केंद्र सरकार ने संसद में बच्चों के लिए मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा कानून पर दूसरा संशोधन विधेयक प्रस्तुत कर दिया है। इस विधेयक में पांचवीं और आठवीं कक्षा में छात्रों को फेल करने का प्रावधान फिर से जोड़े जाने का प्रस्ताव है। दरअसल, एक अप्रैल 2010 को जब शिक्षा का अधिकार कानून लागू किया गया था, उस समय आठवीं कक्षा तक के बच्चों को फेल-पास के झंझट से मुक्ति दे दी गई थी। इससे जुड़ा जो विधेयक इस बार पेश हुआ है, उसकी खास बात यह है कि उसमें छात्र को फेल करने का प्रावधान है। मगर फेल होने पर छात्र को परीक्षा देने का एक मौका और देने का प्रावधान भी जोड़ा गया है। इस संशोधन विधेयक के मुताबिक परीक्षाफल जारी होने के दो से तीन महीने के अंदर ही फेल छात्र की परीक्षा दोबारा ली जाएगी। इस परीक्षा में भी अगर छात्र पास नहीं होता है तभी उसे फेल माना जाएगा और फिर से साल भर उसी कक्षा में पढ़ना होगा। असल में देश की प्राथमिक शिक्षा अनेक प्रकार की विसंगतियों से जूझ रही है। खास बात यह है कि मौजूदा नीति के चलते बुनियादी शिक्षा के स्तर में लगातार गिरावट आ रही है। ‘शिक्षा अधिकार कानून-2009’ में निहित छात्रों को कक्षा आठ तक ‘फेल न करने की नीति’ को समाप्त करने की मांग भी लगातार उठ रही थीं। गौरतलब है कि शिक्षा का अधिकार कानून के अनुच्छेद-16 में प्रावधान है कि बच्चे को स्कूल में तब तक फेल नहीं किया जाएगा जब तक वह बुनियादी शिक्षा प्राप्त नहीं कर लेता। निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के इस कानून के असर से छह-सात सालों में नामांकन तो बढ़ा है लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता काफी घटी है।
पिछले दिनों ‘असर’ और दूसरी कई गैरसरकारी संस्थाओं की जो सर्वे रिपोर्ट सामने आर्इं हैं, उनसे पता चला कि कक्षा आठ का छात्र, पांचवीं और कक्षा पांच का छात्र कक्षा दो-तीन का सामान्य गणित भी हल नहीं कर पाता है। मौजूदा केंद्र सरकार ने इस मुद्दे पर दोबारा काफी सोच-विचार किया है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड (केब) ने अक्तूबर-2016 में केंद्र सरकार को परामर्श दिया कि वह ‘शिक्षा के अधिकार कानून-2009’ में आवश्यक संशोधन कर सकती है। इस विषय पर केंद्र सरकार ने कई उपसमितियों का गठन किया। उनमें से ही एक उपसमिति की अनुशंसा के बाद यह निश्चय किया गया कि मौजूदा शिक्षा के अधिकार कानून की ‘ फेल न करने (नो डिटेंशन) की नीति’ में बदलाव जरूरी है। सच्चाई यह है कि कक्षा आठ तक फेल न करने का अर्थ बिना मेहनत किए छात्र को आगे बढ़ाते जाना हो गया है। यह व्यवस्था इसलिए की गई थी कि छात्रों के दिलोदिमाग पर परीक्षा के भय का भूत सवार न रहे। कई बार बच्चे इन वजहों से स्कूल तक छोड़ देते थे। आत्महत्याओं तक की खबरें आती थीं। घबराहट और तनाव से बीमार हो जाते थे। इसी कारण छात्रों को सत्र के अंत में अंकों के उतार-चढ़ाव की जगह ग्रेड देने की व्यवस्था की गई थी। कुल मिलाकर देखा जाए यह व्यवस्था छात्रों को बस्ते के बोझ से मुक्त करने और उन्हें परीक्षा के मानसिक तनाव से बाहर रखने के लिए की गई थी। यह इसलिए भी था ताकि छात्रों को किताबों की बोझिल व्यवस्था से बाहर निकालकर उन्हें रचनात्मक कल्पनाशीलता की ओर बढ़ाया जा सके। असल में भारत में कक्षा आठ तक मुफ्त और किसी को फेल न करने की यह व्यवस्था पश्चिमी देशों के ‘खेल-खेल में सीखना’ के मॉडल से ली गई थी । मगर पश्चिम में शिक्षा की यह व्यवस्था आज भी शिक्षक, छात्र और अभिभावकों के त्रिपक्षीय प्रतिबंध और गठबंधन से ही सफल होती है। भारत में शिक्षा की इस निशुल्क व्यवस्था की अनिवार्य नीति ने ‘स्कूल न छोड़ने’ की दर कम करते हुए छात्रों की संख्या में तो इजाफा किया लेकिन छात्रों के सीखने, जानने और उसे व्यवहार में लाने का अभ्यास कमजोर पड़ने लगा। साथ ही माता-पिता और शिक्षक भी छात्रों की ओर से बेपरवाह होते गए।
