मीठी गोलियों से इलाज के लिए अपनी विशेष पहचान रखने वाली होम्योपैथी यदि कृषि क्षेत्र में भी सफलता का परचम फहराने लगे, तो कई समस्याओं का समाधान मुमकिन हो सकेगा। यह पद्धति निकट भविष्य में रासायनिक कीटनाशकों और उर्वरकों के बजाय होम्योपैथिक उपचारों के जरिए फसलों में वृद्धि, कीट प्रतिरोध और कृषि क्षेत्र की समग्र सेहत सुधारने का कारगर माध्यम बन सकती है। भारत में भी इस दिशा में कई अनुसंधान और प्रयोग हो रहे हैं। इस पद्धति की विशेषता यह है कि इसमें पौधों को आंतरिक रूप से मजबूत बनाने पर ध्यान केंद्रित किया जाता है, ताकि प्राकृतिक तौर पर बीमारियों और कीटों से लड़ सकें। ‘कृषि-होम्योपैथी’ से अन्य कई लाभ भी भविष्य में किसानों को मिल सकेंगे। इसमें विशेष रूप से मिट्टी में रासायनिक उर्वरकों से हुए नुकसान एवं उसमें समाए रासायनिक अवशेषों को खत्म करना और मिट्टी की सेहत को बेहतर बनाना भी शामिल है।

इस पद्धति की सबसे बड़ी खासियत यह होगी कि इससे महंगे और पारंपरिक तरीकों की तुलना में कृषि लागत कम होगी। कृषि क्षेत्र में निश्चित रूप से यह बड़ा और क्रांतिकारी बदलाव लाने वाला कदम हो सकता है। भविष्य में कृषि क्षेत्र, ‘एग्रो-होम्योपैथी’ अपनाए जाने से सुधार की एक नई दिशा में आगे बढ़ेगा। वास्तव में ‘एग्रो-होम्योपैथी’ पौधों की जीवन शक्ति और आंतरिक प्रक्रियाओं को मजबूत करती है, जिससे वे न केवल अपनी पूरी क्षमता से बढ़ सकते हैं, बल्कि प्राकृतिक रूप से खुद को भी दुरुस्त कर सकते हैं। इस पद्धति से न केवल महंगे, बल्कि जरूरत के वक्त अनुपलब्ध रहने वाले रासायनिक उर्वरकों के उपयोग में भी कमी आएगी। इसी पद्धति से वह विकल्प भी मिलेगा, जिससे कृषि रसायनों और कीटनाशकों का उपयोग या तो कम हो जाएगा या फिर पूरी तरह से समाप्त हो सकेगा। यह हानिकारक रसायनों और उनके अवशेषों के जोखिम को समाप्त करने की ओर भी प्रभावी कदम होगा।

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होम्योपैथिक दवाएं कीटों को सीधे नहीं मार कर पौधों की जैविक प्रणालियों को कुछ इस तरह से प्रभावित करती हैं, ताकि वे अपना प्राकृतिक रक्षा तंत्र, अपनी जरूरत के हिसाब से विकसित और सक्रिय कर सकें। कृषि क्षेत्र में होम्योपैथी का उपयोग ठीक उसी सिद्धांत पर आधारित है, जिसमें किसी बीमारी को जड़ से समाप्त करने के लिए धीरे-धीरे दवाओं से उसे काबू किया जाता है। वैसे भी होम्योपैथी दवाओं में प्रतिकूल असर की संभावनाएं न के बराबर होती हैं। यही सिद्धांत वनस्पतियों और मिट्टी के लिए भी उपयोग किया जाता है। यह पौधों की आनुवंशिक गतिविधियों और चयापचय यानी ‘मेटाबालिज्म’ में परिवर्तन की प्रक्रिया को प्रेरित करता है, जिससे रक्षा प्रणालियां सक्रिय होती हैं।

कृषि क्षेत्र में होम्योपैथिक दवाओं का सफल प्रयोग हालांकि कई दशकों से हो रहा है। मगर यह केवल कुछ जानकार अपने स्तर पर ही करते रहे हैं। मगर जब विश्व में इसको लेकर शोध और परीक्षण बढ़े, तो लोगों की इसमें जिज्ञासा बढ़ी और अब यह चर्चा का विषय भी बन गया है। मनुष्य को होम्योपैथी से यह विश्वास दिलाया जाता है कि यह उनकी बीमारी की जड़ तक पहुंच कर उसका समाधान करती है। लगभग यही तरीका कृषि क्षेत्र में भी अपनाया जाता है। इतना कहा जा सकता है कि वैश्विक स्तर पर होम्योपैथी की नई शाखा यानी ‘एग्रो-होम्योपैथी’ निकट भविष्य में कृषि की सेहत सुधारने के लिए एक मजबूत विकल्प बन सकती है। बूंदों में समाहित होम्योपैथी दवाओं का सत पानी में मिल कर खेती-किसानी को भी स्वस्थ और उपयोगी बना सकता है।

