के विक्रम राव
जनसत्ता 9 अक्तूबर, 2014: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अरुणाचल प्रदेश को भारतीय भू-भाग शी चिनफिंग से मनवा नहीं पाए। मुद्दा टल गया। शी ने सुझाया होगा कि वार्ता व्यापार पर केंद्रित रहे, भूगोल पर न बहके। लेकिन प्रधानमंत्री को राष्ट्र को जवाब देना चाहिए था कि किरण रिजिजू को सीमा-वार्ता से ही नहीं, चीन के दल की पूरी यात्रा से ही क्यों दूर रखा गया? केवल इसलिए कि वे अरुणाचल के सांसद हैं, जिसे विस्तारवादी चीन अपना उपनिवेश मानता है? रिजिजू केंद्रीय गृह राज्यमंत्री हैं। अरुणाचल से भाजपाई सांसद हैं। इसीलिए यह शी को नागवार गुजरा। संकोची मोदी ने अरुणाचल मसला छेड़ कर छोड़ दिया, मुद््दा नहीं बनाया। वही नेहरू-इंदिरा वाली फितरत की मुसीबत कि पर्वत को चढ़ कर पार न कर पाओ तो उसके बगल से गुजर जाओ। टाल जाओ। चाउएन लाइ के सामने जवाहरलाल नेहरू इस पूर्वोत्तर प्रदेश के मामले में आत्मसंशय से ग्रस्त थे। दावा ढीला रखा। ली शियान्निन के सामने महाशक्तिशाली इंदिरा गांधी झिझकती रहीं, हू जिनताओ के सामने मनमोहन सिंह ठिठके रहे, और उसके पहले राजीव गांधी भी अपनी चीन यात्रा पर केवल रुपया-आना-पाई वाले व्यापार की चर्चा करते रहे।
सबसे कमजोर रहे अटल बिहारी वाजपेयी, जो जियांग जेमिन से मनुहार करते रहे सहयोग के लिए। 26 जून, 2003 को बेजिंग में तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री को चीन ने शांति पुरुष के पुरस्कार से नवाजा था। उस समारोह के चंद घंटों पूर्व, अरुणाचल के नगर आसाफिला में चीन की सेना ने दस भारतीय जवानों को बंदी बना लिया था, क्योंकि वे अरुणाचल की सीमा के अंदर कथित घुसपैठ कर रहे थे। यह घटना अटलजी से उनके अमले ने गुप्त रखी, क्योंकि तब भारत-चीन व्यापार वार्ता में खटास पैदा हो जाती।
वही अटलजी मोदी के आदर्श हैं। शायद इसीलिए केवल दस किलोमीटर दूर चीन की सीमा पर इटानगर की चुनावी सभा (अप्रैल 2014) में गरजने वाले मोदी दिल्ली में शी चिनफिंग के समक्ष बरस नहीं पाए। मोदी तो बहुमत-प्राप्त दल की सरकार के नेता हैं, स्वभाव से दबंग हैं, अपनी जिद मनवाने में महारत रखते हैं, क्यों संकोची रहे? अरुणाचल का हृदय है तवांग, जिसके समीपस्थ भाग पर चीन का आधा कब्जा है। इस दस हजार फुट ऊंचे बौद्ध धर्मस्थल को नास्तिक चीन छीनना चाहता है। देंग शियाओ पेंग ने राजीव गांधी की 1988 में चीन यात्रा पर कहा था कि तवांग ही दे दें तो चीन संतुष्ट हो जाएगा। मनमोहन सिंह के राज में ही 30 अक्तूबर, 2007 को चीन की सेना ने तवांग की बौद्ध मूर्ति को तोड़ डाला था, क्योंकि भारतीय सेना ने उस मूर्ति को अन्यत्र हटा कर लगाने से इनकार कर दिया था। इसी संदर्भ में चीन की मांग थी कि अक्साई चिन को छोड़ कर भारत शेष लद््दाख को रख ले। अक्साई चिन क्षेत्र से चीन और पाकिस्तान का सड़क मार्ग है।
