इधर भारतीय मौसम विभाग जब ‘सूखे’ की शब्दावली में फेरबदल की कवायद में लगा हुआ था, कृषि विशेषज्ञों ने चेता दिया कि सर्दी के दिनों में गर्मी का अहसास कराता मौसम असल में हमारी खेती के लिए नए संकट खड़े करने जा रहा है। बीते दिसंबर से लेकर जनवरी के पहले पखवाड़े में उत्तर भारत में सर्दी और बारिश के कोई आसार नहीं बने, जिसका सीधा मतलब रबी की मुख्य फसल गेहूं की कम बुआई के रूप में निकलता है। बुआई कम होने का अर्थ पैदावार में कमी से है। पर मौसम इतना बदला क्यों? मौसम विभाग का मत है कि यह उलटफेर अलनीनो की वजह से हुआ है, जो पिछले साल से लगातार सक्रिय है। सवाल है, क्या हमारे पास अलनीनो से निपटने का कोई उपाय है?
जाड़े के दिनों में बेढब तेवर दिखलाते मौसम से खेती का क्या बिगड़ता है, यह पिछले साल साबित हो चुका है। बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि से पंजाब और कई उत्तर भारतीय राज्यों में रबी की फसल तबाह हो गई थी। सबसे ज्यादा नुकसान गेहूं की खेती को हुआ था। इस दफा भी सर्दी के दौरान खेती के लिए जरूरी बारिश तकरीबन नदारद ही रही है। ठंड के दिनों में तापमान का ऊंचा रहना एक बार फिर थोड़े अलग ढंग से गेहूं के लिए चुनौती पैदा कर रहा है। खेती के जानकारों के अनुसार, अगर सर्दी के मौसम में तापमान औसत से एक डिग्री सेल्सियस भी ऊपर बना रहता है, तो इसका मतलब गेहूं की पैदावार में दो फीसद कमी के रूप में निकलता है। इस साल हाल तक भारत के अधिकांश इलाकों में औसत तापमान बीस डिग्री से ज्यादा ही रहा है और किसी-किसी दिन पारा तीस डिग्री और उसके ऊपर भी पहुंचा है। जबकि गेहूं के लिए रबी सीजन में तापमान पंद्रह डिग्री से ज्यादा नहीं होना चाहिए। सर्दी के दौरान होने वाली बारिश भी लापता है, जिससे जमीन में आर्द्रता (नमी) घट गई है जो गेहूं समेत रबी की अन्य फसलों के लिए नुकसानदेह है।
गर्म मौसम और बारिश की कमी के चलते किसानों ने भी गेहूं की बुआई से हाथ खींच लिए। आंकड़ों में देखें, तो इस बार सिर्फ 282 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में गेहूं बोया गया, जो पिछले साल के मुकाबले अठारह-बीस लाख हेक्टेयर कम है। यही हाल रबी की अन्य फसलों की बुआई का है। ये फसलें इस दफा 565 लाख हेक्टेयर में बोई गई हैं, जबकि पिछले साल इनका कुल रकबा 582 लाख हेक्टेयर था। किसान भी आशंकित हैं कि अगर उन्होंने ज्यादा बड़े इलाके में बुआई कर दी, तो मौसम की तब्दीली के कारण उनका हाल पिछली बार जैसा ही न हो।