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लागत के लिहाज से यह महंगे उर्वरकों और रसायनों की तुलना में बेहद सस्ता होगा। कम लागत की होम्योपैथिक दवाएं भविष्य में पेड़-पौधों पर निर्भर रहने वाले जीव-जंतुओं को भी रसायनों की चपेट में आकर असमय विलुप्त होने से बचा सकेंगी। भारत में होम्योपैथी दवाओं के कई जगह परीक्षण हो चुके है। सर्वविदित है कि होम्योपैथी दवाएं आंतरिक प्रतिरोध विकसित करने में कारगर हैं। इस चिकित्सा पद्धति से उपचारित जीव रोगों के प्रति कम संवेदनशील होते हैं। इसी सिद्धांत पर कृषि होम्योपैथी मिट्टी के स्वास्थ्य और उर्वरता को बनाए रखते हुए पौधों की वृद्धि करती है और इससे उपज भी बढ़ती है।

भारत में कृषि-होम्योपैथी का पुदुचेरी में किया गया प्रयोग चर्चा में है। यहां शोधकर्ताओं ने किसानों के साथ मिल कर जैविक खेती के साथ एक कदम और आगे जाकर होम्योपैथिक खेती का सफल प्रयोग किया है। एक बड़ी विशेषता यह भी सामने आई कि इससे जहां पानी की खपत घटी, वहीं न केवल जल प्रदूषण कम हुआ, बल्कि भूजल स्तर भी बढ़ा। वर्ष 2018 में कृषि क्षेत्र में होम्योपैथी के उपयोग की संभावनाओं का पता लगाने के लिए शुरू हुई परियोजना की सफलता का अंदाजा इसी से लगता है कि कुछ ही समय में इसे नाबार्ड का समर्थन मिल गया। प्रयोगशाला से शुरू हुए परीक्षण जब खेतों तक पहुंचे तो उसकी पहली फसल भिंडी में कमाल का असर दिखा। बाद में धान की फसल में भी इसका प्रयोग सफल रहा। इसके बाद फसलों के तीनों सीजन में भी इस प्रयोग ने कमाल दिखाया।

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होम्योपैथिक दवाओं ने न केवल फसलों की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाई, बल्कि मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने के लिए रसायनों पर निर्भरता कम से कम कर दी। कृषि-होम्योपैथी के मिश्रण ने जहां पत्तियों को नई जान दी, वहीं पौधों की प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ाई। इतना ही नहीं मिट्टी में मौजूद सूक्ष्म जीवों को पोषण मिला, जिससे मृदा की जैव विविधता बढ़ी। खेतों में केंचुए और मिट्टी के सूक्ष्म जीव भी लौटने और बढ़ने लगे। इससे धीरे-धीरे मिट्टी की प्राकृतिक उर्वरता भी लौटने लगी। यह पर्यावरण सुधार की दिशा में भी मील का पत्थर होगा। लगातार प्रयोगों से यह भी साफ हुआ कि तीन साल तक निरंतर कृषि-होम्योपैथी के उपयोग से कृषि उपज में स्थिरता के साथ इसमें आश्चर्यजनक वृद्धि भी देखी गई।

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शोधकर्ताओं का कहना है कि कृषि-होम्योपैथी की लागत काफी कम होती है। अमूमन एक किसान, जो रासायनिक खादों पर औसतन 20-30 हजार रुपए प्रति हेक्टेयर व्यय करता है, उसकी लागत होम्योपैथिक दवाओं पर महज 700 रुपए प्रति हेक्टेयर तक हो सकती है। प्रयोग से पता चला कि होम्योपैथिक दवाओं की कुछ मात्रा ने सैकड़ों लीटर पानी में घुले रसायनों को खत्म करने में अपना प्रभावी असर दिखाया। इससे खेती में हानिकारक रसायनों का इस्तेमाल रुकने से फसल की चमक और पौष्टिकता भी बेहतर हुई, जिससे किसानों को उनकी उपज की अच्छी कीमत मिलने लगी।

भारत में तेजी से लोकप्रिय हो रही कृषि-होम्योपैथी की ओर लगभग हर राज्य के किसान तेजी से आकर्षित हो रहे हैं। भिंडी, मिर्च और दूसरी तमाम सब्जियों के अलावा आलू, गेहूं, मक्का, धान और दलहन-तिलहन में भी यह पद्धति कारगर साबित हो रही है। होम्योपैथी दवाएं वनस्पतियों की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाती हैं। इससे वनस्पतियां और फसलें अपने रोग स्वत: ठीक कर लेते हैं। निश्चित रूप से आने वाले समय में निरंतर शोध और प्रयोगों के बाद कृषि-होम्योपैथी की भी कई शाखाएं सामने आएंगी। इससे रसायनों और उर्वरकों के बोझ से दबी मिट्टी को कोई नया जीवन और जहरीले तत्त्वों से मुक्ति मिलना संभव हो सकेगा। भविष्य में कृषि-होम्योपैथी से मिट्टी-पानी अपने मूल स्वरूप में आकर फिर से हमारी प्रकृति में नई ऊर्जा भरेंगे।

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