अख़लाक़ अहमद उस्मानी
जनसत्ता 10 अक्तूबर, 2014: आधुनिक इस्लामी इतिहास की सबसे पीड़ादायक रमजान और ईदुल फित्र के बाद हज के साथ आने वाली इस ईदुल अजहा को दुनिया भर के मुसलमान भुला नहीं सकेंगे। यह सोच कर तकलीफ इसलिए और बढ़ जाती है कि मीठी ईद पर इजराइल के गजा पर बर्बर हमलों और रमजान से पहले उभरे कथित इस्लामी राज्य (आइएसआइएस) और इसके चरित्रहीन, बर्बर आतंकवादी और कथित खलीफा अबुबक्र अलबगदादी की कारगुजारियों ने इस हज और ईदुल अजहा की खुशियों को बर्बाद कर दिया। कितना विचित्र है कि प्राकृतिक आपदा और हज की भगदड़ में जितने मुसलमान नहीं मारे गए, उससे हजारों गुना अधिक वहाबी विचारधारा को मानने वालों और इसे पैदा करने में अग्रणी सऊदी अरब, कतर, अमेरिका, इजराइल, नाटो देश और इनके आतंकवादी मित्र और संगठनों के हाथों मारे गए हैं।
इस्लाम को विरूपित करने वाले वहाबी, ऊर्जा भंडारों पर कब्जेदारों, हथियारों के व्यापारी, अय्याश और अधर्मी शेखों और ‘जो हमारे साथ नहीं, वे हमारे खिलाफ हैं’ के भयानक और वीभत्स गठजोड़ ने अरब के वरदान को अभिशाप में बदल दिया है। हजारों साल पुरानी सभ्यताओं को लूटने के बाद लाखों बेघर लोगों को अरब के रेगिस्तान में भटकने के लिए छोड़ दिया गया है। क्या यह सब स्वत: हो रहा है या किसी योजना का हिस्सा है?
यह संयोग नहीं हो सकता कि पश्चिम एशिया में हूबहू वैसा ही हो रहा है जैसा अमेरिका की खुफिया एजेंसी सीआइए की राष्ट्रीय खुफिया परिषद की दिसंबर 2004 में छपी गोपनीय रिपोर्ट ‘मैपिंग द ग्लोबल फ्यूचर- रिपोर्ट आॅफ द नेशनल इंटेलिजेंस काउंसिल्स 2020 प्रोजेक्ट’ में लिखा गया था। इस रिपोर्ट को ‘फ्यूचरब्रीफ डॉट कॉम/ प्रोजेक्ट 2020’ पर देखा जा सकता है। रिपोर्ट में कहा गया था कि पश्चिम एशिया में अल कायदा कमजोर पड़ेगा और उसकी जगह खिलाफत का दावा करने वाले आतंकवादी आ सकते हैं। यह कैसा इत्तेफाक है कि इस रिपोर्ट के कुछ ही दिन बाद अल कायदा के एक वहाबी विचारक अबुबक्र नाजी (अबुबक्र नाम भी क्या संयोग है?) ने अरबी में एक किताब जारी की, जिसका नाम ‘इदारा त वहश: अख़्तर मरहला सतमिर बीहा अलउम्मा’ यानी ‘मैनेजमेंट ऑफ सैवेज्री: द मोस्ट क्रिटिकल स्टेज थ्रो विच द उम्मा विल पास’ यानी ‘बर्बरता का प्रबंधन: विकट चरण जिससे उम्मा (खिलाफत) गुजरेगी’ में उसी खिलाफत का स्वप्न पाने के लिए निहायत वहशी तरीके अपनाने की अपील की गई थी! अगर यह सब संयोग भी है तो क्या हूबहू पश्चिम एशिया में वैसा ही हो रहा होता जैसा सीआइए और अल कायदा के वहाबी विचारक अबुबक्र की पुस्तक में दस साल पहले जिक्र किया गया था?
माना जाता है कि अबुबक्र नाजी का असली नाम मुहम्मद हसन खलील अलहकीम उर्फ अबू जिहाद अलमसरी है। अलमसरी को सीआइए ने अल कायदा के मीडिया और प्रचार के काम के लिए तैयार किया था और उस पर ईरान में अल कायदा के लिए काम करने की भी जिम्मेदारी थी। अगस्त 2006 में ऐमन अलजवाहिरी ने अलमसरी को एक वीडियो में परिचय कराते हुए घोषणा की थी कि अलमसरी के मिस्र में खिलाफत के लिए चल रहे संगठन अलगमा अलइस्लामिया का अल कायदा में विलय हो चुका है। इसी अलमसरी ने इजराइल के विरुद्ध युद्ध छेड़ने वाले मिस्री राष्ट्रपति अनवर सादात की 1981 में हुई हत्या की साजिश में शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था।
सीआइए की राष्ट्रीय खुफिया परिषद की ‘खिलाफत परियोजना 2020’ के फौरन बाद अलमसरी उर्फ अबुबक्र अलनाजी की बर्बर रास्ते से खिलाफत हासिल करने वाली हैंडबुक आ जाती है, यही अलनाजी दरअसल अलमसरी है, जो सीआइए के लिए अल कायदा में काम करता है। क्या इतने तथ्य संयोग हैं, जो आज के आइएसआइएस की खिलाफत को एक परियोजना नहीं मानते?
