आज अदालत में तलाक का मुकदमा दाखिल करते हुए मन काफी उद्वेलित हो गया। मुकदमे के कागजों पर हस्ताक्षर करते हुए भी अंगुलियां कांप रही थीं, पर मन कड़ा करके मैंने उन पर हस्ताक्षर कर दिए। तलाक के कागजों पर हस्ताक्षर करना भी तलाक स्वीकारने जैसा ही होता है। आज मैं उतनी ही भारी हो रही हूं, जितनी पंद्रह साल पहले अपने घर को छोड़कर आते समय हो रही थी। यह उद्वेलन ठीक वैसा तो नहीं है पर उससे भी कहीं ज्यादा गहरा है। उस समय मन भारी था पर उत्साह से लबरेज; उसी
उत्साह का हाथ पकड़े हुए मैं उत्कर्ष के साथ चली आई थी अपना सब कुछ छोड़ कर।
लेकिन,आज फिर से एक नई राह पकड़ने के लिए मन में निश्चय कर रही हूं, तो मेरी आंखों में बीते हुए समय की कई तस्वीरें तैरने लगीं, उसी की झिलमिलाहट के साथ अदालत की सीढ़ियां उतरती चली गई और मेरे साथ समय का भंवर भी अंदर उतरता चला गया।
पंद्रह साल पहले जब मैं उत्कर्ष के साथ जुड़ी थी उस समय वह कितना हंसमुख और हैंडसम हुआ करता था; मैं भी तो अठारह साल की सुंदरी थी। मन में उमंगें उफान पर थीं। कुछ भी कर गुजरने को उतावली। हमेशा ही उसके खयालों में खोई रहती। पापा-मम्मी जब पढ़ाई की बात करते तो वह मुझे सिनेमा के खलनायक दिखाई देते। मैं जल्दी ही उनसे छुटकारा पाना चाहती। पर, मम्मी-पापा से छुटकारा इतना आसान कहां होता है । एक लड़की के जीवन में उनका होना एक आस की तरह बना रहता है, उन दिनों उनके होने से ही परेशानी हो रही थी। मैं आजाद हो जाना चाहती थी। एक पंछी की तरह आसमान में उन्मुक्त उड़ना चाहती थी। और मुझे हवा दी उत्कर्ष ने, जिससे मुलाकात हुए मुश्किल से छह महीने भी नहीं हुए थे। इतने कम दिनों में ही सारे रिश्तों को समेटते हुए हम तेजी से भागे जा रहे थे एक दूसरे की तरफ। मैं उसके साथ जीवन का हर पल बिताना चाहती थी। उसे अपना सब कुछ दे देना चाहती थी और बदले में उसका सब कुछ पा लेना चाहती थी। यही उन दिनों मेरी सोच का आसमान था।
और फिर एक दिन मैंने अपना आसमान पाने के लिए आज तक का समय दांव पर लगा दिया। मैं उत्कर्ष के साथ अपना आशियाना बसाने के लिए चल पड़ी। हमने एक नया संसार रच भी लिया। सबके विरोध के बावजूद इक दुनिया बसाई। और फिर अपनी उसी दुनिया में खोते चले गए। समय का रेला कब और कहां से निकल गया पता ही नहीं चला।
पर उत्कर्ष का शौक सब पर हावी रहा। रफ्तार के साथ उसकी दोस्ती, उफ मैं तो दांतों तले उंगली ही दबा लेती। यह अलग बात है कि इसी रफ्तार की वजह से मैं उसके करीब आई थी। हमारा मिलना भी उसके इसी शौक की वजह से ही हुआ। मोटरसाइकिल पर बैठकर तो वह जैसे हवा से बातें करता। और देखते ही देखते स्पीडोमीटर इतना तेज भागने लगता। उसकी रफ्तार से उत्कर्ष की बांछें खिल जातीं। वह उसे वहीं टिकाए रहता और मेरी जान सांसत में रहती, पीछे वाली सीट पर बैठे हुए मेरा हलक सूखने लगता। लेकिन वह तो उसी में डूबा हवा के परों पर सवार उड़ाता फिरता। उसके इसी शौंक की इंतिहा थी कि मैं उसके साथ जुड़ गई और उसकी रफ्तार में शामिल हो गई। वह बहुत तेजी से भागता जा रहा था। उसकी गति हवा की गति थी; उसके विचार सपनों के फूल थे। मैं उनमें डूबती चली गई। समय के परों पर सवार हम उड़े जा रहे थे पंखहीन परवाज से, पर समय से खिलवाड़ किसे पसंद है। शायद, वही लौटकर वापस आता है जिसे हम काफी पीछे छोड़ आते हैं। इसीलिए कहा जाता है यह दुनिया गोल है । और बार बार लौटना ही आदमी का नसीब। जब हम इसे झुठलाते हैं तभी परेशानियों के भंवर में घिरते चले जाते हैं। यह अलग बात है कि आदमी की फितरत ही वर्तमान से विरोध करने की है, तभी तो वह आगे की राह बनाता है। और हमने भी वही किया।