इसलिए प्रश्न उठता है कि अरुणाचल से दिल्ली के इन शासकों की ऐसी भी क्या बेरुखी है। पीछे चलें। स्वतंत्रता के प्रारंभिक वर्षों के दौर में। सन 1956 में अक्तूबर का ही महीना था जब भारतीय प्रतिनिधि बीएन चक्रवर्ती ने संयुक्त राष्ट्र के अधिवेशन में कम्युनिस्ट चीन को मान्यता और सदस्यता देने का फिर से आग्रह-भरा प्रस्ताव पेश किया था। हालांकि उसी तारीख की सुबह चीन की लाल सेना पूर्वोत्तर (अरुणाचल) प्रदेश के कई मील अंदर तक आ गई थी। भारत पर चीन हमला कर चुका था। उसी बैठक में युगांडा के प्रधानमंत्री मिल्टन ओबोटे ने सुझाया था कि पहले चीन (अरुणाचल प्रदेश में) युद्ध-विराम घोषित करे, फिर उसकी सदस्यता पर चर्चा हो। मगर नेहरू सरकार के प्रतिनिधि ने भारत-मित्र ओबोटे का प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। तब तक हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा पूरी तरह मंद नहीं पड़ा था।
आखिर अपने ही पूर्वोत्तर प्रदेश पर सार्वभौम अधिकार के लिए भारत का ऐसा कातर व्यवहार क्यों? गौर कीजिए इन तथ्यों पर। आम अरुणाचली अभिवादन में ‘जय हिंद’ कहता है। वहां कतिपय पड़ोसी प्रदेशों की भांति अलगाववादी आंदोलन कभी नहीं चले, वहां कारागार नहीं निर्मित हुए। पांच दशक पूर्व जब चीन ने हमला किया था तो अरुणाचली किसानों और गृहणियों ने भारतीय फौजियों को अन्न, आश्रय और सूचना मुहैया कराई थी। मोदी को अपनी कूटनीतिक व्यस्तता में शायद स्मरण नहीं रहा कि अरुणाचली सब बौद्ध होते हैं, जिनके इष्टदेव दलाई लामा को भारत में सम्मान दिया जाता है।
ऐसी संकल्प शक्ति का अभाव दशकों से भारत सरकार में दिखता है, जब बार-बार चीन अरुणाचल-वासियों को अपने यहां आने के लिए वीजा नहीं देता। चीन की जिद है कि अरुणाचल पर तो उसका दावा बनता है, इसलिए वहां के निवासियों को चीन जाने के लिए कैसा वीजा? भारत मूकदर्शक की भांति अपने ही स्वजनों और अपने ही भूभाग के प्रति चीन का यह व्यवहार देखता रहता है।
तब संयुक्त मोर्चा की गुजराल-देवगौड़ा की सरकार थी। उनकी विदेश राज्यमंत्री कमला सिन्हा ने राज्यसभा को बताया कि अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री गेगोंग अपांग को चीन ने वीजा देने से इनकार कर दिया। वामपंथी, विदेश नीति के माहिर इंद्रकुमार गुजराल दुरूहता को टाल गए।
दिसंबर 2007 में लगभग सौ-सदस्यीय आइएस अधिकारियों को चीन यात्रा रद््द करनी पड़ी, क्योंकि अरुणाचल के गणेश कोयू को चीन ने वीजा नहीं दिया। यहां इस तथ्य को भी स्मरण कर लें कि सत्रह वर्षों तक कोई भी भारतीय प्रधानमंत्री अरुणाचल नहीं गया। पिछले वर्ष मनमोहन सिंह गए थे, क्योंकि भारत की जनता के इस सवाल का दबाव था कि क्या अरुणाचल प्रधानमंत्री के लिए वर्जित है। हालत आज ऐसी है कि लुम्ला से कांग्रेसी विधायक टीजी रिम्पोची ने अप्रैल 2008 में चीन की विस्तारवादी नीति के विरोध में जन-प्रर्दशन करना चाहा तो सरकार ने उस पर पाबंदी लगा दी थी।
भौगोलिक, राजनीतिक और ऐतिहासिक तथ्यों के अलावा भी अरुणाचल को भारत का हिस्सा मानने का एक बड़ा तर्क है जिसे विश्व मानता है।अंतरराष्ट्रीय कानून भी स्वीकार करता है। महर्षि रिचीक के पौत्र, साधु जमदग्नि के पुत्र विप्र-शिरोमणि परशुराम का आश्रम अरुणाचल में है। बौद्ध स्तूप यहां सदियों पूर्व बने थे। कालिका पुराण के अनुसार ऋषि शांतनु और उनकी पत्नी अमोधा यहां आश्रम बना कर रहते थे। मास्य पुराण में अरुणाचल के मालिनीथान भूभाग की मिट्टी का विशद उल्लेख है। कालिका पुराण के अनुसार यहीं पार्वती ने कृष्ण को सत्यभामा से उनके विवाह पर फूल भेंट किए थे। कृष्ण ने पार्वती को मालिनी समझ कर इस भूभाग को मालिनी क्षेत्र कहा था।