मौसमी इतिहास में वर्ष 2016 को अब तक का सबसे ताकतवर अल नीनो की जमीन तैयार करने वाला माना जा रहा है। इसकी वजह से 2015 अब तक सबसे गर्म वर्ष साबित हो चुका है। अब संकट मौजूदा साल पर है। विश्लेषक तो अल नीनो के कारण कई उष्ण कटिबंधीय देशों में होने वाली वर्षा में बीस से तीस फीसद की गिरावट का अनुमान लगा रहे हैं। मोटा अंदाजा यह है कि इस साल भी भारत में मानसून सामान्य से पंद्रह प्रतिशत कम रह सकता है। इसी तरह आस्ट्रेलिया और ब्राजील भी सूखे की मार झेल सकते हैं। कैरीबिया, केंद्रीय और दक्षिण अमेरिका जैसे इलाके भी अगले छह महीनों में प्रभावित होंगे, पर सबसे ज्यादा असर अफ्रीका पर पड़ने की आशंका है। मौसम के इस बदलाव के कारण यह साल भुखमरी और उष्ण कटिबंधीय बीमारियों की चपेट में आ सकता है, पर अंतरराष्ट्रीय सहायता एजेंसियों की चिंता इससे भी बढ़ कर है। जैसे कि आॅक्सफैम का मत है कि 2016 में अल नीनो के असर से सीरिया, दक्षिणी सूडान और यमन के लोगों की मुसीबतें और बढ़ेंगी और उन्हें पलायन के लिए मजबूर होना पड़ेगा।
प्रशांत महासागर के पानी को गर्माने वाली और हर दो से सात साल के अंतराल पर पैदा होने वाली यह मौसमी परिघटना पूरी दुनिया का तापमान बढ़ाने के लिए जिम्मेदार मानी जाती है। इसकी वजह से मौसम चक्र बदल जाते हैं और सूखे-बाढ़ के हालात पैदा होते हैं। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा को उपग्रहों से जो चित्र मिले हैं, उनके आकलन पर दावा किया गया है कि पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध में अभी से खतरनाक स्थितियां बन गई हैं। सबसे ज्यादा ठंडे रहने वाले उत्तरी ध्रुव में तापमान बढ़ा हुआ है, जिसका असर भारत में महसूस किया जा रहा है।
पिछले एक दशक में अल नीनो का सबसे खराब असर हमारे देश ने 2009 में भुगता था। उम्मीद से कम बारिश हुई थी और देश के कई हिस्सों में सूखे व अकाल के हालात पैदा हो गए थे। धान और गन्ने की उपज बुरी तरह प्रभावित हुई थी। भारत को चीनी आयात करनी पड़ी थी और विश्व भर में चीनी के दाम तीस प्रतिशत तक बढ़ गए थे। समुद्र की सतह के असामान्य रूप से ठंडा व गर्म होने की मौसमी परिघटना यानी अल नीनो की सक्रियता की आशंका आधारहीन नहीं लगती है। इसके प्रभाव से जब समुद्र का पानी असामान्य रूप से गर्म होता है तो इसके असर से मानसूनी हवाओं के बनने की प्रक्रिया मंद पड़ जाती है। यही नहीं, इन हवाओं की दिशा में बदलाव आ जाते हैं जिससे मानसूनी बादलों को देश के जिन हिस्सों में जिस वक्त पहुंचना चाहिए, उस वक्त वे वहां पहुंच नहीं पाते हैं।
ऐसी स्थिति में खेतों में खड़ी फसल सूख जाती है। पिछले दो-एक साल से पूरी दुनिया में तूफानों की बारंबारता और बर्फबारी के सिलसिले को देखते हुए कहा जा सकता है कि बारिश पर असर डालने वाले अल नीनो को लेकर जो आशंका वैज्ञानिकों ने व्यक्त की है, वह एक सच्चाई में तब्दील हो सकती है। यदि ऐसा हुआ तो मौजूदा फसल वर्ष का उत्पादन बुरी तरह प्रभावित हो सकता है। मौसम में हो रहे इस उतार-चढ़ाव के जारी रहने पर गेहंू,चना, सरसों आदि की फसलों को भी भारी नुकसान पहुंच सकता है।