सबसे अहम सवाल है कि अबुबक्र अलबगदादी, उसके आका सऊदी अरब, अमेरिका, कतर, इजराइल और नाटो को इससे मिलेगा क्या? कॉन्फ्लिक्ट जोन से हथियारों के सौदों और उन्हें जांचने तथा तेल और गैस के अकूत भंडारों पर कब्जे का सबब बनता है, लेकिन इसके लिए चुकाई गई कीमत कम नहीं होती।
नाटो के पूर्व कमांडर और अमेरिकी सेना से सेवानिवृत्त जनरल वेस्ली क्लार्क ने अक्तूबर 2007 में बयान दिया था कि पेंटागन के एक जनरल ने उनसे चर्चा की थी कि अमेरिका को अगले पांच वर्षों में सात देशों पर कब्जा करना है। अमेरिकी रक्षा मंत्रालय ने पेंटागन को आदेश देते हुए क्रम से नाम गिनाए थे। क्लार्क ने कहा था कि हम इराक से शुरू करेंगे, फिर सीरिया, लेबनान, लीबिया, सोमालिया, सूडान और आखिर में ईरान। इराक, लीबिया और सूडान के संसाधनों पर अमेरिकी और उसके नाटो साथियों का कब्जा हो चुका है। सीरिया बर्बाद हो चुका है, लेकिन दमिश्क रूस और चीन की बिसात पर सांस ले रहा है। सोमालिया अफ्रीकी वहाबी आतंकवाद की सबसे बड़ी फैक्टरी बन चुका है।
इजराइल ने लेबनान पर इसी योजना के तहत 2006 में हमला किया था, जिसमें लेबनान के करीब ग्यारह सौ लोग मारे गए और हजारों घायल हुए; दस लाख लोगों को घर छोड़ कर भागना पड़ा। अरब की जमीन पर अमेरिका-इजराइल, नाटो और सुन्नी के नाम पर वहाबी उर्फ सलफी उर्फ तकफीरी शेख तानाशाहों को उदार शिया और इस्लामी ईरान गणराज्य आंख में किरकिरी की तरह चुभता है। मौसम बदलाव के दबाव की वजह और शर्तों के बावजूद 2020 तक जीवाश्म प्रधान र्इंधन तेल और कोयले पर निर्भरता बनी रहेगी और ग्लोबल वॉर्मिंग से निपटने के लिए इसके तुरंत विकल्प गैस पर जाना होगा। रूस, ईरान और कतर क्रम से तीन सबसे बड़े गैस उत्पादक देश हैं और इनमें से एक कतर ही अमेरिकी-नाटो-इजराइली खेमे में है।
वेस्ली क्लार्क अरब में इजराइल को सुरक्षित बनाने या यहूदी लॉबी के दबाव में ही नहीं बोल रहे थे, उन्हें इस बात की खबर थी कि भूमध्य सागर में अकूत नवोदित गैस भंडार से गैस अगर तुर्की या यूनान के रास्ते यूरोप पहुंचाई जा सके, तो रूस की निर्भरता घटाई जा सकती है। लेकिन भूमध्य सागर की गैस शोलों से भरी है। भूमध्य सागर में इजराइल के अलावा मिस्र, लेबनान, सीरिया, साइप्रस और फिलस्तीन (गजा) इस गैस का दावेदार है। इजराइल इस गैस परियोजना के लिए साइप्रस को मना चुका है और गजा के हिस्से की बेशुमार गैस का चोर है। उस पर लेबनान ने भी गैस चोरी के गंभीर आरोप लगाए हैं।
इजराइल की बढ़ती ऊर्जा आवश्यकताओं में असली रोड़ा लेबनान और सीरिया हैं। इजराइल को रूस की गैस के विकल्प के तौर पर खड़ा करने के लिए अपने आप को इस्लाम और तौहीद (एक अल्लाह) का नाम लेने वाले वहशी, अधर्मी, हिंसक वहाबी, सलफी, तकफीरी सिरफिरे जिहादियों को इस्तेमाल किया जा रहा है। अमेरिकी सीनेटर जॉन मकेन और अलबगदादी की मुलाकात की तस्वीरें पूरी दुनिया ने देखी हैं। जब तेल और गैस उत्खनन कंपनियां, हथियार उत्पादक कंपनियां और व्यापारी कॉरपोरेट, आतंकवादी, वहाबी मौलाना और उनके फतवे, अमेरिकी, नाटो और इजराइल की सरकार, खुफिया एजेंसियां, भ्रष्ट मीडिया और थिंक टैंक मिल कर किसी परियोजना पर काम करेंगे तो इतने मजबूत ‘वेस्टेड इंटरेस्ट’ कोई क्या तो समझ पाएगा और क्या उसका तोड़ निकाल पाएगा?