फेल न करने की नीति का मूल्यांकन करने पर पाया गया कि छात्रों का ध्यान कक्षा में पढ़ाई से हट रहा है। उनके भीतर यह निश्चिंतता आने लगी कि कम परिश्रम करने के बावजूद वे अगली कक्षा में पहुंच जाएंगे। इससे आगे बढ़ने की होड़ लगातार कमजोर पड़ने लगी। एक नुकसान यह भी हुआ कि इस नीति ने परिश्रमी और गैरपरिश्रमी छात्रों के बीच के अंतर को ही समाप्त कर दिया। कक्षा में छात्रों की उपस्थिति भी घटने लगी। पाया गया कि अगर छात्र कक्षा में आता भी है तो भी वह पठन-पाठन के प्रति गंभीर नहीं हो पाता। इसके उलट कई छात्र अपने स्वच्छंद व्यवहार के तहत शिक्षण प्रक्रिया को बाधित करने का प्रयास भी करते पाए गए। शिक्षकों ने पढ़ाई से अपना ध्यान हटा लिया।
फेल न करने की नीति के समर्थक शिक्षाविदों ने शायद इस सच को आंखों से ओझल कर दिया था कि कक्षा में प्रत्येक छात्र की प्रतिभा समान नहीं होती। कुछ छात्र तीव्र तो कुछ धीमी गति से सीखने वाले होते हैं। कमजोर छात्रों को शिक्षकों के द्वारा अतिरिक्त काउंसिलिंग की जरूरत होती है। सभी को उत्तीर्ण करने की बाध्यता ने सभी छात्रों को समान रूप से अगली कक्षा में प्रवेश तो दे दिया लेकिन कक्षा नौ से फिर फेल करने की नीति ने छात्रों के मध्य एक नए प्रकार के तनाव को जन्म दे दिया। शोध-अध्ययनों में पाया गया कि छात्रों को कक्षा आठ तक फेल न करने की नीति ने उन्हें सुस्त बनाया। जब वे हाईस्कूल में पहुंचे तो कोचिंग व्यवस्था पर निर्भर होने लगे। साथ ही उनके सामान्य शिक्षण और सीखने की प्रक्रिया भी धीमी हो गई। उनमें तनाव और आक्रामकता का प्रतिशत भी बढ़ा पाया गया।
केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय की रिपोर्ट में बताया गया है कि अब तक बीस राज्यों ने फेल न करने की इस नीति में बदलाव करने की गुहार लगाई है। केंद्र सरकार ने 31 दिसंबर, 2015 को राजस्थान सरकार के तत्कालीन शिक्षा मंत्री वासुदेव देवनानी की अध्यक्षता में एक समिति गठित की थी। इसने बाईस राज्यों की स्वीकृति के आधार पर ‘फेल न करने की नीति’ को समाप्त करने की सिफारिश की है। इसी प्रकार शिक्षा सुधार पर टीएसआर सुब्रमण्यम समिति ने भी अपनी सिफारिश में केवल कक्षा पांच तक छात्रों को फेल न करने की सिफारिश की थी। अनेक समितियों की इन्हीं सिफारिशों के चलते केंद्र सरकार इस शिक्षा सुधार कानून में बदलाव करने को मजबूर हुई है। कहने की आवश्यकता नहीं कि शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने से पहले प्राथमिक कक्षाओं से ही छात्रों को फेल करने की नीति लागू थी। अब एक बार फिर से छात्र-छात्राओं को उनके सीखने की गति और प्रदर्शन के आधार पर सफल-असफल करने की नीति अगले सत्र से अमल में आने की संभावना है। छात्रों को यह भी समझाना होगा कि परीक्षा में विफल होना जीवन में विफल होना नहीं है। छात्रों में परिश्रम की गति, सीखने की क्षमता और उसका कुल परीक्षा परिणाम इस बात पर भी निर्भर करता है कि उन्हें घर में कितना सुखद वातावरण मिल रहा है और स्कूल में शिक्षकों के सिखाने का तौर-तरीका कितना छात्रोन्मुख है। अब एक बार फिर से छात्रों के वार्षिक प्रदर्शन क्षमता के आधार पर उनका नए सिरे से मूल्यांकन होगा। ऐसी स्थिति में अब शिक्षकों का गंभीर और छात्रोन्मुख दृष्टिकोण भी परखा जाएगा। फेल करने की नीति एक बार फिर से छात्रों और शिक्षकों की परीक्षा लेगी।

