पांच दिन कूटनीति कुटी। ‘बर्थ डे’ के बाद ‘डेथ डे’ पठानकोट मना। इस तरह वही दुहरा, जिसका अंदेशा था। पचासी घंटे लंबा एनकाउंटर। सात सैनिक शहीद। राजकीय सम्मान। तुरही बजी। इक्कीस बंदूकों की सलामी हुई।
मोदीजी के ‘पावर पुश’ और उतावली ‘स्टेट्समैनशिप’ की कथाएं धूल धूसरित दिखीं। देश को पहले से अंदेशा था। दर्शक शंकालु थे। देश का मीडिया खाली-पीली हवाबाजी कर रहा था कि गजब का स्टॉपओवर किया- बल्ले बल्ले। हर एंकर उत्तेजित था बर्थ डे लीला को देख कर।
आतंकवादी अचानकता से चौंकी पुलिस पलटन के जवान जब आतंकवादियों के खिलाफ एक्शन लेने हाथ में बंदूक लिए खेतों में दौड़ते दिखे तो लगा वे पहली बार दौड़ रहे हों। प्रशासन थर-थर, पुलिस थर-थर, सीन थर-थर! कैमरों के कवरेज में बदहवासी दिखी। चैनलों के रिपोर्टर अब तक नहीं सीख पाए कि ऐसे एक्शन को किस भाषा में कवर करना है, ताकि आतंकियों को सीन की रणनीति से जरा भी फायदा न मिल सके। उनके हैंडलर उनको लाइन न दे सकें, जैसे मुंबई के छब्बीस ग्यारह के कवरेज में गलती से हुआ था। हां, प्रशासन की मनाही से कैमरे लिमिटेड रहे और एक्शन एरिया के एकदम पास तक न पहुंच सके।
हर चैनल पर किसी न किसी अधिकारी ने चैनलों को चेताया कि वे इसके कवरेज में सावधानी बरतें, व्यर्थ उत्तेजित न दिखें, वरना दर्शक हताश-निराश होगा। लेकिन रिपोर्टरों के पास वही घबराई हुई भाषा थी और सीमित बाइटें थीं, जो हर खबर चैनल के स्क्रीन के बीच में हजार बार रिपीट होती दिखती थीं और जिसे फिर भी लाइव कवरेज ही कहा जाता रहा। डेड को लाइव दिखाने की कला अपने चैनलों से सीखिए!
पाकिस्तान का नाम आते ही हमारे चैनलों के एंकर पाकिस्तान के चंद सबसे खूसट रिटायर्ड जनरलों को बिठा कर अपने रिटायर्ड जनरलों से कुश्ती दिखा कर दर्शकों को टीवी के जरिए पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब देने का सुख प्रसारित करते हैं। अच्छे एंकर जानते हैं कि अगर ऐसी गुत्थमगुत्था में जरा-सा कॉमिक रिलीफ न दिया जाए तो ऐसी नूरा कुश्तियों को दर्शक रिजेक्ट कर देंगे। शायद इसीलिए ज्यों ही भाजपा के एक वीर प्रवक्ता ने कहा कि ‘पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा’ तो एंकर ने अचानक पूछ लिया: इस मुंहतोड़ का मतलब क्या, जरा बताइए तो? इतना सुनना था कि वीर प्रवक्ता अपने बंद गले के कोट में कुर्सी पर ढह गया! क्या कहे कि मुंहतोड़ का मतलब क्या है। वे पठानकोट में घुस कर हमारा मुंहतोड़ गए और अब हम गाल बजा रहे हैं!
