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जगन्नाथ रथ यात्रा की शुरुआत हो चुकी है। सनातन धर्म में जगन्नाथ रथ यात्रा का काफी खास महत्व है। इस यात्रा में स्वयं प्रभु जगन्नाथ अपनी बहन सुभद्रा और भाई बलराम के साथ नगर भ्रमण पर अपने विशाल रथों पर सवार होकर जाते हैं जहां वे अपनी मौसी गुंडिचा माता के घर 7 दिनों तक विश्राम करते हैं। (PTI)
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हर साल की तरह इस साल भी जगन्नाथ रथ यात्रा में भक्तों का जनसैलाब उमड़ा हुआ है। ऐसे में आइए जानते हैं कब और किसने की थी इस परंपरा की शुरुआत। (PTI)
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इस परंपरा की शुरुआत 12वीं शताब्दी में शुरू हुई थी। जगन्नाथ रथ यात्रा को लेकर कई मान्यताएं हैं। कहा जाता है कि एक बार बहन सुभद्रा ने अपने भाइयों कृष्ण और बलराम से कहा कि वे नगर को देखना चाहती हैं। (PTI)
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इसके बाद अपनी बहन की इच्छा पूरी करने के लिए दोनों भाइयों ने तीन रथ तैयार करवाया और इस पर सवार होकर तीनों भाई-बहन नगर भ्रमण के लिए निकले और भ्रमण पूरा कनरे के बाद पुरी लौटे। इसी के बाद से ये परंपरा चली आ रही है। आगे वाला रथ भगवान बलराम का, बीच वाला रथ बहन सुभद्रा और पीछे लावा रथ भगवान जगन्नाथ का होता है। (PTI)
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किसने बनवाया था मंदिर?
मान्यताओं के अनुसार द्वारका में जब भगवान श्री कृष्ण का अंतिम संस्कार किया जा रहा था तब बलराम उनकी मृत्यु से इतने दुखी हुए कि भगवान कृष्ण का मृत शरीर लेकर समुद्र में डूबकर मरने चले गए। उनके पीछे-पीछे बहन सुभद्रा भी चली आईं। इसके बाद भारत के पूर्वी तट पर राजा इंद्रुयम्र को जगन्नाथ पुरी का सपना आया। (PTI) -
इंद्रुयम्र को सपना आया कि भगवान का मृत शरीर पुरी के तट पर तैरता हुआ मिलेगा। जिसके बाद वे एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाएं जिसमें कृष्ण, बलराम और सुभद्रा की मूर्तियां स्थापित की जाएंगी। उन्होंने सपने में ये भी देखा की भगवान की अस्थियां उन्हीं की मूर्तियों के पीछे एक खोखली जगह बनाकर उसी में रखी जाएंगी। (PTI)
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इंद्रुयम्र का ये सपना सच हुआ। अब सवाल था कि मूर्तियां बनाएगा कौन? मान्यताओं के अनुसार भगवान विश्वकर्मा बूढ़े बढ़ई के रूप में भगवान की मूर्तियां बनाने के लिए आए और उन्होंने शर्त रखी की जब तक मूर्तियां तैयार नहीं हो जाती तब तक अंदर कोई नहीं आएगा और अगर कोई अंदर आया तो मूर्तियों को बनाने का कार्य वो छोड़ देंगे। राजा ने उनकी ये बात मान ली। (PTI)
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जब विश्वकर्मा ने मूर्तियां बनानी शुरू की तो राजा दरवाजे के बाहर से आवाज सुनते रहते और संतुष्ट हो जाते थे। एक दिन जब अचानक आवाज आनी बंद हो गई तो राजा को लगा की अब मूर्तियों के बनने का कार्य संपन्न हो चुका है। ऐसे में उन्होंने दरवाजा खोल दिया। जैसे ही दरवाजा खुला विश्वकर्मा जी वहां से गायब हो गए और मूर्तियों को बनाने का कार्य अधूरा ही रह गया। (PTI)