अभिषेक श्रीवास्तव
‘कश्मीर के महाराजा क्षत्रियों के सूर्यवंश से आते हैं, जो राजपूतों का सबसे प्राचीन और प्रतिष्ठित वंश है। यही वह वंश था जिसने इस विश्व को रामायण का महान नायक मर्यादा पुरुषोत्तम राम दिया। हमें इसमें कोई संदेह नहीं है कि विशेषकर हिंदुस्तान के राजपूत प्रांत और अपने शौर्य के लिए प्रसिद्ध विशाल राजपूत जनता इस मौके पर कश्मीर की रक्षा के लिए खड़ी होगी और कश्मीर से लुटेरों को मार भगाने के लिए भारत की सरकार को हरसंभव मदद देगी।’ (सत्यानंद शास्त्री, ‘इम्पॉर्टेन्स आॅफ कश्मीर’, 6 नवंबर 1947, आॅर्गनाइजर, पुनर्प्रकाशित 9 नवंबर, 2014)
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने एक हिंदू शासक द्वारा शासित स्वतंत्र और संप्रभु जम्मू-कश्मीर की उस समय वकालत की थी जब यह संभावना दिख रही थी कि यह प्रांत पाकिस्तान में चला जाएगा। भारत ने 15 अगस्त 1947 को जब अंग्रेजों के शासन से आजादी की घोषणा की, उस रात जम्मू में खूब पटाखे छूटे थे- यह जश्न भारत की आजादी का नहीं बल्कि राजा हरि सिंह के मातहत जम्मू और कश्मीर की आजादी को मनाने के लिए था। ‘‘महाराजा समर्थक संगठनों जैसे हिंदू राज्य सभा और आरएसएस ने महाराजा के ध्वज के साथ शहर की सड़कों को ऐसे बैनरों से पाट दिया जो हरि सिंह के ‘महाराजाधिराज जम्मू, कश्मीर, लद््दाख, तिब्बत आदि’ की मुनादी कर रहे थे। ये बैनर स्वतंत्र जम्मू और कश्मीर का जश्न मना रहे थे और आरएसएस इस भावना के प्रदर्शन में सबसे आगे था’’ (वेद भसीन, वरिष्ठ पत्रकार, ग्रेटर कश्मीर)।
दिलचस्प यह रहा कि सत्ता हस्तांतरण के बाद जब शेख मोहम्मद अब्दुल्ला को आपात प्रशासक के रूप में यहां बैठा दिया गया, तब आरएसएस और महाराजा समर्थक ताकतों ने शहर में फहराया हुआ भारतीय तिरंगा फाड़ डाला और उन लोगों पर हमला किया जिन्होंने इसे फहराया था। ‘‘शेख मोहम्मद अब्दुल्ला के नेतृत्व में जनता की चुनी हुई सरकार बनने के बाद जब छात्रसंघ ने प्रिंस आॅफ वेल्स कॉलेज पर भारत और नेशनल कॉन्फें्रस का झंडा फहराया, तो उसे आरएसएस के समर्थकों ने अगली सुबह फाड़ दिया और छात्रसंघ के कार्यकर्ताओं पर हमला कर दियाह्णह्ण (वेद भसीन तब छात्रसंघ के पदाधिकारी हुआ करते थे)।
आरएसएस के एजेंडे में जम्मू और कश्मीर कितना अहम था, इसका पता इस तथ्य से लगता है कि जब भारत सरकार ने राजा हरि सिंह पर विलय के लिए दबाव बनाया था, तब भी संघ ने ही इस मामले में वल्लभभाई पटेल से मध्यस्थता की थी, जो खुद कश्मीर को ‘मुसलिम पड़ोस से घिरा हिंदू राज्य’ मानते थे। इस मध्यस्थता का नतीजा रहा कि 18 अक्तूबर, 1947 को आरएसएस के सरसंघचालक गुरु गोलवलकर को विशेष विमान से श्रीनगर भेजा गया ताकि वे महाराजा को भारत में विलय के लिए राजी कर सकें।
इस घटना के दो सप्ताह बाद 6 नवंबर, 1947 के ‘आॅर्गनाइजर’ के अंक में सत्यानंद शास्त्री के नाम से ‘इम्पॉर्टेन्स आॅफ कश्मीर’ शीर्षक से जो संपाद्रीय प्रकाशित हुआ, वह इस बात का सबूत था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ‘हिंदू राष्ट्र’ की परिकल्पना में कश्मीर एक ऐसा रिसता हुआ नासूर है जो इतनी जल्दी भरने वाला नहीं, लेकिन आज नहीं तो कल जब कभी हिंदू राष्ट्र की परियोजना का राजनीतिक अनावरण होगा, उसका पहला निशाना कश्मीर ही होगा। फिर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि ‘आॅर्गनाइजर’ के 9 नवंबर, 2014 के अंक में यानी जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के पहले चरण से ठीक पहले 67 साल पुराने इस संपाद्रीय को दोबारा प्रकाशित किया गया। इतना ही नहीं, ‘आॅर्गनाइजर’ के नवंबर-दिसंबर, 2014 के अंकों को देखें तो जान पाएंगे कि ‘इतिहास के पन्नों से’ नामक स्तम्भ में बार-बार 1947 में कश्मीर पर छपी सामग्री को दोबारा प्रकाशित किया गया है, जिसमें एक बलराज मधोक का लेख भी है।