एंकरों ने सरकार के सूचना तंत्र, सावधानी में देरी, कम तैयारी आदि को लेकर जम कर कुटाई की। लेकिन पचासी घंटे के लाइव कवरेज के बाद उस शाम का वह सीन किस कदर वक्त बर्बाद करने वाला रहा, जिसमें एक संदिग्ध को पहले पुलिस वालों ने लात मार कर सड़क पर लिटाया, उसके दोनों हाथ सिर की ओर उठवाए और एक थैले पर कैमरे लगातार फोकस करते रहे और बताते रहे कि इसमें पता नहीं क्या है? बम स्क्वैड बुलाई गई है आदि आदि! देर बाद मालूम हुआ कि वह बंदा खतरनाक नहीं था। यह पिटाई के बाद की तैयार को दिखाना था। उसके बाद कुछ देर कहानी पंजाब पुलिस के हवाले से लाइव हुई, जो कैमरों के आगे घबराई रही और जांच के बाद बताने पर जोर देती रही।
हड़बड़ी, बौखलाहट और डर सारे कवरेज पर छाया रहा! लेकिन दर्शक शायद ही चौंके, उनको मालूम रहा कि जब-जब पाकिस्तान की ठोड़ी सहलाई गई है, तब-तब आतंकवाद ने हमें ठोका है और विदेश मंत्रालय, रक्षा मंत्रालय रणनीति सोचने में लगा रहा है, ऐसे में पीएम का शरीफ से फोन पर बात करने की बाइट और शरीफ का एक्ट करने का वादा सिर्फ ‘दो डायलॉग’ की तरह दिखे।
हर आतंकवादी हमले का इसी क्रम से कवरेज होता दिखता है। चैनल हमले से देशभक्ति जगाने की ओर दौड़ते हैं, भाजपा नेता और प्रवक्ता ‘मुंहतोड़ जवाब’ देने का प्रण लेते दिखते हैं। कवरेजों के पहले राउंड में दर्शक ‘एक बार फिर धोखा दिया’, ‘उस आस्तीन के सांप को दूध क्यों पिलाते हो’ और ‘डायलॉग बंद करो’ जैसी बाइटों से अपना पेट भरता है और एक निरंतर छले जाते आदमी की मुद्रा धारण कर लेता और घिन से भर जाता है। फिर विशेषज्ञ आते हैं, जो निराश देशभक्त एंकरों और दर्शकों को समझाने लगते हैं कि सबके बावजूद डायलॉग ही विकल्प है, उसे जारी रखें यानी पिट-पिट कर जारी रखें। वे पीटें और हम पिटते रहें। यही सर्वाेत्तम डायलॉग है।
टाइम्स नाउ, जो कुछ दिन पहले ‘बर्थ डे कूटनीति’ के ‘मेरी दोस्ती मेरा प्यार’ वाली थीम पर निछावर-सा नजर आता रहा था, वही पठानकोट की पिटाई के बाद ‘बर्थ डे कूटनीति’ से बेहद खफा दिखा। एंकर इतना नाराज नजर आया कि उसने अपने सुपरिचित अंदाज में लंबा इंट्रो मारते और दहाड़ते हुए कहा: ‘जब तक पाकिस्तान आतंकियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई नहीं करता, तब तक कोई बातचीत नहीं हो सकती…। चकराता के हवाई अड््डे पर मसूद अजहर के भाई ने हमले का पूर्वाभ्यास कराके पठानकोट भेजा’!
पठानकोट के चक्कर में दिल्ली की ‘आॅड-इवन’ कार-कथा पीछे हो गई। पठानकोट के निपटान के बाद ‘आॅड-इवन दिल्ली’ की सुध आई। इंडिया टुडे ने रिपोर्टर को बस में सफर करते लोगों से पूछते दिखाया: आपको आॅड-इवन कैसा लग रहा है? ज्यादातर ने कहा ‘अच्छा’। इन जवाबों से वह रिपोर्टर निराश दिखा। उसे एक नेगेटिव बाइट की दरकार रही।
मगर केजरी का जवाब नहीं। वे दिल्ली वालों के ऐसे कमांडर बन चले हैं, जो रिस्क ले सकते हैं और दिल्ली की जनता से सीधा और सतत मीडिया संवाद कर अपनी बात प्यार से समझा सकते हैं। आश्चर्य कि किसी का अनुशासन न मानने वाली दिल्ली की लाइन तोडू जनता केजरी की लाइन पर चलती दिखती है। केजरी की बढ़ती कीर्ति को कलंकित करने की ठानने वाली लॉबी अब मीडिया में हमले करने लगी है! आॅड-इवन केजरीवाल! सावधान!