अरुण तिवारी
जनसत्ता 13 अक्तूबर, 2014: एक वकील के घर मिलन के अवसर पर लोकमान्य तिलक द्वारा गुलामी को राजनीतिक समस्या बताने की प्रतिक्रिया में स्वामी विवेकानंद ने कहा था: ‘परतंत्रता राजनीतिक समस्या नहीं है। यह भारतीयों के चारित्रिक पतन का परिणाम है।’ बापू को लिखी एक चिट्ठी के जरिए लॉर्ड माउंटबेटन ने भी चेताया था: ‘मिस्टर गांधी , क्या आप समझते हैं कि आजादी मिल जाने के बाद भारत-भारतीयों द्वारा चलाया जाएगा। नहीं! बाद में भी दुनिया गोरों द्वारा ही चलाई जाएगी।’ यही बात बहुत पहले अपनी आजादी के लिए अकबर की शहंशाही फौजों से नंगी तलवार लेकर जंग करने वाली चांदबीबी की शौर्यगाथा का गवाह बने अहमदनगर फोर्ट में कैद ब्रितानी हुकूमत के एक बंदी ने एक पुस्तक में लिखी थी।
‘ग्लिम्सिस आॅफ वर्ल्ड हिस्ट्री’ के जरिए जवाहरलाल नेहरूने संयुक्त राज्य अमेरिका के आर्थिक साम्राज्यवाद का खुलासा करते हुए 1933 में लिखा था- ‘‘सबसे नए किस्म का यह साम्राज्य जमीन पर कब्जा नहीं करता; यह तो दूसरे देश की दौलत या दौलत पैदा करने वाले संसाधनों पर कब्जा करता है। आधुनिक ढंग का यह साम्राज्य अांखों से ओझल आर्थिक साम्राज्य है।’’ आर्थिक साम्राज्य फैलाने वाली ऐसी ताकतें राजनीतिक रूप से आजाद देशों की सरकारों की जैसे चाहे लगाम खींच देती हैं। इसके लिए वे कमजोर, छोटे और विकासशील देशों में राजनीतिक जोड़-तोड़ और षड्यंत्र करती रहती हैं।
दुर्योग से कालांतर में देश ने इन दर्ज बयानों को याद नहीं रखा। आजादी के बाद कांग्रेस को भंग कर लोक सेवक मंडल के गठन के गांधी-संदेश की दूरदृष्टि को भी देश भूल गया। स्मृति विकार के ऐसे दौर में भारतीय लोकनीति, रीति और प्रकृति और संस्कार की सुरक्षा कैसे हो? यह बेचैनी अभी अलग-अलग है, कल एकजुट होगी, यह तय है। यह भी तय है कि यह एकजुटता एक दिन रंग भी लाएगी। अब आपको-हमें तय सिर्फ यह करना है कि इस रंग को आते देखते रहें या रंग लाने में अपनी भूमिका तलाश कर उसकी पूर्ति में जुट जाएं। आकलन यह भी करना है कि अंधेरा क्यों हुआ? रोशनी किधर से आएगी?
अदृश्य आर्थिक साम्राज्यवाद के दृश्य हो जाने के बावजूद हम इसके खतरों की लगातार अनदेखी कर रहे हैं। खतरों को सतह पर आते देख, उनका समाधान तलाशने के बजाय, सत्ता खतरों के प्रति आगाह करने वालों को ही अप्रासंगिक बनाने में लग जाती है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि आजादी के बाद से आज तक महात्मा गांधी का नाम लेना हम कभी नहीं भूले, लेकिन खादी के चरखे से निकले ग्राम स्वावलंबन और आत्मसंयम के गांधी निर्देश को हमने सात समंदरों की लहरों में बहा दिया।
हमारे राजनेता भूल गए हैं कि सत्ता का व्यवहार, सत्ता के आत्मविश्वास की नाप हुआ करता है। जब कभी किसी अनुत्तरदायी सत्ता को लगता है कि उसका भेद खुल गया, वह टिक नहीं पाएगी, तो वह दमन, षड्यंत्र और आतंक का सहारा लिया करती है। आज वह समय है कि जब जनमत चाहे कुछ भी हो, लोककल्याण चाहे किसी में हो, सत्ता वही करेगी, जो उसे चलाने वाले आर्थिक आकाओं द्वारा निर्देशित किया जाएगा। सत्ता के कदम चाहे आगे चल कर अराजक सिद्ध हों या देश की लूट का प्रवेश-द्वार… सत्ता को कोई परवाह नहीं है। विरोध होने पर वह थोड़ा समय ठहर भले जाए… कुछ समय बाद रूप बदल कर वह उसे फिर लागू करने की जिद नहीं छोड़ती; जैसे उसने किसी को ऐसा करने का वादा कर दिया हो। भारतीय संस्कार के विपरीत यह व्यवहार आज सर्वव्यापी है।
