एक सीनियर फिल्मकार ने भारत की दुखती रग को दबाने वाले आतंकी वारदात पर वेबसीरीज बनायी तो उन पर पाकिस्तान के नजरिए को आगे बढ़ाने का आरोप लगा फिर भी लेफ्टविंग विद्वानों और मुख्यधारा के समीक्षकों ने उसकी जमकर तारीफ की। अब जब उसी आतंकी वारदात पर भारतीय या भारत के नजरिए से फिल्म बनाने का ‘आरोप’ लग रहा है वही वर्ग फिल्म की चीख-चीख कर निंदा कर रहा है।
मेरे ख्याल से धुरंधर की नींव उसी दिन पड़ गयी थी जिस दिन IC814 रिलीज हुई थी। IC814 में अजित डोभाल का रोल ऐसे एक्टर को दिया गया जो आमतौर पर मसखरों वाला रोल करते हैं। डोभाल के विरोधी का रोल उस आदमी को दिया गया जिसकी आम छवि बड़े एक्टर की है। नसीरुद्दीन साह और जसवंत सिंह दोनों राजस्थानी हैं और उनका लुक भी मिलता-जुलता है मगर शाह को सिंह की भूमिका नहीं दी गयी क्योंकि इससे डायरेक्टर की जसवंत सिंह को कमतर दिखाने की मंशा पूरी नहीं हो पाती।
पात्रों के चयन के मामले में अनुभव सिन्हा की चतुराई तक बात रहती तो कोई बात नहीं थी, मगर फिल्म का पूरा नरेटिव ही पूरी घटना को पाकिस्तानी सेना के नजरिए से दुनिया के सामने पेश करता है। उस फिल्म में अजित डोभाल को जिस तरह टारगेट किया गया वह बैड टेस्ट में था। अजित डोभाल को मोटा थुलथुल खबोच और मसखरा दिखाया गया है। असल लाइफ में डोभाल के आलोचक भी उन्हें काबिल खुफिया अफसर मानते हैं, काबिल एनएसए भले न मानते हों।
190 व्यक्तियों की जान बचाने के लिए तीन आतंकियों की छोड़ना एक जटिल कठिन निर्णय है जो किसी के प्राण निचोड़ सकता है। मगर उस निर्णय को जिस तरह अनुभव सिन्हा ने अजित डोभाल को घेरने के लिए किया वह उनकी संकीर्ण सोच को दिखाता है। हिन्दी फिल्म जगत में किसी आतंकी घटना को पाकिस्तानी नजरिए से पेश करने का शायद यह पहला मामला रहा होगा।
धुरंधर का एक हिस्सा IC814 अपहरण मामले में अजित डोभाल का नजरिया पेश करता है। मेरे ख्याल से डोभाल वाला हिस्सा फिल्म में मौजूदा लंबाई से आधा या चौथाई होता तो बेहतर होता क्योंकि फिल्म का मुख्य प्लॉट कराची गैंगवार है और उसी की वजह से इसे तारीफ मिल रही है। भारत में घटी घटनाएँ अगर किसी खुफिया मिशन का टेक-ऑफ प्वाइंट थीं तो उसका रनवे इतना लम्बा न होता तो बेहतर होता। मगर IC814 के चाहने वालों का गैंग जिस तरह इस फिल्म पर टूट पड़ा है, वह हैरान करने वाला है।
फिल्म स्कूल के विद्यार्थियों को दोनों फिल्मों की समीक्षा करने वालों के रिव्यू निकालकर उसकी तुलना करनी चाहिए। फिल्म का प्वाइंट ऑफ व्यू बदलते ही नामी समीक्षकों के रिव्यू के पैरामीटर किस तरह बदलते हैं इसे शोधार्थियों को दुनिया के सामने लाना चाहिए।
फिल्म समीक्षकों की दिक्कत ये है कि वो किसी फिल्म को हिट या फ्लॉप नहीं करा सकते। बडे़ मीडिया संस्थानों में बैठे समीक्षक एकजुट होकर किसी फिल्म के कारोबार को कुछ प्रतिशत घटा या बढ़ा सकते हैं मगर वे किसी फिल्म को हिट या फ्लॉप होने से नहीं रोक सकते।
धुरंधर के आलोचकों में एक और बात साझा दिखती है कि उनमें से ज्यादातर की नजर में पाकिस्तान की आलोचना करने का मतलब है ‘मुसलमान’ या इस्लाम रिलीजन की आलोचना करना। कुछ समीक्षक चाहते हैं कि आतंकी हमले के बाद ‘अल्लाहो अकबर’ का नारा लगाया गया तो उसे न दिखाया जाए! उन्हीं समीक्षकों ने “राम के नाम” डाक्यूमेंट्री की पानी पी-पी कर तारीफ की क्योंकि भगवान राम का नाम लेकर एक ऐसी मस्जिद गिरा दी गयी जो मन्दिर को तोड़कर बनायी गयी थी ताकि हिन्दुओं को अपमानित और दमित किया जा सके मगर वही फिल्ममेकर हजारों बर्बर घटनाओं के बाद भी ‘अल्लाह के नाम’ बनाने का साहस नहीं कर पाते हैं।
धुरंधर में मुसलमानों के बारे में कोई जेनेरिक स्वीपिंग कमेंट नहीं है, इस्लाम के बारे में भी कोई जेनेरिक स्वीपिंग कमेंट नहीं है। फिल्म पाकिस्तान को भारतीय नजरिये से देखती है और इसे अपराध नहीं कहा जा सकता। भारतीय होते हुए पाकिस्तान के नजरिये से देखना समस्याप्रद दृष्टिकोण है न कि किसी आतंकवादी वारदात को भारतीय नजरिए से देखना।
धुरंधर के प्रशंसकों ने एक बात रेखांकित की है कि जो लोग कहते थे कि किताब का जवाब किताब से दो, सिनेमा का जवाब सिनेमा से दो, वही अब इस फिल्म को लेकर जनता को गैसलाइट करने का प्रयास कर रहे हैं कि यह प्रोपगैंडा है, मत देखो! मुझे यह समझ नहीं आता कि ऐस कौन सी फिल्म दुनिया में बनी है जो किसी खास नजरिए का प्रोपगैण्डा नहीं करती है! मेरी राय में तत्वतः ‘सत्यमेव जयते’ भी एक प्रोपगैण्डा है और “ईश्वर एक है” भी एक प्रोपगैण्डा ही है।
‘कश्मीर फाइल्स’ के समय भी मैंने लिखा था कि फिल्म की समस्या ये नहीं है कि वह गलत विषय उठा रही है जिससे ज्यादातर लेफ्टविंग आलोचक बिफरे थे। फिल्म की समस्या थी कि वह बुरी फिल्म थी। धुरंधर फिल्ममेकिंग के हिसाब से अच्छी फिल्म है। मुख्यधारा के समीक्षकों को उसी आधार पर उसका मूल्यांकन करना चाहिए न कि आइडियोलॉजिकल नरेटिव के चश्मे से। यह काम विद्वानों का है, न कि अखबारी समीक्षा करने वालों का।
ऐसा भी नहीं है कि धुरंधर फ्री-स्पीच की संवैधानिक सीमा का अतिक्रमण करती है। फिल्म किसी भी जाति, रिलीजन या देश इत्यादि को धरती से मिटा देने की बात नहीं करती है। फिल्म आतंकवाद के मुद्दे को भारतीय नजरिए या फिर अजित डोभाल के नजरिए से पेश करती है और यह किसी तरह का कसूर नहीं है।
आज इतना ही। शेष, फिर कभी।
