केपी सिंह
रोहतक में हरियाणा रोडवेज की बस में पूजा और आरती नाम की दो बहनों द्वारा तीन मनचलों की धुनाई का वीडियो सोशल मीडिया, टीवी और अखबारों में छाया हुआ है। हरियाणा सरकार ने दोनों लड़कियों को गणतंत्र दिवस पर सम्मानित करने की घोषणा की है। राज्य के कृषिमंत्री ने, जो पुराने रोहतक जिले के जन-प्रतिनिधि हैं, दोनों को इकतीस-इकतीस हजार रुपए का पुरस्कार देने की पेशकश की है। कर्तव्य में लापरवाही बरतने के लिए पुलिस वालों को निलंबित किया गया है। रोडवेज बस के चालक और परिचालक को भी कर्तव्य में कोताही के लिए निलंबित कर दिया गया है। चारों ओर लड़कियों के साहस की प्रशंसा हो रही है। उन्हें न्याय दिलाने के लिए सरकार की प्रतिबद्धता प्रदर्शित करने वाले बयान भी सामने आए हैं। लड़कों के गांव वाले उनको बचाने की जुगत में अलग ही राग अलाप रहे हैं। ऐसे में समाज के उन अलंबरदारों और ठेकेदारों की चुप्पी अखर रही है जो लड़कियों पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगाने की दलील देकर सुर्खियों में रहने का प्रयास करते हैं।
बस यात्रियों से भरी थी। इसमें उसी क्षेत्र के वासी सफर कर रहे थे जिन्होंने हर विदेशी आक्रांता को दिल्ली में घुसने से पहले छकाया था। यह वही क्षेत्र है जिसके प्रत्येक घर से नवयुवक देश की सीमाओं की रक्षा में प्राण की बाजी लगा देने के लिए सदैव तत्पर रहते हंै। फिर यह आश्चर्यचकित करता है कि अपनी अस्मिता और सम्मान की लड़ाई लड़ रही दोनों लड़कियों की मदद के लिए भरी बस में से एक भी हाथ क्यों नहीं उठा? यह हकीकत विचलित कर देने वाली है। अगर एक अन्य महिला ने मोबाइल फोन से इस घटना का वीडियो न बनाया होता तो यकीन मानिए उन मनचलों की पहचान शायद ही हो पाती। जब मौके पर ही कोई मदद के लिए नहीं आया तो पहचान का गवाह बनने भला कोई क्यों सामने आता?
हरियाणा में परिवार की महिलाओं की शान में गुस्ताखी करने वाले को परिजन मौत के घाट उतारने में तनिक संकोच नहीं करते हैं। बेटी परिवार की इज्जत और सम्मान का प्रतीक मानी जाती है। ऐसे में किसी अन्य की बेटी के साथ हो रहे अत्याचार के प्रति समाज में असंवेदनशीलता का भाव समझ से परे है। इस विकृत मानसिकता के कारण ढूंढ़ने के साथ-साथ इसकी भर्सना करना जरूरी हो जाता है।
प्रबुद्ध समाजशास्त्री इस प्रकार की दोहरी मानसिकता के पीछे मनुस्मृति पर आधारित सामाजिक व्यवस्था की उस विकृति को कारक मानते हैं जिसके तहत स्त्री पर पुरुष के आधिपत्य को मान्यता दी गई थी। मनुस्मृति के अनुसार बेटी पिता के, पत्नी पति के और मां बेटे के संरक्षण में मानी गई है। मनु यह सामाजिक संदेश देने में पूर्णतया सफल नहीं हो पाए कि स्त्री जब पिता, पति और बेटे के संरक्षण से दूर होगी तब उसके संरक्षण की जिम्मेदारी किसकी होगी? सहस्राब्दियों में स्थापित हुई सामाजिक व्यवस्था शायद इसीलिए अपनी और पराई स्त्रियों के संबंध में अलग-अलग मानदंड अपनाने की अभ्यस्त हो गई है।
मनोवैज्ञानिक इस प्रकार की रुग्ण मानसिकता के पीछे महिलाओं के प्रति पीढ़ी-दर-पीढ़ी बरती गई असंवेदनशीलता की आदत के पक जाने के लक्षण को मानते हंै। और आदत जल्दी से नहीं बदलती यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है।
