जरा गौर कीजिए कि इसी देश में करीब अठारह-बीस करोड़ भूमिहीन दलित, अति पिछड़े मजूर हैं। उनके जीवन में यह मौका ही नहीं आता कि वे बैंक से कर्ज लें, खेती करें, उनकी फसल नष्ट हो और वे आत्महत्या कर लें। इसका अर्थ यह नहीं कि हम किसानों की आत्महत्या से पीड़ा का अनुभव नहीं करते।

लेकिन इस बात को समझना तो होगा कि एक भूमिहीन किसान या मजूर आत्महत्या न कर जीवन से जद्दोजहद क्यों करता है और दस-बीस लाख की अचल संपत्ति का मालिक किसान एक खास मनोदशा में आत्महत्या क्यों कर लेता है? आत्महत्या के बजाय वह एक काम तो कर ही सकता है कि किसानी छोड़ कोई दूसरा काम कर ले। या फिर भूमिहीन मजूर की तरह खट-खा ले। आप कहेंगे, यह क्या इलाज हुआ? हम भी इसे इलाज नहीं मानते। हम सिर्फ इतना कहना चाहते हैं कि आत्महत्याओं का कारण जितना आर्थिक नहीं, उससे ज्यादा समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक है।

क्या है कृषि का समाजशास्त्र? यह कि भूमि, जो जीवन का एक मूलभूत संसाधन है आज भी, उस पर मूलत: सवर्णों और सामाजिक ढांचे में तेजी से आगे बढ़ती कुछ पिछड़ी जातियों का कब्जा है। जिन राज्यों में जमींदारी प्रथा का उन्मूलन सही दिशा में हुआ, उनको छोड़ अधिकतर राज्यों में जमीन के बड़े हिस्से पर मुट्ठी भर किसानों का कब्जा है और उनके नीचे हैं बेहद विपन्न या छोटे रकबे वाले किसान और फिर विशाल भूमिहीन मजूरों की फौज। विनोबा का भूदान हो या भूमिहीनों को जमीन का पट्टा देने का सरकारी प्रयास, अब तक विफल ही रहा है।

हाल में जो आंकड़े आए हैं उनमें इस बात का खुलासा भी हुआ है। तीस फीसद ग्रामीण आबादी भूमिहीन है। कभी जोर-शोर से यह नारा लगाया जाता था कि ‘जो जमीन को जोते बोए, वह जमीन का मालिक होए।’ लेकिन यह नारा कभी जमीन पर उतर नहीं पाया। यह भी हकीकत है कि आदिवासियों को छोड़ छोटी जोत के मालिक अधिकतर किसान कब के खेती छोड़ दिहाड़ी मजदूर बन चुके। क्योंकि खेती करना उनके बस का नहीं। उससे उनका पेट ही नहीं भरता। इसके अलावा वह अब महंगी भी हो चुकी है। खेती तो अब वैसे ही किसान करते हैं जिनके पास जमीन का अपेक्षाकृत बड़ा रकबा है और जो मजूर रखने और बीज, खाद, पानी, डीजल, बिजली आदि के खर्च उठा सकें।

इसी सामाजिक-आर्थिक ढांचे में अवतरित होता है यह दर्शन कि कृषि तो अलाभकारी है और उसे लाभकारी बनाने के लिए उसका व्यवसायीकरण जरूरी है। और यह होगा कैसे? जमीन की क्षमता का अधिकतम दोहन कर। परंपरागत बीजों की जगह बहुदेशीय कंपनियों द्वारा आयातित बीज और रासायनिक खादों के इस्तेमाल से। कीटनाशकों के बड़े पैमाने पर इस्तेमाल से। यह एक वास्तविकता है कि नए किस्म के बीजों और रासायनिक खादों, खासकर यूरिया के प्रयोग से उपज बढ़ी। लेकिन खेती बेहद महंगी हो गई।