अपने जीवन को आगे के रास्ते पर धकेल दिया। वैसे तो सब कुछ ठीक चल रहा था। उत्कर्ष और मैंने मिल कर एक ऐसा संसार रचा; जिसकी नींव में अपनापन और प्रेम भरा हुआ था। हम उसी पर बैठकर समय की पींगों को देखा करते। उत्कर्ष का प्रिंटिग का कारोबार भी चल निकला। अब उसे फुर्सत नहीं थी पूरे दिन, वह अपने काम में लगा रहता। मैंने भी अपना समय काटने के लिए एक निजी स्कूल में नौकरी कर ली। हमारे दिन अच्छे बीत रहे थे। समय अपनी गति से भाग रहा था।
लेकिन उस दिन अचानक ही मुझे स्कूल में किसी अनजान व्यक्ति का फोन आया, एक बार तो मैं चौंकी, ‘यह अनजान नंबर किसका है?’ मैंने जैसे ही फोन को कान पर लगाया उसने उबलता हुआ सीसा मेरे कान में उड़ेल दिया । मैं वहीं बुत बन गई, तभी मेरी सहयोगी ज्योति ने पूछा, ‘क्या हो गया है उत्तरा?’ तब मेरी तंद्रा लौटी और वर्तमान से जुड़ पाई। तुरंत ही अस्पताल की तरफ दौड़ पड़ी। वह फोन अस्पताल से था, मुझे सूचना देने के लिए कि उत्कर्ष का एक्सीडेंट हो गया है, तुरंत पहुंंचो।
जब आॅटो से अस्पताल के लिए जा रही थी, उस समय भी ज्योति मेरे साथ थी। वह पूरे रास्ते मुझे सांत्वना देती रही, ‘उत्तरा तुम परेशान मत हो, शायद कोई छोटा सा एक्सीडेंट हुआ होगा…तुम देखना सब ठीक हो जाएगा।’
पर मैं तो उत्कर्ष की बुलेट की रफ्तार को जानती थी न, मेरे मन में धुकधुकी लगी रही । उत्कर्ष को लेकर अंदेशों के कई पहाड़ तने हुए थे, जिनके पार मैं निकल ही नहीं पा रही थी। पूरे रास्ते ज्योति मेरे मन को तसल्ली देने के लिए कुछ न कुछ बोलती रही। पर मैं तुरंत ही उत्कर्ष को देख लेना चाहती थी। अस्पताल तक का रास्ता पार करना मेरे लिए भारी हो गया। मेरी सांस जैसे हलक में ही अटक कर रह गई। जब अस्पताल की इमरजेंसी में पहुंची तब पता चला कि एक्सींडेंट जबरदस्त हुआ है। मैं पत्थर हो गई। मुझे कुछ भी नहीं बताया जा रहा था। मुझे तो बस रुपयों का इंतजाम करने के लिए कहा गया, जो कहीं से
भी जुटाने थे।
अब उत्कर्ष को आईसीयू में शिफ्ट कर दिया गया। और फिर, वहां से कुछ दिनों में निजी वार्ड में। हमें अस्पताल में रहते हुए दो महीने हो गए। उसकी हालत जस की तस बनी रही। थोड़ा भी सुधार नहीं, उसका आधा धड़ लकवाग्रस्त हो गया। दवाइयों और फिजियोथेरेपी ने ऐसा हाथ पकड़ा कि वह छोड़े नहीं छूटा। उस ऐक्सीडेंट के बाद उत्कर्ष बच तो गया पर उसने हमारा सब कुछ लील लिया, मन का चैन और घर की सुख समृद्धि। जिस तरह से उत्कर्ष के रफ्तार के शौक ने हमें मिलवाया था; उसी ने हमारे बीच का सब कुछ निगल लिया। उसकी प्रिंटिग प्रेस और इसके साथ ही अब तक जो कुछ भी हमने जोड़ा था हाथ से फिसल गया।
