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धार्मिक आस्था से जुड़ी हर चीज भक्तों के लिए बेहद भावुक और संवेदनशील होती है। खासकर जब बात भगवान की मूर्ति या विग्रह की आती है, तो अक्सर भक्तों के मन में यह सवाल उठता है कि क्या मूर्ति लेते समय मोलभाव या तुलना करना उचित है? इस विषय पर वृंदावन के प्रख्यात संत राधारानी के परम भक्त प्रेमानंद जी महाराज ने बड़ी सरलता से उत्तर दिया है। (Photo Source: PremanandJi Maharaj/Facebook)
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मूर्ति चयन और तुलना करना अपराध नहीं
एक भक्त ने प्रेमानंद जी महाराज से प्रश्न किया कि जब ठाकुर जी का विग्रह लेना हो, तो क्या कई मूर्तियों की सुंदरता देखकर तुलना करना या उनमें से बेहतर चुनना अपराध है? (Photo Source: PremanandJi Maharaj/Facebook) -
इस पर महाराज जी ने कहा— “नहीं, ऐसा करना अपराध नहीं है। जब तक ठाकुर जी सेवा में विराजमान नहीं हुए हैं, तब तक मूर्तियों को देखकर, उनकी सुंदरता और बनावट की तुलना करके चुनना उचित है। लेकिन जब ठाकुर जी को घर लाकर सेवा में विराजमान कर लिया जाए, तब उन्हें दूसरों की मूर्तियों से तुलना करना या कमी निकालना अनुचित है।” (Photo Source: PremanandJi Maharaj/Facebook)
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मोलभाव क्यों नहीं करना चाहिए?
भक्त ने दूसरा सवाल किया कि मूर्ति लेते समय क्या कीमत को लेकर मोलभाव करना उचित है? इस पर प्रेमानंद जी महाराज ने स्पष्ट कहा— “नहीं, ठाकुर जी के विग्रह को खरीदने के भाव से नहीं देखना चाहिए। हम न्यौछावर कर रहे हैं इस भावना से देकना चाहिए।” (Photo Source: Pexels) -
उन्होंने आगे कहा, “यदि मूर्ति बनाने वाले ने 45,000 रुपये की मांग की है और आपके पास केवल 40,000 रुपये हैं, तो ईमानदारी से कहना चाहिए—‘हमारे पास अभी केवल 40,000 हैं, यदि कृपा हो तो इस राशि में दे दें, वरना हम कुछ समय बाद बाकी पैसे जोड़कर ले लेंगे।’ मोलभाव करना उचित नहीं है।”” (Photo Source: Pexels)
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अनुचित मूल्य की संभावना पर क्या कहा?
इस पर भक्त ने चिंता जताई कि ऐसे तो कोई मूर्ति विक्रेता अनुचित मूल्य मांग सकता है? इस पर महाराज जी ने जवाब दिया— “मूर्ति बेचने वाला भी जानता है कि ठाकुर जी उसके भीतर विराजमान हैं, ऐसे में उसकी हिम्मत नहीं होगी कि वह असत्य या अत्यधिक मूल्य बताए। 45 हजार की जगह एक लाख मांग ले। हां, थोड़ा बहुत अंतर हो सकता है—जैसे यदि मूर्ति में सजावट या बनावट में कोई अंतर हो तो 5-10 हजार कम कीमत हो सकती है।” (Photo Source: PremanandJi Maharaj/Facebook) -
उन्होंने आगे कहा, “मूर्ति बनाना शिल्पी की साधना और परिश्रम है। निर्माणकर्ता कुछ भी कीमत ले सकता है। हां मूर्ति की बनावट, नयन-नक्श, कला और सुंदरता के आधार पर कीमत में थोड़ा बहुत अंतर हो सकता है। लेकिन यह सोचना कि ठाकुर जी को बेचा जा रहा है, गलत है। असल में तो मूर्ति लेना, भगवान को भेंट स्वरूप न्यौछावर देना है।” (Photo Source: Pexels)
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“खरीदना” शब्द का प्रयोग क्यों नहीं?
प्रेमानंद महाराज ने यह भी स्पष्ट किया कि भगवान की मूर्ति को लेकर “खरीदना” शब्द का प्रयोग नहीं करना चाहिए। उन्होंने कहा— “भक्त को यह नहीं कहना चाहिए कि हमने मूर्ति खरीदी है। सही शब्द होगा—‘हम ठाकुर जी को न्यौछावर देकर लाए हैं।’ ठाकुर जी का कोई मोल नहीं है, वह अनमोल हैं। वे स्वयं अनंत हैं, उनका मूल्य मनुष्य तय नहीं कर सकता। जो राशि दी जाती है, वह मूर्ति निर्माण करने वाले शिल्पी को दी जाने वाली भेंट है।” (Photo Source: PremanandJi Maharaj/Facebook)
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