खराब मौसम का सीधा असर देश की ग्रामीण जनता की क्रय-क्षमता पर पड़ता है, जो पारंपरिक तौर पर साठ फीसद उपभोक्ता वस्तुओं की खरीदार है। वर्षा कम रहने पर सामान्यत: कुछ महीनों के अंतराल पर ग्रामीण मांग मद्धिम पड़ जाती है। ध्यान रखना होगा कि भारतीय अर्थव्यवस्था ज्यादातर घरेलू प्रभावों पर टिकी है और इस खूबी के कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था में मंदी के बावजूद इसकी रफ्तार कुछ अरसे से थमी नहीं है। लेकिन अगर हमारी खेती को मौसमी बदलावों का लगातार सामना करना पड़ता है, तो इसकी यही विशेषता हम पर भारी पड़ सकती है।
हमारे देश में आज भी ज्यादातर इलाकों में हजारों लोगों को अपने जीवन में सबसे ज्यादा संघर्ष मौसम की प्रतिकूल स्थितियों से निपटने के लिए करना पड़ता है। इसलिए अब एक जरूरी तब्दीली बारिश के बदलते पैटर्न के हिसाब से फसल उत्पादन का चक्र सुधारने और अन्य व्यवस्थाएं बनाने में भी होनी चाहिए। हम इस सच्चाई से मुंह नहीं फेर सकते कि अल नीनो जैसी चेतावनियां हमारे देश के लिए इसीलिए समस्या हैं कि सिंचाई के लिए बारिश पर हमारी निर्भरता घटाई नहीं की जा सकी है। आजादी के साढ़े छह दशक बाद भी हमारे योजनाकारों ने मानसून के पैटर्न में बदलाव की घटनाओं से कोई सबक नहीं लिया है।
किसी साल सूखे के बाद भारी वर्षा होने से शुष्क क्षेत्रों में बाढ़ आ जाती है तो किसी साल पूरा मानसून सीजन बारिश की आस में ही बीत जाता है। आज भी हमारे पास इसकी कोई ठोस योजना नहीं है कि देश के किसी इलाके में आई बाढ़ से जमा हुए पानी का क्या किया जाए, कैसे उसे उन इलाकों में पहुंचाया जाए जहां उसकी जरूरत है। विडंबना यह है कि देश में वर्षा आधारित फसलों पर से अपनी निर्भरता कम करने का कोई प्रयास होता नहीं दिखाई दे रहा है। वर्षा के दौरान नदी-नालों में बह कर यों ही बर्बाद हो जाने वाले पानी के संग्रहण की कोई उचित व्यवस्था देश में अब तक नहीं बन पाई है। यह एक तथ्य है कि असामान्य सूखे की स्थिति में भी राजस्थान और गुजरात के कुछ इलाकों को छोड़ कर सौ से दो सौ मिलीमीटर बारिश तो होती ही है। खराब मानसून के दौरान पहाड़ों में भी चार-पांच सौ मिलीमीटर बारिश हो ही जाती है, जो अच्छे मानसून के दौरान बढ़ कर दो हजार मिलीमीटर के आंकड़े तक पहुंच जाती है।
इस तरह वर्षा से मिलने वाले पानी की मात्रा सिंचाई और पेयजल की हमारी कुल जरूरतों के मुकाबले कई गुना ज्यादा होती है। गांवों में औसतन जितनी वर्षा होती है, यदि उसका महज चौदह-पंद्रह फीसद हिस्सा सहेज लिया जाए तो वहां सिंचाई से लेकर पेयजल तक की सारी जरूरतें पूरी हो सकती हैं। ऐसे प्रबंध बड़े पैमाने पर हों, तो न अल नीनो का भय सताएगा और न ही सिंचाई और पीने के पानी के संकट की बात किसी अनहोनी की तरह लगेगी। बहरहाल, मौसम विभाग को चाहिए कि आंकड़ों के हेरफेर से ‘सूखे’ को अपनी शब्दावली से बाहर करते हुए उसकी जगह ‘अति कम बारिश’ जैसी बाजीगरी करने की अपनी योजना पर अमल के साथ-साथ वह किसानों को फसल चक्र में सुधार की तरकीबें बताए और सिंचाई के ऐसे साधन उपलब्ध कराए कि बारिश पर उनकी निर्भरता कम हो सके।