दो महीने की लंबी प्रतीक्षा के बाद उत्कर्ष घर आया तो वह व्हील चेअर पर था और उसे मैं खींच रही थी। उसके शरीर के आधे हिस्से को लकवा मार गया था। उसकी रीढ़ की हड्डी में गहरी चोट लगने की वजह से यह हुआ था। और अब उसे उम्र भर इसी तरह रहना है । मैंने तो इसमें भी संतोष कर लिया, ‘कम से कम जान तो बची, हम जैसे भी होगा जी लेंगे।’ पर उत्कर्ष के माता-पिता उस एक्सीडेंट को लेकर गहरे सदमे में आ गए। उन्होंने इसका ठीकरा मेरे सर फोड़ते हुए कहा, ‘डायन! तूने हमारे बेटे को खा लिया।’ विलाप करती हुई उसकी मां लगातार मुझे कोस रही थी। मैं अश्रुपूरित आंखों से उन्हें देखती रह गई। अपने मुंह से कुछ भी नहीं बोली। और इस समय बोलती भी तो क्या, मैं खुद भी तो दुख के समंदर में डूबी हुई थी। उन्हें तो मेरी बिल्कुल भी चिंता नहीं थी, बल्कि वह हमें अलग-अलग करके देख रही थे। कहते हैं विपत्ति की घड़ी में सब एक हो जाते हैं। पर यहां तो सब उल्टा ही हो रहा था।
मैं समझ रही थी, माता-पिता का दुख है जो इस तरह से फूट रहा है। लेकिन मेरा दुख कहां और किस तरह से बाहर निकले? इसके बारे में उन्होंने जरा भी चिंता नहीं की। जिस तरह से उत्कर्ष उनका बेटा है उसी तरह से मैं भी तो किसी की बेटी हूं। तब मैंने अपने मम्मी-पापा को खबर कर दी, वे भी आ गए। उनके आने से मन को थोड़ी तसल्ली मिली। अब मुझे देखने वाला कोई तो था। एक अजीब तरह की मन:स्थिति से गुजर रही थी; एक तरफ उत्कर्ष के माता-पिता थे जो हर समय ताने और उलाहने के साथ सामने आते तो वहीं दूसरी तरफ मेरे मम्मी-पापा थे हर वक्त हौसला देते। मैं डबडबाई आंखों से उनकी तरफ देखती, वे मेरे मन की पीड़ा को समझते, पर इस समय उनकी सहानुभूति भी मुझे गहरी टीस से भर देती।
मैं तो अपने गम में ही डूबी हुई थी, उनकी स्नेहमयी आंखें मेरे अंदर तक उतरती जाती तेजधार छुरी की तरह। अपना मुंह बंद किए उस समय को भी गुजार दिया।
लेकिन जब उत्कर्ष को अस्पताल से घर ला रहे थे उस समय उसे व्हील चेअर पर खींचते हुए मैं भी भरभराकर ढह गई। तब मां ने हौसला देते हुए कहा, ‘बेटा! ऐसे टूटने से काम नहीं चलेगा, तुम्हें तो अपने हौसलों को और भी बुलंद करना पड़ेगा, तभी जीवन में कुछ कर पाओगी।’ मां का संबल मेरे इरादों की ढहती दीवार को संभाले हुए था। जबकि उत्कर्ष के माता-पिता मुझे ही जिम्मेदार ठहरा रहे थे, लेकिन उन्हें तो अपने बेटे की तेज रफ्तारी के बारे में पहले से ही पता था। अभी तक उससे मुंह क्यों मोड़े रहे और अब मुझे कुलच्छनी ठहराते हुए न जाने क्या-क्या कह रहे हैं।

मेरी समझ में यह नहीं आ रहा कि कोई आदमी शुभ-अशुभ कैसे हो सकता है? उन्होंने अपने बेटे के दुर्गुणों को पूरी तरह से कैसे और क्यों भुला दिया? और अब पूरा दोष मेरे माथे मढ़ दिया। जबकि इसके जिम्मेदार तो वे खुद भी हंै, अगर उन्होंने बचपन में ही अपने बेटे की तेज रफ्तारी को रोकने की कोशिश की होती तो आज इस तरह से हमारा जीवन तबाह नहीं होता। आज मैं गम के सागर में डूबी हुई तो नहीं होती। मैं तो उन्हें दोष नहीं देती, तो उन्हें मुझे भी दोषी ठहराने का कोई अधिकार नहीं है। यही सोचकर मैंने खुदको समेटना शुुरू कर दिया।
