राजनीति में आरोपों-प्रत्यारोपों का तड़का एक सर्वमान्य तथ्य है। लेकिन अति सर्वत्र वर्जयते और यह राजनीति में भी लागू है। दिल्ली की राजनीति में भी कुछ ऐसा ही दिख रहा है। यहां की राजनीति के आरोप-प्रत्यारोप तड़के की सीमा को कब का लांघ चुके हैं और अब पूरा खेल चोर-सिपाही का हो गया है। ऐसे में विकास और
बुनियादी सुविधाओं की बाट जोहती बेचारी जनता बेस्वाद और तीखे तड़के का जायका लेने को मजबूर है। उधर जब राज्य के मुख्यमंत्री ही खुद को महफूज महसूस नहीं कर रहे हैं और अपने कुनबे को भी भरोसा नहीं दिला पा रहे हैं, तो ऐसे में दिल्ली की जनता क्या उम्मीद रखे। लेकिन, हां, मुख्यमंत्री की पोटली में पंजाब, गोवा और गुजरात के लिए अभी ढेर सारी सौगात बची है। दिल्ली के हिस्से की उम्मीदें भी इन्हीं सौगातों में शायद घुलमिल गई है। फिलहाल तो चोर-सिपाही के तमाशे से ही काम चलाना होगा।
मिले ना सुर
आम आदमी पार्टी (आप) की सरकार भले ही काम कम और विवाद ज्यादा कर रही हो, लेकिन एक चीज तो है कि इसमें एक-दूसरे की काट करने वाले नेता नहीं बचे हैं। जो थे भी उन्हें पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल ने विदा कर दिया है। कांग्रेस और भाजपा में तो जितने नेता उतने गुट हैं। आप ने दोनों पार्टियों को हाशिए पर ला दिया, लेकिन पार्टी में दूसरे को खुद से अच्छा मानने की परंपरा ही नहीं है। कांग्रेस तो इसके लिए शुरू से ही मशहूर रही है और अब भाजपा भी उसी के नक्शेकदम पर चल रही है। विजय गोयल के मंत्री बनने से गुटों की संख्या घटी है, वरना एक पार्टी प्रदेश भाजपा दफ्तर से चल रही थी तो दूसरी भाजपा विधानसभा से। केवल यही नहीं कि दोनों ही जगहों से हर मुद्दे पर अलग-अलग बयान आते हैं बल्कि दोनों के कार्यक्रम भी अलग-अलग होते हैं और कई बार तो नेता एक-दूसरे के आयोजनों में शामिल तक नहीं होते। ताज्जुब यह है कि केंद्रीय नेतृत्व भी दिल्ली में है, लेकिन वह टकराव को खत्म करने के लिए कोई पहल करने को तैयार ही नहीं है।
टोपी और धागा
किसी आयोजन के लिए पैसे जुटाना भी एक कला है और इसमें दिल्लीवालों से माहिर कोई नहीं है। वे उन कड़ियों को बखूबी जानते हैं जिनसे पैसे का इंतजाम किया जा सकता है। इसके लिए दिल्ली में एक प्रचलित शब्द है टोपी और धागा पहनाना। किस तरह के आयोजन के लिए किसको टोपी और धागा पहनाना है, इसका पता दिल्लीवालों को बखूबी है। वे बहुत अच्छे से जानते हैं कि अगर अमुक व्यवसायी को ये पद और अमुख कारोबारी को ये पद दे दिया जाए तो आयोजन का पूरा खर्चा बड़े आराम से निकल आएगा। वे धीरे-धीरे दानदाता का मन भापते हैं और फिर ऐसा हृदय परिवर्तन करते हैं कि बस टोपी और धागे के बल पर आयोजन में लगने वाले लाखों-करोड़ों का खर्च निकाल लेते हैं।
दाखिले का दर्द
दिल्ली विश्वविद्यालय में पांचवी कटआॅफ के बाद कटआॅफ से छुटकारे की विधा ‘मेरिट’ कॉलेजों के गले की हड्डी बन गया है। दबी जुबान से ही सही कॉलेजों के ‘टीचर रूम’ में इस चर्चा को हवा मिल रही है। किसी ने कहा, ‘नई व्यवस्था ने पुराने लोगों के भी पसीने छुड़ा दिए’। पहली बार स्नातक स्तरीय पाठ्यक्रमों में मेरिट व्यवस्था से दाखिले करना कॉलेजों के लिए मुसीबत साबित हो रहा है। हजारों की संख्या में आवेदन के कारण कॉलेजों को मेरिट लिस्ट बनाने में पसीने छूट गए। तभी तो जो मेरिट लिस्ट शाम चार बजे आनी थी, वह देर रात तक नजर नहीं आई। मेरिट लिस्ट को देखने के लिए दोपहर से ही विद्यार्थी व अभिभावक कॉलेजों की वेबसाइटों को खंगालते रहे।
दिल्ली मेरी दिल्लीः अति आप की
राजनीति में आरोपों-प्रत्यारोपों का तड़का एक सर्वमान्य तथ्य है। लेकिन अति सर्वत्र वर्जयते और यह राजनीति में भी लागू है।
Written by जनसत्ता

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First published on: 01-08-2016 at 03:32 IST