संवाद पर विवाद से बस असहज ही किया जा सकता है। मुद्दा यह है कि क्या इस विवाद के कोई मायने हैं या यह सिर्फ हंगामा बरपाना है। अगर मकसद खाली हंगामा ही है तो कहना होगा कि यह बेमानी है। मसला इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में हिंदी साहित्य के शिखर पुरुष नामवर सिंह के सम्मान का था। आलोचकों को यह इल्म भी नहीं कि यह फैसला जितना मुश्किल उनको पचाना हो रहा है उतना ही मुश्किल इसका खाका खींचना भी था। कहना न होगा कि इतने बड़े संस्थान ने जब इस पर फैसला किया तो इसका हर काम ठोक-बजा कर देखा गया। सवाल यहां भी मकसद का था और सत्ता संरक्षित एक संस्थान में भी उतना ही विमर्श था।

लेकिन फिर विवाद हर संवाद पर भारी पड़ा और साहित्य में संवाद की अवधारणा को साहित्य के मूर्धन्य विद्वान नामवर सिंह से ही शुरू करने का फैसला किया गया। यह भी हास्यास्पद ही लगता है कि इतना बड़ा आयोजन किसी व्यक्ति विशेष के चाहने या न चाहने से हो। नामवर सिंह के इस समारोह का निर्णय संस्थान में पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के साथ किया गया। ऐसे समारोह जो संस्थान के तत्त्वावधान में होते हैं उनका निर्णय संस्थान की कार्यसमिति द्वारा किया जाता है जिसके सदस्य संस्थान के ट्रस्टी होते हैं। इस समारोह का फैसला भी कोई आनन-फानन में नहीं हुआ था। इसके आयोजन का फैसला 30 मई और 10 जून को ट्रस्ट की हुई बैठकों में किया गया था। संस्थान का यह तय मत था कि आपसी संवाद के बिना आपसी विकास संभव नहीं है।

संस्थान के मौजूदा अध्यक्ष रामबहादुर राय का मत था कि शरीर अगर संस्कृति है तो अभिव्यक्ति उसकी आत्मा। और आपसी संवाद से उसे संपूर्णता हासिल होगी। राय ने कहा कि संवाद का सिलसिला बनाते समय तय किया जाए कि यह व्यक्तिपरक न हो। और यह तय है कि नामवर सिंह कोई व्यक्ति नहीं। साहित्य की दुनिया में उन्हें वह सम्मान हासिल है जो उनकी अथक मेहनत के सदके ही मुमकिन हो पाया है।
सूत्रों की मानें तो इस समारोह के आयोजन को लेकर ट्रस्ट के अंदर भी विरोध था। एक ट्रस्टी ने तो बकायदा पत्र लिख कर इस आयोजन पर न सिर्फ आपत्ति जताई वरन उसे रद्द करने की भी मांग की। पर आखिरकार आपसी विवाद पर मकसद हावी रहा। सच तो यह है कि विवाद की दस्तक प्रधानमंत्री कार्यालय तक भी पहुंच गई थी। लेकिन विरोध और समर्थन के स्वर के बीच यही तय किया गया कि आपसी संवाद की संभावनाएं तलाशने की इस पहल को अवरोध के बजाए भरपूर समर्थन की जरूरत है। यही कारण है कि हर स्तर पर इस प्रयास पर औचित्य की मुहर लगाई गई।

यह फासला तय करने के बाद ही संस्थान प्रमुख राय और सचिव सच्चिदानंद जोशी नामवर सिंह के पास गए और उन्होंने इसमें शमूलियत को अपनी सहमति दी। इस समारोह में हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति गिरीश्वर मिश्र से भी आने को कहा गया, जिन्होंने विश्वविद्यालय की तरफ से समारोह के आयोजन के लिए एक लाख रुपए का सहयोग भी दिया।

लिहाजा इस संवाद पर विवाद से साहित्य संस्कार की आपसी गरिमा को ही आघात पहुंच रहा है। यह एक ऐसी पहल थी जिसके पीछे साहित्य की मौजूदा गुटबंदियों को आपसी सहयोग की ओर मोड़ने की कोशिश थी। आपस में संघर्ष की लकीरें खींचने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि अगर कभी भागीरथी और अलकनंदा आपस में न मिलतीं तो गंगा का कोई अस्तित्व न होता। सभी नदियां भी तो आखिर सागर में ही जा मिलती हैं। विचारधाराओं का अगर आपस में संवाद ही न हो तो फिर कोई भी साझा प्रयास कैसे हो पाएगा? आपसी संघर्ष की कोख से अलगाव ही निकल सकता है न कि संवाद। ऐसे में इस पहल को एक वस्तुनिष्ठ नजरिए से देखे जाने की जरूरत है।

दूसरा बड़ा मसला यह भी है कि किसी संस्था के साथ राजनीतिक पक्ष जैसा व्यवहार कैसे किया जा सकता है। ऐसा होता तो संस्थानों के अध्यक्ष सरकारों के साथ ही बदलते क्यों? इन संस्थाओं पर समय-समय पर अलग-अलग विचारधाराओं का कब्जा तो हो सकता है लेकिन इसका अभिप्राय यह तो नहीं कि ये संस्थाएं इन दलों की शाखा सरीखी हो जाएं। ऐसे में अगर से संस्थाएं सभी विचारधाराओं को खुद में समाहित करती हैं तो उसमें हर्ज ही क्या है? यह महज संयोग ही है कि इस बार विवाद के केंद्र में नामवर सिंह हैं। कल कौन हो, यह क्या पता? ऐसे में जाहिर है कि इस पर एक निष्पक्ष दृष्टिकोण से देखने की जरूरत है न कि इस पर विवाद खड़ा कर इस पहल को संकुचित करने की।