देश के बड़े भू-भाग में धान की खेती होती है। अपने देश में धान के बीजों के विविध प्रकार थे। किसान फसल का एक हिस्सा बीहन के लिए बचा कर रखता था। लेकिन बाजार में उपलब्ध बीजों का प्रचलन होते ही पुराने बीजों का प्रचलन खत्म हो गया। घरेलू बीज और बाजार के बीज की कीमत में अंतर क्या है? बिहार और झारखंड में धान नौ रुपए किलो बिकता है, जबकि बाजार का बीहन 270-280 रुपए किलो। देशी बीज गोबर की खाद और अपेक्षाकृत कम पानी में भी फसल देते हैं, जबकि बाजार के बीजों के लिए रासायनिक खाद, भरपूर पानी और कीटनाशक जरूरी।

परिणाम यह हुआ कि उपज तो बढ़ी, लेकिन बाजार पर निर्भरता भी। हुआ यह भी कि नगदी फसलों का प्रचलन बढ़ा। दलहन की खेती कम होने लगी। बहुत सारी ऐसी फसलें जो प्रतिकूल मौसम में भी पैदा हो जाती हैं और चावल, गेहूं जैसे अनाजों का विकल्प बनती हैं, उनका उत्पादन बेहद कम हो गया। गन्ना, कपास जैसी नगदी फसलों की खेती की तरफ किसानों का झुकाव हुआ। इसका परिणाम क्या हुआ उसे कपास के मामले में हम देख सकते हैं, जिसे उपजाने वाले किसानों ने सर्वाधिक आत्महत्याएं कीं।

कपास की उपज में वृद्धि के लिए बीटी कॉटन के नाम से एक नया बीज बाजार में उतारा गया। प्रचार यह किया गया कि परंपरागत बीजों की तुलना में इससे तिगुनी फसल होती है। लेकिन ये बीज सामान्य बीजों से काफी महंगे मूल्य पर उपलब्ध होते हैं। महंगे बीज के लिए महाजन से कर्ज लिया। एक जांच समिति ने अपनी रिपोर्ट में 2012 में हुई अत्यधिक आत्महत्याओं की वजह नए बीटी बीजों को बताया। इसकी पुष्टि इस तथ्य से होती है कि पिछले कई वर्षों से विदर्भ और मराठवाड़ा से सर्वाधिक आत्महत्या की खबरें आ रही हैं, जहां के किसान कपास उगा रहे हैं।

सवाल यह है कि किसानों को कपास उगाने के लिए कहता कौन है? यह बाजार कहता है। बाजारवादी व्यवस्था अपने हिसाब से किसानों को फसल उगाने के लिए कहती है। उसके लिए तरह-तरह के प्रलोभन और कर्ज देती है, और किसान उनके झांसे में आ जाते हैं। फिर उनके हाथों में खेलने लगते हैं। क्योंकि उपज की कीमत भी बाजार तय करता है। फिर शुरू होती है सरकारी हस्तक्षेप की मांग। सरकार कीमत तय करे। समर्थन मूल्य घोषित करे। कर्ज माफ करे, वगैरह। लेकिन समस्या जस की तस बनी रहती है।

इस तरह हम देखें तो कृषि क्षेत्र की बहुत सारी समस्याएं जो आज विकराल दिखाई देती हैं, उसकी एक प्रमुख वजह यह है कि कृषि क्षेत्र का बड़ी तेजी से व्यवसायीकरण हो रहा है। बाढ़, सुखाड़, अनावृष्टि, अतिवृष्टि आदि से तो भारतीय किसान सदियों से जूझता रहा है, लेकिन जिस तरह किसानों की आत्महत्याओं की खबर नब्बे के दशक से बड़े पैमाने पर आने लगी हैं, वैसा पहले नहीं था। तबाही पहले भी मचती थी। लेकिन आत्महत्या पर उतारू हो जाए किसान, यह हमारे दौर की एक परिघटना है।
याद कीजिए भारत में अंगरेजी हुकूमत के दौरान बंगाल में दो दशक के अंतराल पर पड़े अकाल को। लाखों लोग भूख से मर गए। लेकिन आत्महत्या की घटनाएं उस वक्त भी विरल थीं। याद कीजिए निर्यातोन्मुख कृषि क्षेत्र के लिए पंजाब में अंगरेजों द्वारा किए गए प्रयोगों को।

