केपी सिंह

जनसत्ता 20 अक्तूबर, 2014: वरिष्ठ शिक्षाविद माधव मेनन की अध्यक्षता में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित समिति ने सिफारिश की है कि सरकारी विज्ञापनों में छिपे राजनीतिक संदेश और सरकार के संदेशों में स्पष्ट अंतर होना चाहिए। राजनीतिक लाभ के लिए सरकार और उसके अधिकारियों द्वारा समाचारपत्रों और टेलीविजन पर विज्ञापन देने में जनता के धन का दुरुपयोग रोकने के इरादे से शीर्ष अदालत ने चौबीस अप्रैल को इस समिति का गठन किया था। सरकारी विज्ञापनों में अमूमन संबंधित विभाग के मंत्री, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और अन्य राजनीतिक व्यक्तियों के चित्र छपे होते हैं। माधव मेनन समिति ने इस संबंध में कुछ अच्छे सुझाव दिए हैं। पर और बहुत कुछ सोचना बाकी रह गया है। किसी भी प्रगतिशील सामाजिक व्यवस्था में जन-महत्त्व से जुड़े मुद््दों पर निरंतर विमर्श की गुंजाइश हमेशा बची रहती है।

 

समाचारपत्रों, पत्रिकाओं और टेलीविजन पर सरकारी संस्थानों द्वारा प्रतिदिन विज्ञापन जारी किए जाते हैं। इनके माध्यम से सरकारी संदेश, वाणिज्यिक जानकारियां, सार्वजनिक महत्त्व की सूचनाएं, विभागीय अधिसूचनाएं, महापुरुषों के प्रति श्रद्धांजलियां और राष्ट्रीय पर्वों पर प्रेरणात्मक संदेश जन-जन तक पहुंचाए जाते हैं। इस प्रकार सरकार नागरिकों के साथ लगातार संपर्क और संवाद स्थापित करती है। किसी भी प्रजातांत्रिक प्रणाली का यही तकाजा होता है। इसमें किसी को कोई एतराज नहीं हो सकता।

 

सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी को रोजमर्रा के सरकारी विज्ञापनों में छिपे राजनीतिक संदेशों के संदर्भ में समझने की जरूरत है। जन-महत्त्व की सरकारी योजनाएं संसद में जन-प्रतिनिधियों द्वारा स्वीकृत की जाती हैं। और इन जन-प्रतिनिधियों में पक्ष और विपक्ष दोनों के ही सदस्य सम्मिलित होते हैं। प्रश्न तब उठाए जाते हैं जब सत्तारूढ़ दल के किसी पूर्व नेता के नाम और वर्तमान नेता की तस्वीर के साथ इन योजनाओं को सरकारी विज्ञापनों के माध्यम से प्रचारित किया जाता है। सरकारी योजनाएं जन-धन से पोषित होती हैं। और राजकोष पर किसी एक राजनीतिक व्यक्ति या दल का स्वामित्व नहीं होता है। राजकोष पर संसद की सामूहिक पहरेदारी होती है।

 

जन-प्रतिनिधियों की सामूहिक स्वीकृति के बाद ही सरकार राजकोष से जन-महत्त्व की योजनाओं पर धन व्यय करने का अधिकार प्राप्त करती है। इस प्रकार बनी योजनाओं के प्रचार संबंधी विज्ञापनों में सत्तारूढ़ दल के राजनेताओं की तस्वीरें छापने का कोई वैधानिक औचित्य नजर नहीं आता। देखने में आता है कि सरकारी विज्ञापनों का आधे से अधिक स्थान सत्तारूढ़ दल के लोगों की तस्वीरों से आच्छादित होता है। विज्ञापन मुफ्त में नहीं छपते। इसके लिए सरकारी खजाने से मोटी रकम देनी पड़ती है। राजनीतिक व्यक्तियों की तस्वीरों के बिना भी जानकारियां और सरकारी संदेश जनता तक पहुंचाए जा सकते हैं।

 

अति उत्साही नौकरशाह इस प्रकार के चित्रों वाले विज्ञापनों को यह कह कर सही ठहराने का प्रयास करते हैं कि इससे जनता को अपने नेताओं से प्रेरणा लेने का अवसर प्राप्त होता है। जनता नेताओं में अपने आदर्श ढूंढ़ा करती है। इसलिए नेताओं के चित्र सरकारी विज्ञापनों में छापे जाते हैं। तर्क में दम कम, चापलूसी ज्यादा नजर आती है। सरकारी विज्ञापनों में जिन नेताओं के चित्र प्राय: छपते हैं उनका सरोकार सक्रिय राजनीति से होता है।

 

