सुविज्ञा जैन
देश में जगह-जगह बाढ़ से तबाही मची है। बारिश के दिनों में हर साल यही मंजर रहता है। यानी बाढ़ को अब प्राकृतिक आपदा कहना बंद कर देना चाहिए। यह सीधे-सीधे जल प्रबंधन का मामला है। अगर सामान्य बारिश में भी कई जगह बाढ़ आने लगे तो कुप्रबंधन कहना ही वाजिब होगा। मामला सिर्फ बाढ़ तक ही सीमित नहीं है। बारिश के छह-आठ महीने बाद देश पानी की भारी किल्लत यानी सूखा झेलने लगा है। पिछले कुछ साल के अनुभव हैं कि जिस साल सामान्य या उससे ज्यादा बारिश हुई, उस साल भी देश के बड़े भूभाग में सूखा पड़ा। जल प्रबंधन में खोट की इससे बड़ी और क्या मिसाल हो सकती है?
बहरहाल, यह समय मानसून का है। हाल-फिलहाल हम बाढ़ से परेशान हैं। बाढ़ग्रस्त इलाकों से लोगों को निकाल कर सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया जा रहा है। कई शहर जल भराव जैसी समस्या से जूझ रहे हैं। वहां पानी निकासी के लिए भारी मशक्कत की जा रही है। इन सब कामों पर खासी रकम खर्च हो रही है। जान-माल का जो नुकसान हो रहा है, सो अलग। ऐसे में यह सवाल बार-बार उठता है कि क्या वाकई बाढ़ से बचाव का स्थायी समाधान नहीं हो सकता। बेशक मानसून के पहले जगह-जगह बाढ़ नियंत्रण और आपदा प्रबंधन के पहले चरण के काम किए जाते हैं। यह इस बात का भी सबूत है कि हमें पहले से पता होता है कि कौन से इलाके बाढ़ के प्रति संवेदनशील हैं।
सरकारी विभागों को पहले से यह भी पता होता है कि बारिश का पानी कहां से होकर गुजरेगा और कितना पानी बहेगा। तो फिर बाढ़ का स्थायी समाधान संभव क्यों नहीं है? इसका जवाब है- बिल्कुल संभव है। यह बात जल विज्ञानी भी दशकों से समझते और समझाते आए हैं। इस पर तो कोई विवाद ही नहीं है कि वर्षा जल का भंडारण करने से बाढ़ और सूखे दोनों का प्रबंधन यानी समाधान होता है। इस वक्त बात क्योंकि बाढ़ की है, इसलिए उसी नजरिए से इस पर रोशनी डालना उचित होगा।
गौर कर लेना चाहिए कि जितनी बारिश सौ साल पहले हो रही थी, कमोबेश उतनी ही बारिश आज होती है। देश की धरती पर औसतन 120 सेंटीमीटर पानी पहले भी बरसता था और आज भी देश में वर्षा का स्तर कमोबेश यही है। बस फर्क यह आया है कि सत्तर साल पहले आबादी एक चैथाई थी, जो अब चार गुनी हो चुकी है। उसी हिसाब से बसावट बढ़ गई। और यह इतनी ज्यादा बढ़ गई कि वहां भी बसाबट हो गई, जहां नदियां या नाले उफन कर बहा करते थे। शहरों में नगर नियोजन के सारे नुक्ते ताक पर रख कर जो कुछ हुआ और हो रहा है, उसके बाद कई महानगर अगर बाढ़ से घिरने लगे हों तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
साधारण सा ज्ञान है कि हर संकट के समाधान दो प्रकार के होते हैं- फौरी और स्थायी। बाढ़ के फौरी समाधान यानी बाढ़ राहत जैसे उपाय तो हो ही रहे हैं और ऐसा हर साल होता है। सरकार को हजारों करोड़ रुपए इस पर खर्च करने पड़ते हैं, लेकिन फिर भी बाढ़ के स्थायी समाधान के लिए सोच-विचार कम ही होता दिखता है। अच्छा हो, बाढ़ के इन्हीं दिनों में स्थायी समाधान पर सोच-विचार शुरू हो जाए।
अगर मान लिया जाए कि बाढ़ जल प्रबंधन का ही मामला है, तो यह मान लेने में भी हिचक नहीं होना चाहिए कि देश में जल भंडारण क्षमता बढ़ाए बिना बाढ़ से निजात मिल नहीं पाएगी। समयसिद्ध अनुभव भी है और जलविज्ञानी भी बताते हैं कि जहां पानी बरस रहा है उसके आसपास ही उसका भंडारण कर लिया जाए, तो बरसाती नालों के जरिए नदियों में ज्यादा पानी नहीं पहुंच पाता। छोटी-छोटी नदियों के पानी को अगर जलाशय में रोक कर रख लिया जाए, तो वे आगे बड़ी नदियों में बाढ़ आने का अंदेशा कर कर देती हैं।