घरेलू उपयोग में आने वाली खाद्य फसलों की जगह सरकार के प्रोत्साहन से नगदी फसलें उगाए जाने की शुरुआत। कानूनों, अदालतों और वकीलों के तंत्र द्वारा बाजार में हुआ धन प्रवाह। नगद आमदनी और उधार की सुविधा से सूदखोरों-महाजनों की संख्या में हुई वृद्धि और किसानों का कर्ज में डूब कर तबाह होना। 1893 में वित्त आयोग ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा था- ‘विस्तृत क्षेत्र में किसान इस कदर बरबाद हो चुके हैं कि उन्हें अब उबार पाना संभव नहीं।’ लेकिन उस वक्त भी किसानों की आत्महत्या की घटनाएं कभी-कभार ही होती थीं।

क्या यह महज इत्तिफाक है कि नरसिंह राव के जमाने में नई औद्योगिक नीति, उदारीकरण और निजीकरण के दौर के साथ किसानों की आत्महत्या की खबरें आनी शुरू हो गर्इं। शुरुआती दौर में तो इसे किसी ने तवज्जो नहीं दी, लेकिन धीरे-धीरे इन मौतों से आंख चुराना समाज के प्रभुवर्ग के लिए मुश्किल हो गया। दरअसल, नई आर्थिक नीति घोषित रूप से न सिर्फ उद्योगोन्मुख विकास की वकालत करती है, बल्कि ऐसा वातावरण भी बनाती है जिसमें मुनाफा ही सब कुछ होता है।

क्या यह विडंबना नहीं कि जो राज्य शिक्षा, प्रतिव्यक्ति आय, टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल आदि में आगे हैं, सर्वाधिक आत्महत्याएं वहीं हो रही हैं। 2012 में 13754 किसान आत्महत्या की घटनाएं सामने आर्इं और उनमें छिहत्तर फीसद आत्महत्याएं महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, केरल और मध्यप्रदेश में हुर्इं। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, ओड़िशा, सिक्किम, मेघालय, उत्तराखंड, मिजोरम जैसे पिछड़े राज्यों में किसान आत्महत्याएं तुलनात्मक दृष्टि से कम हुई हैं।

आदिवासी इलाकों में तो ऐसी घटनाएं विरल हैं। आप कह सकते हैं कि आदिवासी तो पत्ता खाकर भी जीवित रह लेगा, उसका क्या है। लेकिन यह परले दर्जे की संवेदनहीनता होगी। मामला दरअसल जीवन दृष्टि का है। प्रकृति-प्रदत्त साधनों का आप किस तरह दोहन करते हैं। धरती से आपका रिश्ता कैसा है। उन्हें प्रकृति से उतना ही चाहिए जितने की उन्हें जरूरत है। सामान्य जन की कोशिश यह भी रहती है कि कर्ज के बगैर काम चल जाए। खेती के समय पूरा आदिवासी परिवार खेती में लगता है। दिहाड़ी मजूरों की बदौलत वह खेती नहीं करता। बीज भी वह कुछ समय पहले तक बचा कर रखता था। महंगी रासायनिक खादों का वह इस्तेमाल नहीं करता। हम कह सकते हैं कि पिछड़े राज्य बाजारवाद के शिकंजे में कम फंसे, विकसित राज्य अधिक, और परिणाम सामने है।

कृषि को बचाना है तो सिंचाई सुविधाओं को प्राथमिकता के आधार पर बढ़ाना होगा। पर्यावरण को बिगड़ने से बचाना होगा। विदेशी बीज, खाद, कीटनाशकों की जगह थोड़ी पुरानी नजर आने वाली परंपरागत आत्मनिर्भर खेती की ओर लौटना होगा। और इस तथ्य को समझना होगा कि खेती व्यवसाय के लिए नहीं, अपना और दूसरों का पेट भरने के लिए है। जीने की एक पद्धति है।

विनोद कुमार

 

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