संघ की हिंदू राष्ट्र की परियोजना में कश्मीर की ऐतिहासिक अहमियत को गिनाने की वजह आज बिल्कुल साफ है। उसका सदियों पुराना नासूर अब पक कर फूट चुका है जिसका मवाद झारखंड से लेकर आगरा-अलीगढ़ तक मुसलसल बह रहा है। जरूरत है कि धर्मांतरण, बहुप्रचारित ‘घर वापसी’ और हिंदू राष्ट्र की दक्षिणपंथी परियोजना को जम्मू और कश्मीर में खड़े होकर देखा जाए। फिलहाल तो खबर यही है कि जम्मू-कश्मीर विधानसभा में 2002 में जिस भारतीय जनता पार्टी की महज एक सीट थी, वह 2008 में ग्यारह से होते हुए अब बढ़ते-बढ़ते पच्चीस पर पहुंच गई है।
अहम सवाल यह नहीं है कि भाजपा राज्य में सरकार बनाती है या नहीं। न भी बने तो क्या, उसका काम वहां एजेंडे के मुताबिक आगे बढ़ रहा है इतना तय है। हमें लगातार टीवी चैनलों से बताया जा रहा है कि भाजपा मिशन 44+ के एजेंडे से चूक गई; नरेंद्र मोदी की घाटी में हुई रैली बेकार रही; भाजपा का घाटी और लद््दाख में खराब प्रदर्शन रहा; और इस तरह हमें दिलासा दिलाने की कोशिश की जा रही है कि नरेंद्र मोदी-आरएसएस-भाजपा का अगर कोई शैतानी एजेंडा था भी, तो उसकी हवा निकल गई है।
दरअसल हुआ इसका उलटा है। भाजपा ने संघ के बुनियादी एजेंडे के मुताबिक ‘जम्मू और कश्मीर’ को ‘जम्मू बनाम कश्मीर’ में बांट दिया है। गौरतलब कि भाजपा को इस विधानसभा चुनाव में सबसे ज्यादा वोट मिले हैं- तेईस फीसद। इसके बाद 22.6 फीसद के साथ पीडीपी दूसरे स्थान पर है। सबसे ज्यादा वोट जो भाजपा को आए हैं, अधिकतर जम्मू क्षेत्र से हैं जहां हिंदू रहते हैं। मुसलिम बहुल घाटी ने भाजपा को खारिज किया है। क्या इसमें कुछ भी अस्वाभाविक लगता है? कतई नहीं!
दिल्ली की कुर्सी पर बैठने के बाद से नरेंद्र मोदी का एजेंडा यही तो था। वे मुसलिम वोटों की चाहत में बार-बार कश्मीर नहीं जा रहे थे। उनका एजेंडा हिंदू वोटों को दृढ़ करना था। क्यों? इसका जवाब जानने के लिए एक बार फिर ‘आॅर्गनाइजर’ को देखते हैं जिसके ताजा अंक में 8 जनवरी, 1948 को छपा बलराज मधोक का एक वक्तव्य दोबारा प्रकाशित किया गया है। प्रजा परिषद, जम्मू के तत्कालीन सचिव मधोक कहते हैं, ‘‘…यह स्पष्ट है कि कश्मीर के संदर्भ में इकलौता आशाजनक और निर्भरता-योग्य कारक हिंदू बहुल आबादी वाला जम्मू है। यह कश्मीर और हिंदुस्तान के बीच एकमात्र संपर्क सूत्र है। इसके लोगों का हिंदुस्तान के साथ महज आर्थिक नहीं बल्कि कहीं व्यापक रिश्ता रहा है…।’’
इसके लोग कौन हैं, इस बारे में कश्मीर के इकलौते समाधान का जिक्र करते हुए मधोक आगे लिखते हैं, ‘‘…इस कठिन परिस्थिति का एकमात्र समाधान यह है कि जम्मू के डोगरा लोगों में इस भावना का संचार किया जाए कि वे अपनी धरती पर अपनी ही नियति के स्वामी हैं, ताकि हालिया राजनीतिक और सैन्य झटकों के कारण उनके भीतर जो पस्तहिम्मती पैदा हुई है उसे दूर किया जा सके।’’ संघ के किसी भी नेता का कोई भी ऐतिहासिक दस्तावेज कश्मीर पर उठा कर देख लें, सिर्फ जम्मू और उसके निवासियों की बात की गई है। कहीं भी चार सौ अस्सी वर्ष लंबे मुसलिम शासन (1339-1819) और यहां की आबादी में मुसलिम बहुसंख्यकों का जिक्र नहीं है। वजह साफ है। जिस तरह वे समूचे भारत के लिए मुसलिमों को बाहरी मानते हैं, वही बात यहां भी लागू होती है। फर्क बस रणनीति का है।
