विकास नारायण राय

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के उत्तर में, महाराणा प्रताप अंतरराज्यीय बस अड्डे से पचास किलोमीटर पर, हरियाणा के सोनीपत जिले के गोहाना कस्बे में पंजाब नेशनल बैंक का लॉकर-कक्ष सत्ताईस अक्तूबर को लुटा मिला। लॉकर-मालिकों ने सौ करोड़ के नुकसान का दावा किया, जबकि बैंक ने तुरंत बैंकिंग नियमों का हवाला देते हुए क्षतिपूर्ति से पल्ला झाड़ लिया। इसने असुरक्षा के माहौल में अनिश्चितता और उत्तेजना बढ़ाने का काम किया। एक दिन पहले ही राज्य की पहली भाजपा सरकार ने विकास के एजेंडे और कानून-व्यवस्था दुरुस्त करने के दावों के बीच सत्ता की बागडोर संभाली थी। राज्य पुलिस के मुखिया, डीजीपी वशिष्ठ को स्वयं मौके पर आना पड़ा। उन्होंने एक विशेष जांच दल तो बनाया ही, साथ ही सुराग देने पर दस लाख के इनाम की घोषणा भी कर दी।

पुलिस को ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा। तीन दिन में ही अपराधियों की गिरफ्तारी और लूट के माल की बरामदगी का सिलसिला शुरू हो गया। सोनीपत के ही कटवाल गांव के बेरोजगार नौजवानों ने बगल की बंद पड़ी इमारत से अस्सी फुट लंबी सुरंग खोद कर इस वारदात को दो रात पहले अंजाम दिया था। उनकी योजना एक अंतराल के बाद जेवरात गला कर बेचने की थी ताकि खरीदने वाले सुनारों को स्रोत की भनक न हो, पर पुलिस की फुर्ती ने उस पर पानी फेर दिया। अब तय है कि जहां इन अपराधियों के सालों-साल जेल में गुजरेंगे वहीं लॉकर-मालिकों का लुटा माल भी उन्हें वापस मिल जाएगा।

गोहाना मामले को इतनी तवज्जो दी गई थी कि, राज्य का विषय होते हुए भी, भारत सरकार के गृह मंत्रालय से संयुक्त खुफिया प्रमुख (ज्वाइंट इंटेलिजेंस चीफ) टोह लेने वहां पहुंचे कि कहीं इस लूट के पीछे कोई आतंकी पेच न होे। भारतीय कानून में बैंक लूटना एक संगीन अपराध है और वयस्क अपराधियों के लिए कोई छूट भी नहीं है। भारतीय जेलों में जैसा वातावरण है, ये दुस्साहसी नौजवान वहां से कहीं अधिक शातिर अपराधी बन कर बाहर आएं तो कोई आश्चर्य नहीं। वैसे हरियाणा के ग्रामीण इलाकों में बुरी तरह बिगड़े बालकों को भी परिवार का समर्थन बना रहता है और यह कभी-कभी उनके सुधरने में सहायक सिद्ध हो जाता है।

पर फिलहाल यह सब गौण है। समाज को उद्वेलित करने वाला एक संगीन अपराध सबके सामने था, अपराधी भी तुरंत पकड़े गए, पुलिस सजग सिद्ध हुई, जनता में नए शासन के प्रति विश्वास बना। आइए इस परिदृश्य की तुलना परिमाण में हजारों गुना बड़ी बैंक-लूट से करके देखें, जो देश के वित्तमंत्री और रिजर्व बैंक के गवर्नर की जानकारी में है, जिसके अपराधियों का पता है पर उन्हें छूट ही छूट है; जिसमें बैंक के शीर्ष अधिकारी शामिल हैं पर जवाबदेह नहीं; और जिसका मुकदमा भी पुलिस में दर्ज करने की जरूरत नहीं समझी गई।

इस तरह की लूट में बैंक से धन उड़ाने के लिए किसी को गोहाना की तरह सुरंग बनाने की जरूरत नहीं होती। तरीका-वारदात ऐन सबके सामने रहता है- बैंक कर्ज देता है और वसूली नहीं करता। अपराधी बैंक के इज्जतदार ग्राहक हैं। स्वयं रिजर्व बैंक का मानना है कि 2014 के अंत तक बैंकों से लूटी गई यह रकम बढ़ते-बढ़ते तमाम भारतीय बैंकों द्वारा कुल दिए कर्ज के पांच प्रतिशत तक जा पहुंचेगी, वह भी कुलक किसानों के पक्ष में कर्ज माफी के समय-समय पर ऐलानों के बीच में। बैंकिंग शब्दावली में इस निरंतर लूट को नॉन परफॉर्मिंग एसेट (एनपीए) कहते हैं।

