जिस समय यहां सुब्रह्मण्यम स्वामी को एक ‘निजी’ बयान देने के लिए अपनी पार्टी के बड़े पदाधिकारियों द्वारा फटकारा गया, उसी समय ब्रिटेन में गंभीरतम महत्त्व के विषय ‘ब्रेक्सिट’ (यूरोपीय संघ की सदस्यता छोड़ने) पर हर पार्टी के नेता स्वतंत्रता-पूर्वक उस के पक्ष या विरोध में बोल रहे थे। खुल कर अभियान चला रहे थे। आश्चर्य है कि यहां और वहां की दलीय व्यवस्था में इतना बड़ा अंतर्विरोध हमें विचारणीय नहीं लगता! विशेषकर तब, जबकि हमने अपनी पूरी राजनीतिक प्रणाली लगभग ब्रिटिश नकल में ही खड़ी की है। ब्रिटेन में ब्रेक्जिट के दौरान और बाद भी कंजरवेटिव या लेबर पार्टी में विविध नेताओं का सार्वजनिक विमर्श, काम तथा नेतृत्व परिवर्तन के तरीके आदि की तुलना भारतीय दृश्य से करनी चाहिए। आखिर उन्हीं के मॉडल पर पार्टियां बना कर भी, यहां ऐसा क्यों है कि (1) पार्टी सांसदों, नेताओं को हर बात पर बनी-बनाई ‘पार्टी-लाइन’ दुहरानी होती है, वे स्वतंत्र विचार नहीं रख सकते? तथा (2) नेतृत्व के सर्वोच्च पद के लिए सीधे, जनता व पार्टी सदस्यों की पसंद के अनुसार खुला चुनाव क्यों नहीं होता?
यह आज की बात नहीं। भारत में राजनीतिक दलों की कार्य-पद्धति, संगठन और नेतृत्व परिवर्तन के तौर-तरीकों में खुली तानाशाही-मठाधीशी रही है। यह न लोकतांत्रिक है, न इससे देश व समाज का भला हुआ। बेहद लचर लोग तक पार्टी व सत्ता पदों पर नामित होते और आजीवन जमे रहे हैं। संभवत: ब्रिटिश तरीके वाला खुलापन रहता तो ऐसा न होता। सामान्यत: हम किसी भी काम के लिए योग्य, सक्रिय और भरोसे लायक व्यक्ति चुनते हैं। राजनीतिक-सामाजिक कार्य के लिए इससे भिन्न क्यों होता, यदि लोगों को स्वतंत्रता होती? यहां लोकतंत्र अपंग, दिखावटी, इसलिए अकर्मण्यता से सराबोर रहा है। गांधीजी द्वारा शुरू की गई ‘हाई-कमान’ परंपरा ने योग्यता के बदले निजी वफादारी को स्थापित आधार बना दिया। तभी से अधिकतर समस्याएं इस कारण भी बढ़ती, जमती रही हैं। राहुल गांधी, आनंदी बेन, अखिलेश या तेजस्वी यादव- ये सब किस ‘लोकतांत्रिक’ तरीके या ‘योग्यता’ से पार्टी या सत्ता-पदों पर आते रहे हैं? इसे लोकतंत्र या पार्टी संगठन के नियम भी कहना बिलकुल मजाक है।
यहां पार्टी-अनुशासन के नाम पर नेताओं को ऊपरी आलाकमान नामक व्यक्ति की हां-में-हां मिलाते रहना पड़ता है। यह विडंबना है, क्योंकि आम जीवन में, हर पहलू में यूरोपीय लोग भारतीयों से कई गुना अनुशासित होते हैं। यह निर्विवाद है। इसका अर्थ हुआ कि यहां पार्टी में नेताओं, कार्यकर्ताओं का ‘अनुशासन’ वास्तव में कुछ और है। कोई नहीं कह सकता कि ब्रिटेन में राजनीतिक दल अनुशासनहीन हैं। डेविड कैमरन और बोरिस जॉनसन एक ही कंजरवेटिव पार्टी के होते हुए भी ब्रेक्सिट जैसे ऐतिहासिक महत्त्व के मसले पर दो ध्रुवों पर खड़े थे, तो यह सहज माना गया। अर्थात, पार्टी अनुशासन का इससे कोई लेना-देना ही नहीं है। वैसे भी देख सकते हैं, कि विचारों और कार्य की स्वतंत्रता से कंजरवेटिव पार्टी नष्ट नहीं हो गई। न ब्रिटिश समाज को समस्या हुई। बल्कि वहां किसी को इसमें अजीब नहीं लगा, कि किसी पार्टी के विभिन्न नेता किसी विषय पर भिन्न-भिन्न राय रखते हैं।
