अल्पना सिंह

इधर कुछ समय से स्त्री लेखन के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन आया है। पहले स्थिति इतनी अच्छी नहीं थी। परिस्थितियां इतनी जटिल थीं कि स्त्रियां अपना नाम और परिचय छिपा कर लिखने को बाध्य थीं। इस संदर्भ में पं. रमाबाई, ताराबाई शिंदे, स्फुरना देवी के साथ ही एक प्रमुख नाम ‘सीमंतनी उपदेश’ लिखने वाली उस ‘अज्ञात हिंदू लेखिका’ का आता है, जिसने अपनी लेखनी से तत्कालीन भारतीय परिवारों की नरक गाथा कही है।

‘सीमंतनी उपदेश’ को स्त्री चिंतन का क्रांतिकारी दस्तावेज कहा जा सकता है। लगभग सवा सौ साल पहले लिखी इस पुस्तक का प्रत्येक पृष्ठ स्त्री दासता की कथा कहता है। इसमें जिन छोटी-छोटी समस्याओं को उठाया गया है, वे मूल रूप से बहुत बड़ी समस्या को उजागर करती हैं। इस पुस्तक में स्त्रियों के पारिवारिक और सामाजिक जीवन के दैनिक संघर्ष का यथार्थ चित्रण हुआ है। इतना निर्भीक लेखन इससे पहले साहित्य में कभी दिखाई नहीं दिया। जहां एक ओर इसकी लेखिका ने कटु शब्दों में तत्कालीन हिंदू स्त्री का यथार्थ वर्णित किया, वहीं दूसरी ओर खुद को अज्ञात रख कर तत्कालीन समाज में स्त्रियों की दीन स्थिति को भी सामने रख दिया है।

इसी तरह महादेवी वर्मा की ‘शृंखला की कड़ियां’ पुस्तक का एक-एक पृष्ठ स्त्री स्वातंत्र्य के मायने तलाशता दिखाई देता है। महादेवी वर्मा ने अपने अनुभवों से यह निष्कर्ष निकाला था कि ‘नारी के लिए नारीत्व एक अभिशाप है। और इस अभिशाप से मुक्ति उसके अकेले के प्रयास से संभव नहीं है। यह दुष्कर कार्य तो समूह के प्रयत्नों से ही किया जा सकता है।’ उन्होंने स्वीकार किया है कि ‘इस समय आवश्यकता है एक ऐसे देशव्यापी आंदोलन की, जो सबको सजग कर दे, उन्हें इस दिशा में प्रयत्नशीलता करे और नारी की वेदना का यथार्थ अनुभव करने के लिए उनके हृदय को संवेदनशील बना दे, जिससे मनुष्य जाति कलंक के समान लगने वाले इन अत्याचारों का तुरंत अंत हो जाए।’
इस समग्र लेखन को स्त्री विमर्श की पृष्ठभूमि के रूप में देखा जा सकता है। इसके बाद साहित्य में हुए क्रांतिकारी स्त्री लेखन ने स्थिति को पहले से बहुत कुछ परिवर्तित कर दिया है। क्योंकि जब स्त्रियों ने खुद अपने अधिकारों के प्रति खुल कर लिखना शुरू किया तब एक ओर तो स्थितियां बहुत कुछ उनके अनुकूल होती गर्इं, लेकिन इसके साथ ही बहुत कुछ प्रतिकूल भी घटित होता रहा। पर यह दीगर बात है कि स्त्री लेखन ने कभी समझौतावादी मार्ग नहीं अपनाया।

इस पूरे विमर्श में एक उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि मुक्ति के इस संघर्ष में स्त्री ने स्वयं को दायित्वों से मुक्त करने की बात कभी नहीं की। अपनी मुक्ति को उसने अपने कर्तव्यों और दायित्वों के पालन को मुक्ति से नहीं जोड़ा। वह चाहती है, तो उन बंधनों से मुक्ति, जो उसके अधिकार प्राप्ति में बाधक हैं, उन रूढ़ियों से मुक्ति, जो कदम-कदम पर उसे कसती हैं, उन बंदिशों से मुक्ति, जो उसके स्वतंत्र विकास में बाधा बनती हैं। सदियों से चली आ रही उस दासता से मुक्ति, जो उसे प्रतिकार के अधिकार से वंचित करती है। पर दुर्भाग्य है कि स्त्री विमर्श के नाम पर, खुद स्त्रियों द्वारा भी, जम कर स्त्री देह की बात की जा रही है। यह स्वीकार करने में किसी को भी शंका नहीं होनी चाहिए कि स्त्री विमर्श को मात्र देह की स्वच्छंदता और नैतिकता वर्जनाओं को तोड़ने के संदर्भ में नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि इससे कहीं ऊपर उठ कर सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक आदि क्षेत्रों में उसके अधिकारों के संदर्भ में भी देखा जाना चाहिए।

यह भी प्रमुख है कि चूंकि स्त्री मुक्ति की आकांक्षा प्रत्येक स्त्री में समान होती है, इसलिए विमर्श के संदर्भों में इसे किसी धर्म या जाति विशेष के आधार पर विभाजित करके नहीं देखा जाना चाहिए। बात जब ‘स्त्री मुक्ति’ की हो, तो वह किसी विशेष दायरे में सीमित नहीं रह जाती। इस स्तर विशेष पर आकर वह न किसी धर्म की रहती है और न ही वर्ग या समुदाय की, तब वह मात्र स्त्री रह जाती है। जिस तरह शोषित, पीड़ित, बलत्कृत और दमित स्त्रियों का वर्ग है और इनकी पहचान जाति-धर्म के आधार पर न होकर ‘शोषित स्त्री’ के रूप में की जाती है उसी प्रकार ‘स्त्री मुक्ति’ आंदोलन में भी वह न हिंदू है न मुसलिम, न ही सवर्ण है और न दलित। इसलिए आवश्यक है कि स्त्री वर्ग संगठित होकर ‘स्त्री मुक्ति’ आंदोलन के संघर्ष को आगे बढ़ाएं। स्त्री को समाज के सन्नाटे को तोड़ने की दिशा में प्रयास करते हुए मुक्ति की अपनी आवाज को निरंतर उठाए रखने के प्रयास करने होंगे।