ऐसा नहीं है कि महिलाओं के प्रति इस प्रकार की दोहरी मानसिकता केवल भारतीय समाज में हो। इतिहास गवाह है कि रूस, फ्रांस और अन्य देशों में हुई सामाजिक क्रांतियों- जिनके मूल में न्याय, आजादी और समानता के लिए संघर्ष था- में कभी भी महिलाओं के लिए न्याय, आजादी और समानता के अधिकार की वकालत नहीं की गई। सभी सामाजिक क्रांतियों में वर्ग-संघर्ष का मुद््दा छाया रहा। संयुक्त राष्ट्र के वर्ष 1948 के घोषणापत्र के बाद ही विश्व ने महिलाओं के अधिकारों को मान्यता देना शुरू किया है।
इन दोनों लड़कियों की मार से आहत हुए तीनों लड़कों ने उन्हें धक्का देकर बस से नीचे ढकेल दिया था। लड़कियों ने अपने मोबाइल फोन से पुलिस को घटना की सूचना देकर मदद की गुहार लगाई थी। दुर्भाग्यवश पुलिस की असंवेदनशीलता के कारण लड़कियों को समय पर उतना सहयोग नहीं मिल पाया जितना अपेक्षित था। यह लगभग उसी प्रकार की असंवेदनशीलता की पुनरावृत्ति है जैसी दिल्ली में निर्भया कांड के समय सामने आई थी। अपराधों की जांच के सिलसिले में पुलिस अकर्मण्यता से निपटने के लिए न्यायमूर्ति वर्मा समिति की रिपोर्ट के आधार पर पिछले साल भारतीय दंड संहिता में एक नई धारा 166ए जोड़ी गई थी। इस प्रावधान के अनुसार पुलिस की इस प्रकार की कोताही को अपराध घोषित किया गया है। पूजा और आरती के गुनहगारों में वे पुलिस वाले भी शामिल हैं जिन्होंने समय पर अपना दायित्व नहीं निभाया है। मात्र निलंबन की कार्रवाई उनके लिए पर्याप्त नहीं है।
भारत में कानून का राज है। भारतीय दंड संहिता प्रत्येक नागरिक को आत्म-रक्षा का अधिकार प्रदान करती है। आत्म-रक्षा के अधिकार का मतलब केवल खुद की रक्षा करना नहीं है। दूसरों की रक्षा करने का अधिकार भी आत्म-रक्षा के अधिकार में निहित है। कानून इस प्रकार नागरिकों को साहसी बनने की प्रेरणा देता है ताकि समाज में व्यवस्था बनी रहे। आत्म-रक्षा के अधिकार से जुड़ी धारा 100 भारतीय दंड संहिता में उल्लिखित विशेष परिस्थितियों में गुनाह करने वाले को जान से मार देने तक का अधिकार नागरिकों को देती है। कानून की अपेक्षा है कि नागरिक साहस का परिचय देते हुए अपनी और दूसरों की जान-माल की रक्षा करने का दायित्व निभाएं और कायरता के कलंक से बचें।
कानून द्वारा प्रदत्त आत्म-रक्षा के अधिकार का प्रयोग जान-बूझ कर न करने वालों के विरुद्ध दंडात्मक कार्रवाई करने के लिए वर्तमान कानूनों में पर्याप्त आधार उपलब्ध नहीं हैं। पर धारा 39 दंड प्रक्रिया संहिता नागरिकों पर कुछ विशेष आपराधिक मामलों की सूचना देने का नैतिक दायित्व अवश्य निर्धारित करती है। दुर्भाग्यवश इन विशेष अपराधों की सूची में महिलाओं के विरुद्ध होने वाला एक भी अपराध शामिल नहीं है। निर्भया प्रकरण और अब पूजा-आरती प्रकरण में नागरिकों की उदासीनता इस बात का प्रमाण है कि हमारी नैतिकता और सामाजिक जिम्मेदारी के अहसास को झकझोरने के लिए कानून के अंकुश की जरूरत है।
धारा 39 (दंड प्रक्रिया संहिता) के दायरे को विस्तृत करते हुए इसमें उन सभी अपराधों की सूचना देना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य घोषित किया जाना चाहिए जिनका सरोकार राष्ट्रीय सुरक्षा, सामाजिक सुरक्षा और महिलाओं की अस्मिता की रक्षा से है। इस प्रकार के अपराध की सूचना न देना और दूसरों की रक्षा में आत्म-रक्षा के अधिकार का प्रयोग न करना संज्ञेय अपराध घोषित किया जाना चाहिए ताकि नागरिकों में राष्ट्रीय और सामाजिक दायित्वों के प्रति जिम्मेदारी का भाव जागृत किया जा सके। फ्रांस जैसे कई देशों में इस प्रकार के कानून पहले से ही मौजूद हैं।
महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराधों से निपटने के लिए महिलाओं के सशक्तीकरण की जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता। यह दलील कतई मानने लायक नहीं है कि आत्म-रक्षा के अधिकार का प्रयोग करने के लिए बाहुबल जरूरी होता है। पूजा और आरती ने साबित कर दिया है कि साहस बाहुबल की प्रतिभूति नहीं है। साहस के सामने बाहुबल काफूर हो जाता है। इसमें संदेह नहीं है कि लड़कियों को साहस का पाठ पढ़ाने की शुरुआत घर से ही होनी चाहिए। मगर गणतंत्र दिवस पर साहसी महिलाओं की सवारी राजपथ से निकाल कर महिला सशक्तीकरण की मुहिम को नए आयाम दिए जा सकते हैं, जिससे अनेक महिलाओं को प्रोत्साहन और प्रेरणा मिलेगी।
अब इस घटना ने उन संगठनों को भी सोचने के लिए जरूर मजबूर किया होगा जो लड़कियों के मोबाइल फोन रखने या इस्तेमाल करने पर आपत्ति जताते रहे हैं। पूजा-आरती प्रकरण का वीडियो एक महिला द्वारा ही अपने मोबाइल फोन पर बनाया गया था। पूजा-आरती ने मोबाइल फोन पर ही पुलिस से मदद मांगी थी। यह साबित हो चुका है कि मोबाइल फोन लड़कियों का सार्थक सुरक्षा कवच भी हो सकता है। मोबाइल फोन को बुराई की संज्ञा देना ठीक नहीं है। बुराई मोबाइल फोन के किसी खास इस्तेमाल में हो सकती है। बुरे काम के लिए किसी भी तकनीक का प्रयोग, चाहे वह पारंपरिक हो या आधुनिक, बुरा ही होगा। इसलिए लड़कियों के मोबाइल रखने पर हाय-तौबा मचाने का कोई मतलब नहीं है। मोबाइल फोन का दुरूपयोग लड़के कहीं अधिक करते हैं।
पूजा-आरती के दोषियों को कानून जरूर सजा देगा इसमें संदेह नहीं है। उनके साहस और अप्रत्याशित हमले का प्रत्युत्तर देने के जज्बे पर सभी को गर्व है। पर दोनों लड़कियां जिस सामाजिक व्यवस्था का हिस्सा हैं उसकी मानसिकता पर अनेक सवालिया निशान हैं। तीनों अभियुक्त लड़कों के गांव कंसाला के बाशिंदों ने दलील दी है कि लड़के बेगुनाह हैं और उन्हें झूठे मुकदमे में फंसाया जा रहा है। उन्होंने लड़कियों पर तरह-तरह के दोषारोपण करना शुरू कर दिया है। घटना को नया रूप देकर लड़कों का बचाने की मुहिम शुरू हो गई है। गांव वालों ने प्रशासन को चेतावनी दी है कि तीनों लड़कों को चौबीस घंटे के अंदर रिहा किया जाए। इन परिस्थितियों में लड़कियों के लिए पग-पग पर सुरक्षा संबंधी कठिनाइयां आएंगी ऐसी आशंका निर्मूल नहीं कही जा सकती। लड़कियों को किसी भी प्रकार के खतरे से बचाने के लिए समय रहते समुचित निवारक कार्रवाई करना सरकारी व्यवस्था की जिम्मेदारी बनती है।
एक लक्ष्मीबाई मातृ-भूमि की रक्षा करते हुए शहीद हो गई थी। आजादी नहीं मिल पाई थी क्योंकि उस समय शायद जन-जागृति का अभाव था। आज मीडिया सतर्क है और जनता भी जागरूक है। महिला अस्मिता की खातिर लड़ने वाली दो साक्षात लक्ष्मीबाई हम सबके समक्ष मौजूद हैं। उन्हें साक्षी बना कर महिलाओं की सुरक्षा के लिए लड़ी जा रही लड़ाई को नए सोच के साथ नई दिशा देने के लिए आवश्यक पृष्ठभूमि भी तैयार है। यह अवसर व्यर्थ नहीं जाना चाहिए। हमें यह भी समझ लेना चाहिए कि अकेले कानून के कठोर प्रावधानों से काम नहीं बनेगा। समाज के सोच को बदलना कहीं अधिक जरूरी है।
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