एक अनुमान के मुताबिक भूमध्य सागर में सीरिया के हिस्से में साढ़े आठ खरब घन फुट गैस और देश में ढाई अरब बैरल तेल के भंडार का पता चल चुका है। दुर्भाग्य से सीरिया के भूमध्य सागर तट के गैस भंडारों का उत्खनन नहीं हो पा रहा है, जबकि उत्तरी सीरिया के नवोदित तेल भंडार के भूगोल पर आइएसआइएस का कब्जा है। अमेरिका, नाटो और इजराइल की मंशा है कि सीरिया में धर्मनिरपेक्ष बाथ पार्टी की सरकार को हटा कर ही वहां के ऊर्जा संसाधनों को लूटा जा सकता है। इसकी एक बानगी आइएसआइएस के कब्जे वाले इराकी तेल भंडारों से मिलती है। जब तेल का ब्रेंट दाम 109 डॉलर प्रति बैरल पहुंच चुका था, आइएसआइएस इसे मात्र दस डॉलर प्रति बैरल पर अमेरिकी कंपनियों को बेच रहा था।
अमेरिकी तकलीफ उस समय बढ़ी जब आइएसआइएस के गैर-भरोसेमंद आतंकवादियों से कुर्दिस्तान में अमेरिकी कंपनियों- एक्सॉन मॉबिल और शैवरॉन ड्रिलिंग- के लिए मुसीबतें खड़ी कर दीं। क्या संयोग है कि जैसे ही अमेरिकी तेल उत्खनन कंपनियों की दिक्कत बढ़ी, अमेरिका के दोस्त सऊदी अरब और कतर के पैसे से पाले गए आइएसआइएस ने दो अमेरिकी और दो ब्रिटिश नागरिकों के गले काट कर उनका वीडियो जारी कर दिया। सीरिया से बशर अल असद की सरकार गिराने की नीयत से अमेरिकी रक्षामंत्री जॉन कैरी ने पेरिस में बैठक बुला कर इराक और सीरिया में आइएसआइएस के कथित ठिकानों पर बमबारी शुरू की। कई पत्रकारों का आरोप है कि अमेरिकी और साथी देश खाली इमारतों पर हमले कर आइएसआइएस के विरुद्ध कार्रवाई का झांसा दे रहे हैं।
दरअसल, वे चाहते हैं कि सीरिया की सेना से उनका टकराव हो और इस बहाने दमिश्क पर हमला कर असद की सरकार गिराई जा सके। इजराइल सीरिया की गोलान पहाड़ियों और क्वीनेत्रा में वहाबी फ्री सीरियन आर्मी और अलनुसरा के गुरिल्लों को प्रशिक्षण दे रहा है। यह इलाका राजधानी दमिश्क के बहुत करीब है। क्या इन आतंकवादियों को इशारा मिलने पर दमिश्क में घुस कर कब्जा करने के लिए तैयार रखा गया है? यही लोग मीडिया में वैसे ही स्वतंत्रता सेनानियों की तरह दिखाए जाएंगे जैसे बगदाद, त्रिपोली और बिनगाजी में दिखाए गए थे।
सीआइए की राष्ट्रीय खुफिया परिषद की ‘खिलाफत परियोजना 2020’ रिपोर्ट में भारत के हवाले से भी बहुत विस्तार से लिखा गया है। अमेरिकी आर्थिक हितों के लिए चीन और भारत को प्रमुख प्रतिद्वंद्वी माना गया है। रिपोर्ट कहती है कि अगर भारत की आर्थिक प्रगति की यही दर रही तो वह 2023 तक इटली, फ्रांस और जर्मनी से बड़ी आर्थिक ताकत होगा। यही रिपोर्ट भारत को गुजरात के 2002 जैसे सांप्रदायिक दंगों और पाकिस्तान से परमाणु संकट में उलझने की आशंका जताती है।
नई दिल्ली के एक अंगरेजी अखबार में खबर आई कि भारत सरकार आइएसआइएस में हिस्सा लेकर भारत लौटने वाले नौजवानों के खिलाफ एफआइआर दर्ज नहीं करेगी, बल्कि उनका ‘डिरेडिकलाइज’ यानी ‘अकट््टरीकरण’ करेगी। यह एक समझदार कदम है, क्योंकि इन नौजवानों को जेल भेज कर सऊदी अरब और कतर के रियाल पर पलने वाले एजेंटों की पहचान नहीं हो पाएगी। इस डिरेडिकलाइज प्रक्रिया में उस इस्लाम की शिक्षा आवश्यक है, जो सूफी प्रधान हो। इन भटके हुए नौजवानों को यह तालीम सूफी मौलानाओं से बेहतर वे पेशेवर युवा सूफी दे सकते हैं, जो सूफी इस्लाम के साथ-साथ वहाबी भू-राजनीति को करीब से जानते हैं। जो यह मानते हैं कि भारत का भला भारतीयता में है, सनातन परंपरा में है, सूफी इस्लाम में है, गांधी में है।
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