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निर्देशक-नीरज घेवन, कलाकार-ऋचा चढ्ढा, विकी कौशल, श्वेता त्रिपाठी, संजय मिश्रा<br/><br/>ये फिल्म फेस्टिवलों के बनाई गई फिल्म है और कान फिल्म फेस्टिवल में इसे दिखाया भी गया है। पर सिनेमा घरों मे इसके दर्शक ढूंढे नहीं मिलेंगे। इसमें नारी विमर्श और दलित विमर्श को मिलाने की कोशिश हुई है।<br/><br/>लेकिन सिर्फ कोशिश ही हुई है। वो भी अधूरी। हिंदी के कवि शमशेर बहादुर सिंह के शब्दों को उधार लेकर और थोड़ा बदलकर कहें तो ये कुछ टूटी हुई और कुछ बिखरी हुई है।
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देवी (ऋचा चढ्ढा) वाराणसी यानी बनारस में रहती है। पंडों के परिवार की है। जवान है और खूबसूरत भी और कंप्यूटर जानती है।<br/><br/>यौन जिज्ञासा की पूर्ति के लिए वो एक लड़के के साथ एक होटल में जाती है और वहां पुलिस द्वारा पकड़ी जाती है। यहीं से शुरू होता उसकी जिंदगी में नया मोड़।<br/><br/>पुलिसवाला उसका वीडियो बना लेता है और उसके पिता (संजय मिश्रा) को धमकी देता है कि पैसे लाओ नहीं तो वीडियो यू-ट्यूब पर डाल दूंगा।<br/><br/>बाप और बेटी की जिंदगी भंवर में फंस जाती है। एक तरफ पुलिसवाले का खौफ दूसरी तरफ `समाज क्या कहेगा?’ का सवाल। क्या देवी इस भंवर से निकल सकेगी?
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दूसरी कहानी दीपक (विकी कौशल) की है जो बनारस में चिता जलानेवाले के परिवार (दलित) से है। दीपक इंजीनियरिंग की पढाई कर रहा है।<br/><br/>उसे शालू (श्वेता त्रिपाठी) से प्रेम हो जाता है जो ऊंची जाति की है। शालू उसकी सामाजिक हैसियत के बारे में जानती है मगर उसे चाहती भी है?<br/><br/>क्या दीपक और शालू मिल पाएंगे? क्या दीपक अपनी सामाजिक पृष्ठभूमि से निकल पाएगा या हमेशा अपने परिवार के दूसरे पुरुष सदस्यों की तरह चिता ही फूंकता रहेगा?
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फिल्म में कहीं भी नाटकीयता नहीं सिवाए शुरुआती दृश्य के जहां देवी को पुलिस होटल में पकड़ती है। बाकी फिल्म सपाट ढंग से चलती है और अभिनय में भी कहीं किसी तरह का उतार-चढ़ाव नहीं है।<br/><br/>निर्देशक ने ऐसा जानबूझकर किया है और उसके ऐसा करने का मकसद ये है कि ये रेखांकित किया जा सके कि जिंदगी की ज्यादातर त्रासदिया मेलोड्रामा की नहीं होती है।<br/><br/>वे बाहर से ज्यादा भीतर सालती हैं। नीरज अनुराग कश्यप के शिष्य रहे हैं। कई बार गुरु अपने चेलों को अपने दायरे से बाहर नहीं निकलने देते। पर जो चेला बाहर नहीं निकलता वो गुरु का क्लोन बनके रह जाता है।