देश के ज्यादातर नगर-महानगर जरा-सी बारिश में बाढ़ से घिरने लगे हैं। नगर नियोजन के नुक्तों की अनदेखी करके बढ़ते चले शहरों-महानगरों की समस्या अब भले असाध्य हो चुकी हो, लेकिन भविष्य के नियोजन में सतर्कता बरतना कौन-सा मुश्किल काम है! वैसे उन समस्याग्रस्त यानी बाढ़ प्रवण महानगरों के लिए भी जल भंडारण प्रबंध चमत्कारी असर पैदा कर सकता है।
वैसे भी ज्यादातर शहर और महानगर पानी की किल्लत से जूझते दिखाई दे रहे हैं। ऐसे में उन्हें भी आगे अपने जलग्रहण क्षेत्र में बरसे पानी को रोक कर रखने का इंतजाम तो करना ही पड़ेगा। प्राचीन काल में राजधानियों में तालाबों या बड़े-बड़े जलाशयों का निर्माण इसीलिए किया जाता था। इसलिए आज जो शहर और महानगर गलत नियोजन के शिकार होते जा रहे हैं, उनका उपचार या सुधार कितना संभव है, इस बारे में वास्तुकारों और नगर नियोजकों को सोचना होगा।
लेकिन इस बात पर दो राय नहीं हो सकती कि अगर देश में जल भंडारण का व्यवस्थित काम शुरू हो जाए तो वह बाढ़ को नियंत्रित करने का बहुत-सा काम निपटा देगा। सूखे के समय होने वाली पानी की किल्लत मिटेगी, वह अलग। इस सुझाव पर सोच-विचार से पहले हमें यह भी देखना होगा कि इस समय हमारी जल भंडारण की स्थिति है कैसी? देश में हर साल चार हजार अरब घनमीटर पानी बरसता है। इसमें से हम सिर्फ 257 अरब घनमीटर पानी को रोक कर रखने लायक बांध और जलाशय बना पाए हैं।
देश में इस समय छोटे, मझोले और बड़े मिला कर करीब पांच हजार बांध या जलाशय हैं। लेकिन इन बांधों में कुल वर्षा का सिर्फ सात फीसद पानी ही रोक कर रखा जा जाता है। बाकी वर्षा जल में ज्यादातर पानी बाढ़ की तबाही मचाता हुआ वापस समुद्र में चला जाता है। नियंत्रित तरीके से या व्यवस्थित तरीके से इस पानी को रोक कर रख पाने में नाकामी के कारण ही बाढ़ भी आती है और बाद में सूखा भी पड़ता है। इसलिए क्या यह सोचा नहीं जाना चाहिए कि ज्यादा से ज्यादा वर्षा जल को सुरक्षित तरीके से रोक कर कैसे रखा जाए?
पिछले तीन दशकों में बांधों और जलाशयों का भारी विरोध किया जाता रहा। इन्हें नदियों के अस्तित्व और पर्यावरण को नुकसान का तर्क रखा गया। इस तरह के तर्क इतने जबर्दस्त तरीके से सामने आए कि सरकारें नए बांध और जलाशयों की बात करने से भी बचने लगीं। लेकिन अगर जल जीवन का पर्याय हो और जल भंडारण इतनी जरूरी चीज हो, तो क्या छोटे, मझोले और बड़े बांधों की जरूरत के बारे में नए सिरे से सोचना प्रासंगिक नहीं होगा?
सामान्य अनुभव है कि अब तक विरोध बड़े बांधों का होता रहा है। देश की उन प्रमुख नदियों पर जल संसाधन विकास परियोजनाओं का भी विरोध ज्यादा होता रहा है, जिनका सांस्कृतिक महत्त्व ज्यादा है। जबकि मझोले और छोटे बांधों का उतना विरोध होता नहीं दिखा।
सहायक नदियों या उप सहायक नदियों पर बहुतेरी जल परियोजनाएं विरोध के अंदेशे से दूर रही हैं। इसीलिए आज भी सरकारों के पास कोई डेढ़ सौ अरब घनमीटर पानी को रोक कर रखने की परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं या विचाराधीन हैं। लेकिन उन पर संजीदगी से काम होता नहीं दिखता।
जल विज्ञान में बांध की बस इतनी-सी परिभाषा है कि उसमें जल का भंडारण होता हो और उसमें नियमन के लिए दरवाजे लगे हों। यानी जब चाहे दरवाजे खोल कर पानी को आगे किसी नदी या खेतों तक पहुंचाया जा सकता हो। इस लिहाज से तो देश में पहले से मौजूद लाखों पुराने तालाबों को बांधों में तब्दील करना कौन-सी बड़ी बात होगी।