जनता के पैसे से छपने वाले विज्ञापनों के माध्यम से चुनावी राजनीति से जुड़े व्यक्तियों का महिमा-मंडन और प्रचार किसी भी दृष्टि से उचित नहीं ठहराया जा सकता। चुनावी राजनीति से जुड़ा हुआ व्यक्ति हमेशा सर्वमान्य और सर्वप्रिय प्रेरणा-प्रतीक नहीं होता है। उसके अनेक राजनीतिक विरोधी हो सकते हैं। चुनावी राजनीति की फितरत ही ऐसी है कि कई बार विवादास्पद और दागी व्यक्तियों को भी सत्ता के शीर्ष पर पहुंचा दिया करती है। सरकारी धन से इस प्रकार के राजनीतिक व्यक्तियों के प्रचार पर हमेशा सवाल उठाए जाते रहेंगे। चुनावी वर्ष में इस प्रकार की आपत्ति और भी अधिक प्रासंगिक हो जाती है।

 

सरकार की उपलब्धियों को लोगों तक पहुंचाना जन-संपर्क विभाग का दायित्व होता है। इस प्रकार जागरूक होकर जनता सरकार के कामकाज का आकलन करती है। इस प्रकार का आकलन लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करता है। पर यह याद रखना चाहिए कि गणतंत्र में गण का महत्त्व होता है, व्यक्ति का नहीं। प्रजातंत्र में जनता प्रतिनिधि चुनती है, अधिनायक नहीं। विज्ञापनों में सरकार द्वारा पेश की जा रही जानकारियों और उपलब्धियों के पिटारे में से आने वाली अधिनायकवाद की बू लोकतांत्रिक ढांचे को विकृत करती है। इससे व्यक्तिवाद को पनपने का मौका मिलता है जिससे लोकतंत्र कमजोर होता है।

 

सरकारी संस्थानों और योजनाओं के नामकरण का मुद््दा भी इसी से जुड़ा हुआ एक अन्य महत्त्वपूर्ण विचारणीय विषय है। राजनीतिक दलों के संस्थापकों और पूर्व के नेताओं के नाम पर सरकारी योजनाएं शुरू करने की होड़ सत्तारूढ़ होने वाले राजनीतिक दलों में देखी जा सकती है। कई बार यह भ्रम होने लगता है कि इस प्रकार नामित संस्थान सरकारी है या व्यक्तिगत। यह होड़ तब और भी हास्यास्पद लगती है जब परिवार की राजनीतिक विरासत संभाल रहे अग्रज अपने ही पूर्वजों के नाम पर सरकारी योजनाओं और संस्थानों का नामकरण करने लगते हैं।

 

 

सरकारी योजनाओं को राजनीतिक व्यक्तियों के नाम पर प्रचारित करके दल-विशेष चुनावी राजनीति में निश्चित ही लाभ की स्थिति में आ जाता है। इससे लोकतंत्र की मर्यादा पर आंच आना स्वाभाविक है। यह विचारणीय है कि क्या सरकारी योजनाओं और संस्थानों को किसी व्यक्ति-विशेष का नाम देना इतना जरूरी है? अगर सरकारी संस्थानों और योजनाओं का नामकरण सर्वमान्य समाज सुधारकों, आजादी के परवानों या किसी भी क्षेत्र में राष्ट्र का नाम रोशन करने वालों के नाम पर होगा तो इसमें किसी को एतराज नहीं होगा।

 

माधव मेनन समिति ने सुझाव दिया है कि केवल राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों की तस्वीरें ही सरकारी विज्ञापनों के साथ छापी जानी चाहिए। इक्कीसवीं सदी का भारत इस सुझाव से शायद ही सहमत हो। इस सुझाव के संभावित औचित्य को समझना भी जरूरी है। इसका एकमात्र औचित्य यही हो सकता है कि जनता अपने अधिनायकों को जाने और पहचाने। इसके विरोध में पहला तर्क यह है कि प्रजातंत्र में जनता ही सर्वोच्च अधिनायक होती है, किसी पद पर बैठा हुआ व्यक्ति नहीं। दूसरे, घर-घर में मौजूद टेलीविजन और हर हाथ में उपलब्ध मोबाइल फोन ने हमारे राष्ट्राध्यक्षों और राजनीतिक नेताओं की तस्वीरों को जन-साधारण तक बखूबी पहुंचा दिया है। क्या इससे और अधिक उन्हें जानने और पहचानने की आवश्यकता प्रतीत होती है?

