी मजदूर की तनख्वाह इसलिए नहीं बढ़ पा रही है, जबकि उसके खर्च लगातार बढ़ रहे हैं। इसलिए अमेरिका में कर्ज लगातार बढ़ रहा है। वोल्फ कहते हैं कि कंपनियां अपने कर्मचारियों को ज्यादा वेतन नहीं देतीं, इसलिए कर्मचारियों को कर्ज लेना पड़ता है। इसलिए अमेरिकी मजदूर संकट में है। इसका इलाज वे बताते हैं कि अमेरिका में समाजवादी प्रवृत्ति की सरकार आए। वोल्फ की बातों से सहमति-असहमति अलग बात है, पर उनका पक्ष रखने का काम सोशल मीडिया ही कर रहा है। मुख्यधारा का मीडिया वोल्फ को तवज्जो नहीं देता। पर सोशल मीडिया के दरवाजे उनके लिए खुले हैं।
बहुत कमाल का विरोधाभास है: यू-ट्यूब, ट्विटर, फेसबुक सबके सब उन अमेरिकी कंपनियों के ही उपक्रम हैं, जिन्हें पूंजीवाद का प्रतीक माना जाता है। और पूंजीवाद के खिलाफ चल रहे तमाम संघर्षों को चलाने में ये ही उपक्रम खासे मददगार साबित हो रहे हैं। भारतीय मूल की अमेरिकी समाजवादी नेता क्षमा सावंत अमेरिका में लगातार चर्चा में रहती हैं, खास तौर पर सोशल मीडिया में। यू-ट्यूब पर क्षमा सावंत यह बताती हुई मिल जाती हैं कि किस तरह से समाजवादी भविष्य का निर्माण अमेरिका में संभव है। क्षमा सावंत ने राजनीतिक तौर पर सीमित सफलता भी हासिल की है। वे सिएटल सिटी कौंसिल की सदस्य हैं, यह सदस्यता उन्होंने चुनाव जीत कर हासिल की है।
भारत में अगर अरविंद केजरीवाल के राजनीतिक ग्राफ का गहराई से अध्ययन किया जाए, तो साफ पता लगता है कि सोशल मीडिया का उन्होंने बखूबी इस्तेमाल किया है। समझने की बात यह है कि भारतीय जनता पार्टी धनबल और जनबल में अरविंद केजरीवाल के राजनीतिक दल से बहुत आगे है, पर केजरीवाल की सोशल मीडिया पर उपस्थिति भारतीय जनता पार्टी के मुकाबले कमजोर नहीं है। अपनी बात रखने के लिए केजरीवाल बहुत चतुराई से सोशल मीडिया का प्रयोग करते हैं। वैसी चतुराई अमेरिका के उन नेताओं और कार्यकर्ताओं में देखी जा सकती है, जो अभी वहां की मुख्यधारा की राजनीति के हिस्से नहीं हैं, जैसे क्षमा सावंत, रिचर्ड वोल्फ आदि।
कुल मिला कर, पूंजी का भूमंडलीकरण तो बहुत पहले ही हो चुका है। यह कोई हाल की घटना नहीं है। जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में कदम रखा था, तब वह पूंजी के भूमंडलीकरण का एक नमूना भर था। अब इंटरनेट-सोशल मीडिया ने यह सुनिश्चित किया है कि संघर्ष या प्रतिरोध का भी भूमंडलीकरण हो। वह हो रहा है। लोकतंत्र में स्वस्थ बहस के लिए सारे पक्षों के विचार सुने जाने चाहिए। दूर देश के तजुरबों को देखा-सुना जाना चाहिए। इस नजरिए से संघर्षों के भूमंडलीकरण को लोकतंत्र के परिपक्वीकरण की दिशा में ही आगे बढ़ा हुआ कदम माना जाना चाहिए।