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भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिकता और तपस्या की कई परंपराएं हैं। इन परंपराओं में अलग-अलग प्रकार के तपस्वियों व विद्वानों को भिन्न-भिन्न उपाधियां दी गई हैं। अक्सर लोग ऋषि, मुनि, संत, साधु जैसे शब्दों को समान अर्थ में इस्तेमाल कर लेते हैं, जबकि प्रत्येक शब्द की अपनी विशेष पहचान और महत्व है। आइए जानते हैं इन सभी शब्दों के वास्तविक अर्थ और उनमें अंतर। (Photo Source: Freepik)
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ऋषि
‘ऋषि’ शब्द का अर्थ है द्रष्टा, अर्थात वह जो सत्य के गूढ़ रहस्यों को देख या अनुभव कर चुका हो। ऋषि वेदों के मंत्रों के द्रष्टा माने जाते हैं। ये गहन तप, योग, ध्यान और आध्यात्मिक साधना के श्रेष्ठ ज्ञाता होते हैं। समाज को ज्ञान, नीति और धर्म का मार्ग दिखाते हैं। उदाहरण हैं- विश्वामित्र, वशिष्ठ, कश्यप आदि। (Photo Source: Freepik) -
मुनि
मुनि का अर्थ है मनन करने वाला। जो व्यक्ति निरंतर ध्यान, मौन और सत्य पर चिंतन करता है। कई मुनि मौन व्रत में रहते हैं। वे ज्ञान को अनुभव और मनन के माध्यम से समझते हैं। मन को स्थिर और शुद्ध बनाने पर उनका विशेष ध्यान होता है। उदाहरण हैं- कपिल मुनि, व्यास मुनि, गौतम मुनि। (Photo Source: Freepik) -
साधु
‘साधु’ का अर्थ है सज्जन और धार्मिक आचरण वाला। यह सांसारिक मोह-माया छोड़कर सादगी, तपस्या और सदाचार में जीवन बिताते हैं और ध्यान, योग, संयम और सदाचार का पालन करते हैं। लोककल्याण, दया, करुणा और सेवा इनके प्रमुख गुण होते हैं। हर संन्यासी साधु हो सकता है, लेकिन हर साधु संन्यासी नहीं होता। (Photo Source: Freepik) -
संत
‘संत’ वह होता है जिसने सत्य को जाना भी है और उसे आचरण में उतारा भी है। संत अपने व्यवहार, ज्ञान और सद्गुणों से समाज को दिशा देते हैं। अन्य लोगों के जीवन में नैतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक परिवर्तन लाते हैं। संतों का ध्यान बाहरी साधना से अधिक आत्मिक शुद्धि पर होता है। उदाहरण हैं- कबीर, रैदास, तुलसीदास, ज्ञानेश्वर। (Photo Source: Freepik) -
महर्षि
महर्षि का अर्थ है, महान ऋषि। इनका ज्ञान, तपस्या और वैदिक विद्वता सामान्य ऋषियों से कहीं अधिक होती है। महर्षि केवल वेदों का ज्ञान ही नहीं रखते, बल्कि नए ग्रंथों की रचना भी करते हैं। इन्हें हजारों शिष्यों का गुरु माना जाता है। महर्षि व्यास, महर्षि भारद्वाज, महर्षि पतंजलि, महर्षि भृगु जैसे विद्वान इस श्रेणी में आते हैं। (Photo Source: Freepik) -
ब्रह्मर्षि
‘ब्रह्मर्षि’ ऋषियों में सबसे ऊंचा दर्जा है। ये वे हैं जिन्होंने ब्रह्म (सृष्टि के परम सत्य) का पूर्ण साक्षात्कार किया है। इनका स्थान त्रिलोक में अत्यंत सम्माननीय माना जाता है। ब्रह्मर्षि का ज्ञान वेद, उपनिषद, स्मृति, योग और तत्त्वज्ञान से परे, अनुभव की अंतिम अवस्था तक होता है। उदाहरण हैं- वशिष्ठ, विश्वामित्र (कठोर तप के बाद)। (Still From Film) -
देवर्षि
‘देवर्षि’ वह होता है जो देवताओं के बीच श्रेष्ठ ऋषि के रूप में प्रतिष्ठित हो। ये देवलोक में सम्मानित होते हैं। इनके पास अद्भुत दिव्य शक्तियां और सिद्धियां होती हैं। देवताओं और मनुष्यों के बीच संदेश पहुंचाने औक आध्यात्मिक मार्गदर्शक करने का काम भी करते हैं। नारद ऋषि सबसे प्रसिद्ध देवर्षि हैं। (Photo Source: Unsplash) -
संन्यासी
संन्यासी वह होता है जिसने सभी सांसारिक बंधनों, इच्छाओं और संपत्ति का त्याग कर दिया हो। संन्यास जीवन के चार आश्रमों में अंतिम है- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। उसके लिए परिवार, समाज, पद या सम्मान सब अप्रासंगिक हो जाते हैं। संन्यासी किसी भी तरह के ‘मैं’ और ‘मेरा’ के भाव से मुक्त होते हैं। इनका लक्ष्य केवल मोक्ष, आत्मज्ञान और ईश्वर प्राप्ति होता है। हर संन्यासी संत या ऋषि बन जाए, जरूरी नहीं। (Photo Source: Pexels) -
कथा वाचक
कथा वाचक वे विद्वान होते हैं जो रामायण, भगवद्गीता, भागवत, पुराणों या अन्य शास्त्रों की कथाओं को सरल भाषा में जन-जन तक पहुंचाते हैं। इनके पास शास्त्र ज्ञान, वाणी की कला और भक्तिभाव होता है। ये सामान्य लोगों को धर्म, भक्ति और जीवन मूल्यों को समझाने का कार्य करते हैं। आधुनिक समय में यह एक आध्यात्मिक कला और सेवा दोनों मानी जाती है। कथा वाचक आवश्यक नहीं कि संत या संन्यासी हों, कई बार वे विद्वान गृहस्थ भी हो सकते हैं। (Photo Source: Jaya Kishori/Facebook)
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