यह बैंकों की लुटी राशि, उनकी उस कहीं और बड़ी रकम से अलग है जो ‘कर्जों के पुनर्गठन’ के नाम पर इसी तरह से एनपीए बनने की प्रक्रिया में है। भारत सरकार के वित्त मंत्रालय और रिजर्व बैंक से लेकर कॉरपोरेट जगत के आर्थिक सलाहकारों पर समाज और सरकार को बताने का कार्यभार आयद है, जिसे वे बखूबी निभा रहे हैं, कि विकास की धीमी गति, बढ़ती मुद्रास्फीति, ऊंची ब्याज-दर के चलते ही कर्जदार बैंकों की देनदारी से चूक रहे हैं, यानी एनपीए का इलाज इस लूट को रोकने में नहीं बल्कि देश की आर्थिक नीतियों को इन ठगों और जोंकों के लिहाज से बदलने, मुख्यत: ब्याज दरों की कटौती करने में है। इस तर्क को अगर गोहाना बैंक-लूट पर लागू करें तो सरकार को चाहिए कि उस मामले में भी अपराधियों को गिरफ्तार करने और मुकदमा चला कर उन्हें जेल की सजा कराने के बजाय, उनके लिए गरीबी दूर करने, रोजगार पाने और शिक्षण-प्रशिक्षण के प्रबंधन की उचित व्यवस्था करे। बजाय लूटा गया माल उनसे बरामद करने और मालिकों को लौटाने के, पुलिस को यह सुविधा हो कि वह इसे समाज का नॉन परफॉर्मिंग एसेट घोषित कर सके।

हर वर्ष केंद्र सरकार को ‘ट्रेंड ऐंड प्रोग्रेस ऑफ बैंकिंग इन इंडिया’ शीर्षक से एक वार्षिक मार्गदर्शक रिपोर्ट भेजता है। इसमें बैंकों के एनपीए और ‘कर्जों के पुनर्गठन’ का लेखा-जोखा भी शामिल रहता है। पिछले साल रघुराम राजन के रिजर्व बैंक का गवर्नर बनने के बाद इसकी आवृत्ति वर्ष में दो बार कर दी गई। राजन, यूपीए सरकार के उन गिने चुने शीर्ष अधिकारियों में से हैं जो अपनी काबिलियत के नाम पर मोदी सरकार के भी विश्वासपात्र बने हुए हैं। वे अपने पूर्ववर्ती सुब्बाराव से कहीं अधिक मुखर भी हैं। इन रिपोर्टों के अलावा, अर्थव्यवस्था के त्रैमासिक आकलनों और कई अन्य अवसरों पर भी उन्होंने तमाम बैंकों को इस विषय में आगाह किया है। उनकी ओर से खतरे की घंटी का स्वर अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार है कि अगर नब्बे दिन तक कर्ज या ब्याज की किस्त के भुगतान में कोताही हो तो उसे एनपीए की श्रेणी में रखा जाए।

जाहिर है, बार-बार इस चेतावनी की जरूरत इसलिए ही पड़ रही होगी कि बैंक एनपीए की वास्तविक तस्वीर पर परदा डाल रहे हैं। साथ ही ‘कर्जों के पुनर्गठन’ के नाम पर भी खासकर कॉरपोरेट देनदारियों को लगातार टलने दिया जा रहा है, यानी कर्ज को बट्टे-खाते में पहुंचा कर होने वाली बैंक-लूट वास्तव में पांच प्रतिशत से कहीं अधिक के स्तर पर पहुंच रही होगी। वैसे भी पांच प्रतिशत का आंकड़ा तो स्वयं संबंधित बैंकों का मुहैया कराया हुआ है, न कि किसी स्वतंत्र नियामक या निगरानी एजेंसी का दिया हुआ।