 

राष्ट्राध्यक्षों की तस्वीरों को जन-जन तक पहुंचाना उस समय की आवश्यकता थी जब संचार और प्रचार माध्यम आम आदमी की क्षमता से बाहर थे। एक बात और समझ लेने की जरूरत है। भारत के राष्ट्रगान में महिमा-मंडित ‘जन-गण-मन अधिनायक’ का तात्पर्य राष्ट्राध्यक्ष या सत्तारूढ़ राजनेताओं से कदापि नहीं है। अभी तक शायद हम यही भूल कर रहे हैं। भारतीय गणतंत्र का ‘जन-गण-मन अधिनायक’ कोई व्यक्ति नहीं है, बल्कि वह प्राकृतिक सत्ता है जिसके विभिन्न स्वरूपों का गुणगान राष्ट्रगान की अगली पक्तियों में किया गया है। राजनीतिक सत्ता को प्राकृतिक सत्ता का प्रतीक समझ कर महिमा-मंडित करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं ठहराया जा सकता। अधिनायकवाद को पोषित करना गुलामी की मानसिकता का द्योतक है। एक प्रजातांत्रिक राष्ट्र को व्यक्तिवाद की जंजीरों से जितना जल्दी हो सके, मुक्त हो जाना चाहिए।

 

चुनावी वर्ष में व्यक्तिवादी सरकारी मानसिकता की पराकाष्ठा के दर्शन सहज ही हो जाते हैं। इसके लिए चुनाव के ठीक पहले किसी भी राज्य के सरकारी विज्ञापनों पर एक नजर दौड़ाना जरूरी हो जाता है। प्रदेश को किसी एक राजनीतिक व्यक्ति की धरोहर बता कर उसके नाम पर प्रदेश की पहचान स्थापित करने का प्रयास प्रशासनिक दिवालियापन ही कहा जा सकता है। छद्म तरीके से शब्द-जाल बुन कर सरकारी विज्ञापनों में आंकड़ों का हर दस मिनट बाद प्रसारण क्या साबित करता है? एक ही व्यक्ति का चेहरा बार-बार दिखा कर सरकारी विज्ञापन क्या संदेश देना चाहते हैं? माधव मेनन समिति ने ठीक ही कहा है कि सरकारी विज्ञापनों के जरिए सत्तारूढ़ दल को लाभ दिलाने और विपक्ष की आलोचना करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।

 

सरकार के जन संपर्क विभाग का अच्छा-खासा बजट होता है। प्राय: देखने में आया है कि सरकार की उपलब्धियों को प्रचारित करने के साथ-साथ इस धन का प्रयोग सत्तारूढ़ दल के व्यक्तियों की छवि निखारने में भी होता है। माधव मेनन समिति ने सुझाव दिया है कि इन खर्चों की लेखा परीक्षा होनी चाहिए। अक्सर देखने में आता है कि जन संपर्क विभाग के अधिकारी सभी मीडिया समूहों के साथ एक समान व्यवहार नहीं करते हैं। भेदभाव करके कुछ समूहों को विज्ञापन देने के मामलों को तरजीह दी जाती है। इस प्रकार के भेदभाव को दूर किया जाना चाहिए।

 

यह भी विचारणीय है कि क्यों न सरकारी विज्ञापनों में दी जाने वाली सूचनाएं और संदेश आम खबर के रूप में जनता तक पहुंचाए जाएं? इससे मीडिया जगत को समाज के प्रति उनकी सामाजिक जिम्मेदारी निभाने का अवसर भी प्राप्त होगा और सरकारी विज्ञापनों पर होने वाला अनावश्यक सरकारी खर्च भी बचेगा। प्रत्येक सरकार का जन संपर्क विभाग अपनी मासिक पत्रिका छापता है। यह समझ से परे है कि उस पत्रिका के माध्यम से सरकारी सूचनाएं जनता तक क्यों नहीं पहुंचाई जातीं?

 

माधव मेनन समिति ने सुझाव दिया है कि सरकारी विज्ञापनों से संबंधित विभिन्न देशों के प्रावधानों का अध्ययन करके और राजनीतिक दलों से विचार-विमर्श करके स्पष्ट दिशा-निर्देश तैयार किए जाएं। यह सुझाव अच्छा है, पर राजनीतिक दल इस विषय पर एकमत होंगे इसमें संदेह है। इन दिशा-निर्देशों को तैयार करने का काम भारत के पूर्व महा लेखा परीक्षकों के समूह पर आधारित निष्पक्ष समिति ही कर सकती है। अदालती मोहर के बिना इस प्रकार के दिशा-निर्देशों के क्रियान्वयन पर भी संदेह है।

 

समालोचना और आलोचना के गलियारों से गुजरने के बाद ही जन-महत्त्व के मुद््दों पर निर्णय होने चाहिए। माधव मेनन समिति ने अपना काम कर दिया है। अदालत ने सरकार को प्रशासनिक सक्रियता दिखाने के लिए प्रेरित किया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि शीघ्र ही अच्छे परिणाम सामने आएंगे।

 

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