ब्रिटेन में लोकतंत्र अपनी समझ से बना और विकसित हुआ है, जिसमें स्वतंत्रता, समानता, न्याय और विकास के मायने लोगों ने खुद तय किए हैं- कहीं की थोक नकल से संविधान में केवल लिख नहीं लिये गए। इसलिए लोग उसका अर्थ जानते, मानते और पालन करते हैं। अत: विचारों की स्वतंत्रता यदि कोई मूल्य है, तो किसी पार्टी या नेता की दासता में उसे गिरवी नहीं रखा जा सकता। मगर भारत में पिछले सौ साल से दलीय राजनीति में जनता का उपयोग भेड़-बकरी की तरह किया गया है। उसे पंडाल में बुला कर अपने लिए ताली बजवाने या विरोधी को हूट करवाने में लगाया जाता रहा है। इसलिए पार्टी के सर्वोच्च नेता अपना अधिकार समझते हैं कि नीचे सब उनकी हां में हां मिलाएं। नेता पर कभी यह भार ही नहीं रहा कि विपरीत विचार या आलोचना का उत्तर देकर वह पार्टी सदस्यों और जनता को जीते। पार्टी ‘अनुशासन’ के नाम पर प्रशासनिक-डंडा पद्धति ने ही यहां पार्टियों में प्रतिभा का सत्यानाश किया है।
नतीजतन यहां पार्टी के नेता और अनुयायी, दोनों ही अधिकांश सामाजिक, राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय विषयों में मिट्टी के माधो मिलते हैं। पार्टी-राजनीति के नाम पर उनमें अधिकांश ने प्राय: गुटबाजी और तिकड़में ही की हैं। बरसों यही करते-करते वे सत्ता में भी पहुंच जाते हैं। इसीलिए उनके पास पद, आॅफिस तो होता है, कोई विशेष जानकारी नहीं। सत्ता और स्टाफ मिल जाता है, उनका उपयोग मंत्रीजी को मालूम नहीं। सब कुछ इनाम है, आला-कमान पर निर्भर। जिसे पार्टी सांसदों, विधायकों को आंखें दिखा कर ही पार्टी चलाने के सिवा कोई मार्ग मालूम नहीं। यह तर्कपूर्ण भी है। जो स्वयं किसी का गुलाम बनने को तैयार रहा, वह दूसरों को अपना गुलाम बनाएगा ही। क्योंकि उसने स्वतंत्रता का मूल्य नहीं समझा है। विचार और कार्य-सामर्थ्य उससे सीधे जुड़ा है।
इसीलिए जैसा विचित्र दल-बदल कानून भारत में 1985 में सरलता से पास हो गया, उसकी ब्रिटेन या फ्रांस में कल्पना भी नहीं की जा सकती। 52वें संशोधन द्वारा जोड़ा गया वह कानून लोकतंत्र और भारतीय संविधान की भावना के भी विरुद्ध है। वह सांसदों, विधायकों को संसद, विधानसभा में भी पार्टी-निर्देश पर चलना बाध्यकारी बनाता है। एक तरह से यह संविधान का तख्तापलट था, जिस पर किसी का ध्यान तक नहीं गया! आखिर, राजनीतिक दल कोई संवैधानिक संस्था नहीं। वह स्वैच्छिक संगठन है। मगर दल-बदल कानून के अनुसार दल रूपी संविधानेतर संस्था को सर्वोच्च संवैधानिक संस्थाओं के कार्यचालन में वीटो का अधिकार दे दिया गया! कोई सांसद, विधायक अपने दलीय आदेश के अनुरूप सदन में वोट न दे, या दल त्याग कर दे, तो उसे विधानसभा या संसद की सदस्यता से भी हाथ धोना पड़ेगा! यह पूरी तरह तर्कहीन और असंवैधानिक भी है।
कोई विधायक दलीय निर्देश पर नहीं चला, तो उसे दल से हटाया जा सकता है (हालांकि वह भी प्रश्नीय है), मगर विधानसभा से क्यों? तब तो अर्थ हुआ कि जनता द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचित, संवैधानिक प्रतिनिधि के रूप में जिम्मेदारी की हैसियत दलीय जिम्मेदारी से नीची है। यह प्रावधान राजनीतिक दल को संविधान से भी ऊपर का दर्जा दे देता है! इस तरह, संसद और विधानसभाओं में सही निर्णय लेने में यह एक गंभीर अड़ंगा है। इससे सैकड़ों जनप्रतिनिधि केवल दिखावे के रह जाते हैं। सारे निर्णय दो-चार पार्टियों के नेता लेते हैं। जो तर्क देना चाहें कि यदि विधायक, सांसद को सदन में अपने विचार या निर्णय के लिए दलीय-निर्देश से मुक्त कर दिया जाएगा तब तो उनकी खूब खरीद-बिक्री होगी, तो यह बिलकुल अनर्गल और गुलाम मानसिकता का तर्क है। इसमें निहित अर्थ है, कि सर्वोच्च नेता के सिवा सब विचारहीन, अयोग्य, बिकाऊ आदि हैं। ऐसा अर्थ किसी भी यूरोपीय देश में अपमानजनक समझा जाता। लेकिन यहां नहीं, क्यों?