भारत की छवि आज निवेश के भूखे राष्ट्र की बनती जा रही है। वर्तमान सरकार के एजेंडे में इस भूख की पूर्ति पहली प्राथमिकता है। ऐसा लगता है कि इस बेताबी में आर्थिक साम्राज्यवाद के खतरों के प्रति सावधान होने का समय उसके पास नहीं है। बावजूद इसके सच है कि ठीकरा सिर्फ आर्थिक साम्राज्यवाद की साजिशों के सिर फोड़ करनहीं बचा जा सकता। कारण और भी हैं।
नरेंद्र मोदी, सत्ता के प्रति लोगों में विश्वास जगाने की कोशिश कर जरूर रहे हैं, पर उनके विरोधाभासों के साथ-साथ अगर हम भारत के पूरे राजनीतिक परिदृश्य पर नजर डालें, तो लोगों की निगाह में राजनीति का चरित्र अभी संदिग्ध ही है। उत्तर प्रदेश पुलिस एक साल के बच्चे को भी दंगे का आरोपी बना सकती है। एक तरफ संविधान के रखवालों के प्रति यह अविश्वास है, तो दूसरी ओर दंगे के दागियों को सम्मानित करना सत्ता का नया चरित्र बन कर उभर रहा है। एक रुपया तनख्वाह लेने वाली मुख्यमंत्री की संपत्ति का पांच साल में बढ़ कर तैंतीस गुना हो जाना विश्वासघात की एक अलग मिसाल है।
लोकतंत्र में नागरिकों की उम्मीदें जनसेवकों और जनप्रतिनिधियों पर टिकी होती हैं। प्रधानमंत्री अपने को भले ही प्रधान सेवक कहते हों, लेकिन हकीकत यही है कि हमारे जनसेवकों और जनप्रतिनिधियों ने जन-जीवन से कट कर अपना एक ऐसा अलग रौबदाब और दायरा बना लिया है जैसे वे औरों की तरह के हाड़-मांस के न होकर कुछ और हों। प्रचार और विज्ञापन की नई संचार संस्कृति ने उन्हें जमीनी हकीकत और संवाद से काट दिया है। सत्ता के प्रति लोकास्था शून्य होने की यह एक बड़ी वजह है। एक तरह से सत्ता के प्रति जनता ‘कोउ नृप होय, हमैं का हानी’ का उदासीन भाव ग्रहण चुकी है। किसी भी लोकतंत्र के लिए इससे ज्यादा खतरनाक बात कोई और नहीं हो सकती।
हमारे माननीय जिस संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ लेते हैं, शायद ही कभी उसे पढ़ने की जरूरत समझते हों। और तो और, वे जिस पार्टी के सदस्य होते हैं, जिन आदर्शों या व्यक्तित्वों का गुणगान करते नहीं थकते, ज्यादातर उनके विचारों या लिखे-पढ़े से ही परिचित नहीं होते। इसीलिए हमारे राजनेता और राजनीतिक कार्यकर्ता न तो संविधान के अनुपालन के प्रति और न ही अपने दलों के प्रेरकों के संदेशों के अनुसरण में कोई रुचि रखते हैं। लिहाजा, पार्टियां भिन्न होने के बावजूद हम कार्यकर्ताओं और राजनेताओं के चरित्र में बहुत भिन्नता नहीं पाते।
दो बरस पहले इतिहास ने करवट ली। जेपी की संपूर्ण क्रांति के दौर के बाद जनमानस एक बार फिर कसमसाया। वैश्विक महाशक्तियों द्वारा भारत को अपने आर्थिक साम्राज्यवाद की गिरफ्त में ले लेने की लालसा के विरुद्ध धुआं उठा भी। लेकिन दुर्भाग्य है कि यह मौका उस दौर में आया, जब बुद्धिजीवी ही नहीं, प्रधानमंत्री से लेकर प्रधान, पंच और गांव के आखिरी आदमी तक राजनीति की चारित्रिक गिरावट की चपेट में थे। हाशिये के लोगों की बात करने वाले खुद हाशिये पर धकेले जा रहे थे। लिहाजा, वह धुआं न आग बन सका और न ही किसी बड़े वैचारिक परिवर्तन का सबब; वह धुआं सत्ता परिवर्तन का माध्यम बन कर रह गया।