प्रधानमंत्री मोदी ने चाणक्य का गहन अध्ययन किया है। कौटिल्य के अनुसार शठ चीन को शठता से ही जवाब देना चाहिए। विदेशमंत्री सुषमा स्वराज चीन को सचेत कर चुकी हैं कि हम एक चीन की नीति का अनुसरण करते हैं जिसके तहत ताइवान और तिब्बत चीन के प्रदेश हैं, उसी पैमाने से चीन को भी एक भारत के सिद्धांत को दृढ़ता से मानना चाहिए। वरना मोदी ताइवान से मैत्री संबंध बढ़ा सकते हैं जैसा अमेरिका और कई राष्ट्रों ने किया है। उसी प्रकार तिब्बत के मानवाधिकार के मसले को भारत विश्व-मंचों पर उठाए, जैसे पाकिस्तान चीन की सांठगांठ से कश्मीर का प्रश्न उठाता रहता है। विदेश नीति राष्ट्र-हित पर आधारित होती है, परंपरा की बेड़ियों से जकड़ी नहीं रहती। लिहाजा, भारत ताइवान के नागरिकों को अलग से मान्यता दे और वहां अपना दूतावास बनाए। मगर ऐसा निर्णय करना कलेजेवाली बात हो जाती। शौर्य भरा कदम होता।
एक तात्कालिक नीति मोदी अपना सकते हैं। उइगर मुसलमानों पर चीन की हुकूमत सितम ढा रही है। इस्लामी पाकिस्तान की चीन से यारी है, इसलिए वह खामोशी बनाए हुए है। मगर सेक्युलर भारत को तो इन मजलूमों के लिए दुनिया में आवाज बुलंद करनी चाहिए। आखिर चीन की केंद्रीय सरकार से इन उइगर मुसलमानों ने मांगा क्या था? बस वे अधिकार, जिनका भारत में हर मुसलमान दशकों से निर्बाध रूप से उपभोग कर रहा है।
उइगर लोग चाहते हैं कि उन्हें जुम्मे की नमाज मस्जिदों में अता करने दी जाए, वजू करने के लिए नल का पानी वहां पर मिले। हज यात्रियों की संख्या में की गई कटौती खत्म हो। पचास वर्ष से कम आयु वालों को हज पर जाने की इजाजत वापस दी जाय, अठारह वर्ष से कम उम्र वालों को मस्जिद प्रवेश की अनुमति दी जाय। उनकी मातृभाषा तुर्की को सीखने पर लगी पाबंदी हटा ली जाय और उन पर मंडारिन भाषा न लादी जाय।
उइगर साहित्य को अरबी लिपि में ही रहने दिया जाय, मजहबी किताबों की बिक्री पर से पाबंदी हटाई जाय, पाक कुरान का सरकारी संस्करण न थोपा जाय, मदरसे के सील खोल दिए जाएं, पुनर्शिक्षित करने के नाम पर बंदी शिविरों में अकीदतमंदों को जबरन नास्तिक न बनाया जाय। सरकारी दफ्तरों में नमाज पढ़ने के लिए अल्पावकाश का प्रावधान किया जाय। उनकी रिहाइशी बस्तियों में घेंटी का गोश्त न बेचा जाय। उनके अपने रोजगार में बहुसंख्यक हान वर्ण के चीनीजन को वरीयता न दी जाय। उनकी ऐतिहासिक राजधानी काशगर में विश्व धरोहर करार दी गर्इं इमारतें ध्वस्त कर आवासीय कॉलोनी और शॉपिंग मॉल न बनाए जाएं।
मोदी सरकार से इसी सिलसिले में सवाल पूछा जाए कि शी चिनफिंग से अरुणाचल को भारतीय कहने में हिचके क्यों? यहां लोकसभा की बहस के एक अंश की याद दिलाना प्रासंगिक होगा। तब (1956) रक्षामंत्री कृष्ण मेनन ने कहा था कि जिस सीमावर्ती क्षेत्र पर चीन ने कब्जा किया है वह बंजर है। वहां घास भी नहीं उगती। तब देहरादून के कांगे्रसी सांसद महावीर त्यागी ने पूछा कि ‘मेरी गंजी खोपड़ी पर भी कुछ नहीं उगता है। तो उसे भी चीन को दे देंगे?’ तब नेहरू केवल मुस्कराए थे। आज लॉर्ड कर्जन की 1903 में कही बात याद कर लें, ‘‘हिमालय आज भारत की रक्षा करता है। वक्त आएगा कि भारत को हिमालय को बचाना होगा।’’ सरदार पटेल, फिर बाद में लोहिया ने बहुत पहले इसे दुहराया था। नेहरू सरकार मूक रही। आज यह सब उसी का परिणाम है।
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