बात सिर्फ रिजर्व बैंक के गवर्नर की निगरानी तक नहीं रह जाती है। यूपीए सरकार के वित्तमंत्री पी चिदंबरम अर्थव्यवस्था के विभिन्न पहलुओं का सरकारी लेखा-जोखा सार्वजनिक रूप से मासिक प्रेस कॉन्फ्रेंस में रखते थे। मोदी सरकार के वित्तमंत्री अरुण जेटली अपेक्षया और खुले हुए हैं। कोई भी हफ्ता नहीं जाता जब उनकी ओर से आर्थिक परिदृश्य के किसी न किसी पहलू पर कोई न कोई सारगर्भित टिप्पणी न आती हो। चिदंबरम के प्रधानमंत्री, मनमोहन सिंह, बेशक कम बोलते रहे हों, पर स्वयं जाने-माने अर्थशास्त्री थे। जेटली के प्रधानमंत्री, नरेंद्र मोदी, अर्थशास्त्री न सही, पर जनता से सीधे ‘मन की बात’ करने की अपनी महारत के चलते लोगों के आर्थिक सरोकारों को छूना नहीं भूलते। 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी, दोनों ने अपने-अपने घोषणापत्र में देश की आर्थिक दशा और दिशा की विस्तृत चर्चा की थी।

इस वर्ष दो केंद्रीय बजट पेश किए गए थे- यूपीए सरकार का अंतरिम और मोदी सरकार का नियमित, जिनके गिर्द देश का आर्थिक नजारा सिंहावलोकित हुआ। यह सब होते हुए भी भारत में बैंक-लूट बदस्तूर चल रही है और बैंक में पैसा रखने वालों को खबर भी नहीं।

वर्ष 2008 की मंदी के बीच अमेरिका वॉल स्ट्रीट में अचानक रातोंरात सात सौ अरब डॉलर की मालियती के निवेश बैंक, लेहमन ब्रदर्स के डूब जाने पर खोजी पत्रकार मैट टाइबी की टिप्पणी, भारतीय रिजर्व बैंक की रिपोर्ट से ज्यादा सटीक है, ‘अगर आप न सिर्फ जानना चाहते हैं कि वॉल स्ट्रीट की पुलिसिंग क्यों नहीं होती बल्कि क्यों बहुत-से लोग मानते हैं कि इसकी पुलिसिंग की ही नहीं जा सकती, आपको बस ध्यानपूर्वक इस केस को देखना होगा। जो आपको दीखता नहीं उसकी पुलिसिंग आप नहीं कर सकते, और अंधेरे में आपको कुछ दीखता नहीं।’

आश्चर्य नहीं, अमेरिकी बैंकों में एनपीए का उनके दिए कुल कर्ज से अनुपात, भारत से लगभग दो गुना पहुंच रहा है। वहां पर बैंक-कर्ज की ब्याज दर बहुत कम होने के बावजूद, और विकास और मुद्रास्फीति के बेहतर मॉडल होने पर भी। मैट टाइबी से जानने की जरूरत नहीं कि अमेरिका से भारत ने क्या सीखा है- कैसे बड़े बैंक-सौदों को कानून और सूचना के उजाले से दूर और गोपनीयता और जालसाजी के अंधेरे में रखा जाए! मनमोहन सिंह, पी चिदंबरम, अरुण जेटली, नरेंद्र मोदी, सुब्बाराव और रघुराम राजन के भारत ने! कि कैसे आपराधिक बैंक-सौदों से आंख मूंदी जाए, और उन्हें, मैट टाइबी के शब्दों में, ‘कानून के दायरे से बाहर रखा जाए’!

गोहाना में पुलिस को पता था कि पंजाब नेशनल बैंक के लॉकर कक्ष से गहने और नकदी का गायब होना भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत संगीन अपराध है। इस लूट को अंजाम देने वाले, बेशक गरीब और बेरोजगार सही, आज जेल के भागी हैं। जिनकी संपत्ति लूटी गई, वह उन्हें वापस होने की राह पर है। उस कस्बाई शाखा के बैंककर्मियों को समझ थी कि उनके कार्यक्षेत्र में जो घटा है वह अपराध की श्रेणी में आता है, और लुटे उपभोक्ताओं को भी इस मामले में बैंक, पुलिस और शासन की जवाबदेही का पूरा एहसास था। क्या यही स्थिति उस पांच प्रतिशत रकम के संबंध में नहीं होनी चाहिए, जो तमाम बैंकों से उधार के नाम पर लूट ली गई है?

क्या हम जानना नहीं चाहेंगे कि इस पांच प्रतिशत रकम (हजारों करोड़ रुपए) की निगरानी की जवाबदेही आखिर किसकी बनती है? इस बाखबर लूट को अपराध की संज्ञा दी जाएगी?

 

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