गौर करने की बात है कि यह आचार संहिताआें के टूटने का ही नहीं, उसके व्यापक दुष्प्रभाव का भी दौर है। जेपी ने इस बारे में कहा था- ‘‘अज्ञात युगों से ऐसे राजनीतिज्ञ होते चले आयें हैं, जिन्होने यह प्रचारित किया है कि राजनीति में आचार नाम की कोई चीज नहीं है। पुराने युगोंं में यह अनैतिकवाद फिर भी राजनीति का यह खेल करने वाले एक छोटे से वर्ग से बाहर अपना दुष्प्रभाव नहीं फैला सका था। अधिसंख्य लोग राज्य के नेताओं और मंत्रियों के आचरणों से दूषित होने से बचे रहते थे। परंतु सर्वाधिकारवाद, का उदय हो जाने से यह अनैतिकतावाद विस्तार के साथ लागू होने लगा है। यह ऐसा सर्वाधिकारवाद है, जिसके भीतर नाजीवाद-फासीवाद और स्तालिनवाद सभी शामिल है। आज समाज का प्रत्येक व्यक्ति इसकी चपेट में आ गया है।’’
हालांकि भारत में अभी आर्थिक विषमता और असंतुलन ऐसे चरम पर नहीं पहुंचा है कि समझ और समझौते के सभी द्वार बंद हो गए हों। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि समाज और सत्ता के बीच जो समझ और समझौता विकसित होता दिख रहा है, उसकी नींव भी अनैतिकता पर ही टिकी है- ‘तुम मुझे वोट दो, मैं तुम्हें खैरात दूंगा।’
भारत जैसे लोकतंत्र में चुनाव का मतलब बीते पांच वर्षों के कार्यों के आकलन और अगले पांच वर्षों के सपने को सामने रख कर निर्णय करना होना चाहिए। पिछले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में ही एक वरिष्ठ राजनीतिज्ञ ने इसे युद्ध की संज्ञा देते हुए कहा- ‘प्रेम और युद्ध की कोई आचार संहिता नहीं होती।’ नजरिया सचमुच इस स्तर तक गिर गया है। जनप्रतिनिधि बनने का मतलब जनप्रतिनिधित्व नहीं, राजभोग समझ लिया गया है। जनता भी वोट का बटन दबाते वक्त तमाम नैतिकताओं और उत्तरदायित्वों को ताक पर रख कर जाति, धर्म और निजी लोभ-लालच के दायरे को प्राथमिकता पर रखती है। उम्मीदवार से ज्यादा अक्सर पार्टी ही प्राथमिकता पर रहती है। इस नजरिए का ही नतीजा है कि आज हमने ‘इतना तो चलता है’ मान लिया है। यही कारण है कि आज सारी आचार संहिताएं नष्ट होती नजर आ रही हैं।
इतिहास गवाह है कि जब-जब सत्ताएं गिरावट के ऐसे दौर में पहुंची हैं, हमेशा वैचारिक शक्तियों ने ही डोर संभाल कर सत्ता की पतंग को अनुशासित करने का उत्तरदायित्व निभाया है। इसके लिए उन्हें दंडित, प्रताड़ित और निर्वासित तक किया जाता रहा है। दलाई लामा, नेल्सन मंडेला और आंग सू ची से लेकर दुनिया के कितने ही उदाहरण अंगुलियों पर गिनाए जा सकते हैं। अतीत में सत्ता को अनुशासित करने की भूमिका में कभी गुरु बृहस्पति और शुक्राचार्य का गुरुभाव, कभी भीष्म का राजधर्म, कभी अयोध्या का लोकानुशासन, कभी कौटिल्य का दुर्भेद्य राजकवच, कभी मार्क्स-एंगेल्स का कम्युनिस्ट घोषणापत्र तो कभी गांधी-विनोबा का राजनीतिक नैतिकतावाद दिखाई देता रहा है। आजाद भारत में यही भूमिका राममनोहर लोहिया के प्रखर समाजवादी विचारों और जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन ने निभाई।
नैतिक गिरावट के इस दौर में नतीजे की परवाह किए बगैर वे जुटें, जिनके प्रति अब भी लोकास्था जीवित है, जिनसे छले जाने का भय किसी को नहीं है। बगैर झंडा-बैनर के हर गांव-कस्बे में ऐसे व्यक्ति आज भी मौजूद हैं, जो लोक को आगे रखते हुए स्वयं पीछे रह कर दायित्व निर्वाह करते हैं। राष्ट्रभक्त महाजनों को चाहिए कि वे ऐसे व्यक्तियों की तलाश कर उनके भामाशाह बन जाएं। गड़बड़ वहां होती है, जहां व्यक्ति या बैनर आगे और लोक तथा लक्ष्य पीछे छूट जाते हैं।
जिस दिन ऐसे व्यक्तित्व छोटे-छोटे समुदायों को उनके भीतर की विचार और व्यवहार की नैतिकता से भर देंगे, उस दिन भारत पुन: उत्कर्ष की राह पकड़ लेगा।
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