और फिर कुछ सालों के बाद परिस्थितियां ऐसी हुर्इं कि उत्कर्ष को मैं उसके माता-पिता के यहां खुद ही छोड़ आई। मैंने खुदको पूरी तरह से अकेला कर लिया। मेरे मन में न जाने कब चोर रास्ते से यह विचार घुस आया। उस दिन मैं उत्कर्ष को अपने साथ ले जाकर उसके घर छोड़ते हुए बोली, ‘लो संभालो अपने बेटे को!’ मैं भी अकेली क्या करती कब तब करती उसकी देखभाल ; और कैसे अपने जीवन की नाव को पार लगाती, आखिर मुझे भी तो अपने बारे में सोचने का अधिकार है। मैंने यह सोचकर मन कड़ा कर लिया, ‘जो मेरे साथ आया था अपने पैरों पर चलकर वह आज जा रहा है इस व्हील् चेअर पर…उस समय वह बस टुकुर टुकुर देखता रहा मुझे। मेरी तरह ही वह भी अजीब मनोदशा में होगा, मैं जानती हूं , इन दिनों वह अपने आपको बोझ मानने लगा था मुझ पर। मैं भी क्या करती…कितना तोे देखभाल करती फिर भी वह न जाने कौन-सी दुनिया में खोया रहने लगा। मैं मानती हूं कि वह अजीब मनोदशा में था, लेकिन उसके माता-पिता तो पूरे होशोहवास में थे, और मैं भी न तो उन्होंने कुछ कहा, और न ही मैं कुछ कह पाई। विवश आंखों से उसे उनके पास छोड़ आई। उसके माता-पिता का जिक्र आने पर या उनको देखकर उसके मन में उल्लास के सागर हिलोरें लेने लगता; उसकी बांछें खिल जातीं।
उसको छोड़ आने के बाद मैं पूरी तरह से अकेली हो गई। मां ने मुझे ढांढस बंधाते हुए कहा, ‘बेटी! तुम इस तरह से यहां अकेले कैसे रह पाओगी?… तुम भी अपने बारे में कुछ तो सोचो…और अब नहीं सोचोगी तो फिर कब सोचोगी….सब समेटकर चलो हमारे साथ।’ मैं निचाट आंखों से मां को देखने लगी, उनका कहना सही था। अतीत के सहारे कोई कब तक रह सकता है, लेकिन फिर से नई शुरुआत के बारे में सोचकर ही मैं घबरा गई। मेरे पास इसके अलावा कोई रास्ता ही नहीं बचा। मुझे विवश होकर वही सब करना पड़ा जो मां ने कहा था ।
मैं उनके साथ सब समेटकर चली आई ; फिर यहां आकर नए सिरे से शुरुआत की, पापा ने मुझे एक स्कूल में नौकरी दिला दी। फिर से जीवन की गाड़ी पटरी पर आने लगी । अभी तक भी उत्कर्ष की बुलेट को संभाले हुए थी, उसकी याद के रूप में; पर वह खड़ी खड़ी ही सड़ रही थी। उसकी याद की तरह, तो एक दिन गुस्से में उसे भी बेच दिया, उसके साथ ही उसकी याद भी खत्म हो गई। मोटर साइकिल को बेचते हुए मन बहुत क्षुब्ध था। अब मेरे साथ न तो उत्कर्ष था और न ही उसकी कोई याद। उसके सभी सामानों को भी एक-एककर लोगों को दे दिया। मानो अपने मन से उसकी यादों को भी नोच नोचकर फेंक रही हूं, जिन्हें पिछले आठ साल से ढो रही थी।
इन आठ सालों में मैंने अपने आपको संभालने की ही जुगत की। एक बार उत्कर्ष क्या गया फिर वापस लौटकर नहीं आया और मैंने भी उससे मिलने की कोशिश नहीं की। वह घर से गया तो फिर धीरे-धीरे मन से भी दूर होता चला गया। अब मैं वास्तविकता में जीना चाहती हूं, आखिर मैं भी कब तक एक बीमार संबंध को ढोती रहती। लेकिन, किसी भी निर्णय पर पहुंचने में इतने साल निकाल दिए। और अंत में वही ढाक के तीन पात, मुझे इस निर्णय पर पहुंचना पड़ा, ‘मैं आखिर इसे कब तक ढोती रहूंगी…? अब मुझे इससे बाहर निकलना ही होगा। यह अतीत हुआ संबंध मेरे मन को अंदर ही अंदर कुरेदता रहता है। मुझे इससे पार पाना ही होगा।’
और मैंने अपनी भावनाओं पर काबू पा लिया। परिस्थितियों ने और समय ने हमारे बीच के संबंध को लील लिया। तो फिर इस मरे हुए संबंध को आखिर कब तक ढोती रहती।
लेकिन आज जब अदालत में तलाक का मुकदमा लग गया है तो एक तरह से एक चोला ही उतारा है अपने जिस्म से, जिसे बगैर किसी कारण के पिछले आठ सालों से ओढ़े हुए थी।