देश भर में धर्मांतरण को लेकर पिछले दिनों जिस किस्म का हल्ला मचा है, जैसे बयान आए हैं, आगरा में दो सौ मुसलमानों की जिस तरह ‘घर वापसी’ की गई है और धर्म जागरण समिति के बारे में जो नई सूचनाएं आई हैं, वे इस मायने में कश्मीर के बरक्स ‘सामान्य’ कही जा सकती हैं क्योंकि बाकी जगहों पर आबादी में बहुसंख्यक मुसलमान नहीं, हिंदू हैं। जैसा कि हम देख रहे हैं, हिंदू बहुसंख्यकों के बीच अल्पसंख्यकों की ‘घर वापसी’ का एजेंडा तो आसानी से लागू किया जा सकता है, थोपा जा सकता है, लेकिन जहां मुसलिम बहुसंख्यक हों वहां यह रणनीति काम नहीं कर सकती।
जम्मू-कश्मीर की अपनी परियोजना में संघ ने इसीलिए कभी भी मुसलमानों का जिक्र नहीं किया। इस राज्य में संघ की पहली शाखा जम्मू में 1942 में खुली थी। तब से लेकर अब तक ‘जम्मू के डोगरा लोगों में इस भावना का संचार’ किया जा रहा था कि ‘वे अपनी धरती पर अपनी ही नियति के स्वामी हैं’। दिसंबर 2014 के विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद यह चरण पूरा हो चुका है। अब आगे क्या होगा?
बलराज मधोक अपने उक्त वक्तव्य में (8 जनवरी 1948, आॅर्गनाइजर) कहते हैं कि जम्मू की जनता में अपनी धरती पर अपनी नियति का स्वामी होने की भावना जगाने का सबसे बढ़िया तरीका यह है कि ‘‘जम्मू प्रांत को लद््दाख के साथ मिलाकर एक स्वायत्त प्रशासकीय इकाई बना दिया जाए। यह सबसे समझदारी भरा और लोकतांत्रिक फैसला होगा क्योंकि जम्मू प्रांत और लद््दाख के लोग हर परिस्थिति में हिंदुस्तान का हिस्सा बने रहने के लिए संकल्पित हैं। ऐसा जब हो जाएगा, तब जम्मू के लोग प्रजा परिषद के माध्यम से उस अनिवार्य संकल्प को विकसित कर सकेंगे जिसकी मदद से लुटेरों को मार भगाया जाएगा और अपनी धरती के एक-एक इंच को मुक्त कराया जा सकेगा।’’
इसका अर्थ यह हुआ कि जम्मू और कश्मीर को लेकर संघ की आरंभिक योजना का पहला चरण पच्चीस सीटों के साथ अब चूंकि पूरा हो चुका है, इसलिए राज्य को धार्मिक आधार पर विभाजित करने का दूसरा चरण अब शुरू होगा। विडंबना यह है कि यह चरण संघ के मुताबिक ‘समझदारी भरा और लोकतांत्रिक’ होगा। इस चरण के पूरा होने के बाद ‘लुटेरों को मार भगाने’ और ‘अपनी धरती का एक-एक इंच मुक्त कराने’ का तीसरा चरण आएगा जिसके लिए जम्मू-लद््दाख की ‘अपनी जनता’ में संकल्प जगाने का काम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और अन्य हिंदू संगठन भाजपा के राजनीतिक नेतृत्व में करेंगे। बलराज मधोक के वक्तव्य में सिर्फ एक तब्दीली की जरूरत है- ‘प्रजा परिषद’ की जगह ‘आरएसएस’ को रख दीजिए।
इस साल दो बड़ी घटनाएं ऐसी हुई हैं जो संघ के एजेंडे को आगे बढ़ाती हैं। पहली घटना केंद्र की सत्ता पर भाजपा का बहुमत के साथ कब्जा है और दूसरी घटना जम्मू के वोटों के आधार पर उसे विधानसभा चुनाव में मिली पच्चीस सीटें हैं। दोनों घटनाएं सतह पर राजनीतिक प्रतिनिधित्व को दिखाती हैं- राष्ट्रीय स्तर पर बहुसंख्यक हिंदू के प्रतिनिधित्व को और राज्य के स्तर पर अल्पसंख्यक हिंदू के प्रतिनिधित्व को। चूंकि यह राजनीतिक प्रतिनिधित्व दोनों ही जगहों पर हिंदुओं को लोकतांत्रिक पद्धति से हासिल हुआ है, इसका मतलब यह कि मई 2014 में राष्ट्रीय स्तर पर शुरू हुई हिंदू एकजुटता आज अपने सबसे संकटग्रस्त क्षेत्र यानी जम्मू-कश्मीर में भी कामयाब हो चुकी है। वहां सरकार किसी की भी बने, जनादेश ‘हिंदू राष्ट्र’ के उनके मंसूबे को ही आगे बढ़ाएगा। भाजपा में जश्न का यही सबब है।
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