उक्त कानून यहां सभी सांसदों, विधायकों को मानो बिकाऊ मान कर चलता है। लेकिन इस तर्क से सभी सरकारी अफसरों को भी (कम्युनिस्ट शासनों की तरह) सत्ताधारी दलीय निर्देश से चलाना चाहिए, क्योंकि वे तो फाइलों पर स्व-विवेक से ही निर्णय लेते हैं! दूसरे, जहां तक संसद में किसी मुद््दे पर सांसदों की खरीद-फरोख्त का मामला है, वह तो चालू दलीय-निर्देश बाध्यता में और आसानी से, तथा नियमित हो सकता है। क्योंकि किसी दल के सर्वप्रमुख नेता को ‘मैनेज’ करके पूरे दल को किसी निर्णय के लिए बाध्य किया जा सकता है। यह कई बार देखा-सुना भी जा चुका है। अत: यह तर्क बेतुका है कि सांसद, विधायक तो बिकाऊ होंगे, मगर उनके दलीय प्रमुख नहीं। आखिर उन्हें खरीदता कौन है? सदन में ही दूसरे किसी दल के नेता। व्यवहार में इसका अर्थ यह हुआ कि एक सांसद या विधायक सदन में अपने विवेक से निर्णय लेने की दृष्टि से उतना भी स्वतंत्र नहीं है जितना एक मामूली सरकारी अफसर। यह लोकतंत्र नहीं, पार्टी-तानाशाही है।
अत: किसी भी तरह देखें, तो राजनीतिक कार्यकर्ताओं, विशेषकर निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों को वैयक्तिक रूप से जिम्मेदार बनाना ही श्रेयस्कर है। दलीय नियंत्रण की वर्तमान व्यवस्था सत्यनिष्ठ, कुशल और विश्वसनीय व्यक्तियों को राज्यकर्म क्षेत्र से दूर रखती है। जबकि गलत किस्म के लोगों को खुला बढ़ावा देती, और जमाए रखती है। क्योंकि उन्हें पार्टी के आम सदस्य तक नहीं हटा सकते, क्योंकि उन्हें ‘आला-कमान’ बनाए रहता है। यहां राजनीतिक दलों के सांगठनिक नियम प्राय: पाखंडी हैं। इनके लिखित संविधान, तदनुरूप ‘पार्टी समिति’ के कार्य-अधिकार एक चीज हैं, वास्तविकता कुछ अलग। सभी पार्टियां वस्तुत: अध्यक्षीय तानाशाही से चलती हैं। मगर कागज पर सबने तरह-तरह की सामूहिक व्यवस्था बना रखी है। दिखावा रहता है कि पार्टी के ‘संसदीय बोर्ड’ या ‘कार्यकारिणी’, ‘चुनाव समिति’ आदि ने वह किया।
यह पाखंड उस समस्या की जड़ में है, जिससे हमारे देश में राजनीतिक दलों की गुणवत्ता चौपट रही है। नेता, कार्यकर्ता, सभी अनुत्तरदायी बने रहते हैं क्योंकि पार्टी में उनकी स्थिति अदृश्य तरीके तय करते हैं, उसकी योग्यता या लोकप्रियता नहीं। सांगठनिक नियम हाथी के दांत की तरह खाने के और, दिखाने के और हैं। यह हमारी राजनीतिक व्यवस्था को ही दिखावटी व अकर्मण्य बनाता है। कोई कसौटी नहीं जिससे तय हो कि कौन किस पद का अधिकारी है अथवा नहीं है। इनमें ऐसे भी हैं जो वास्तव में पार्टी या देश के लिए कुछ करना चाहते हैं, पर दोषपूर्ण सांगठनिक पद्धति उन्हें सही स्थान नहीं लेने देती। क्या इन बिंदुओं पर विचार नहीं होना चाहिए?