इस समय भारत समेत दुनिया भर के बच्चों पर तमाम तरह के खतरे मंडरा रहे हैं । विडंबना यह है कि अब जलवायु परिवर्तन भी बच्चों को अपना शिकार बना रहा है । हाल ही में संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के 2.3 अरब बच्चों में से लगभग 69 करोड़ बच्चे जलवायु परिवर्तन के सबसे अधिक जोखिम वाले क्षेत्रों में रहते हैं ,जिसके चलते उन्हें उच्च मृत्यु दर, गरीबी और बीमारियों का सामना करना पड़ रहा है । लगभग 53 करोड़ बच्चे बाढ़ और उष्णकटिबंधीय तूफानों से सर्वाधिक प्रभावित देशों में रहते हैं। इनमें से ज्यादातर देश एशिया में हैं। करीब सोलह करोड़ बच्चे सूखे से गंभीर रूप से प्रभावित क्षेत्रों में पल-बढ़ रहे है। इन क्षेत्रों में से ज्यादातर अफ्रीका में हैं। दरअसल बच्चे किसी भी समाज या राष्ट्र का भविष्य होते हंै। भारत में भी बच्चों की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। दुर्भाग्य यही है कि यहां बचपन बचाने की चिंता मात्र खोखले आदर्शवाद के दायरे में ही सिमट कर रह गई है।
बच्चों के बचपन पर छाई धुंध और गहराती जा रही है। आज एक ओर विभिन्न चैनलों द्वारा टीवी पर परोसी जा रही अश्लीलता से बच्चों का बचपन असुरक्षित होता जा रहा है तो वहीं दूसरी ओर हिंसापूर्ण फिल्में बाल भावनाओं को विकृत कर रही हंै। कहीं बस्तों के बोझ से बच्चों का बचपन दब गया है तो कहीं शिक्षा के अभाव में बच्चे दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हंै। एक ओर बच्चे मानवीय अत्याचार से पीड़ित हंै तो दूसरी ओर पारिवारिक विघटन का असर बच्चों पर पड़ रहा है। आज बच्चों के बचपन से संबंधित ऐसी ही अनेक प्रश्नों पर गंभीरता के साथ पुनर्विचार की जरूरत है।
कुछ समय पहले ‘सेंटर फार एडवोकेसी एंड रिसर्च’ की रिपोर्ट में बताया गया था कि टीवी पर दिखाई जाने वाली हिंसा से बच्चों के दिलोदिमाग पर प्रतिकूल असर पड़ता है। पांच शहरों में हुए सर्वेक्षण से यह निष्कर्ष सामने आया कि हिंसक और भूतप्रेत वाले कार्यक्रमों से बच्चों पर गहरा भावनात्मक असर पड़ता है जो आगे चलकर उनके भविष्य के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। निष्कर्ष निकाला गया कि पचहत्तर फीसद टीवी कार्यक्रम ऐसे हैं जिनमें किसी न किसी तरह की हिंसा जरूर दिखाई जाती है। इन कार्यक्रमों से बच्चों पर गहरा मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक असर पड़ता है। सस्पेंस ,थ्रिलर, हॉरर शॉ और सोप ओपेरा देखने वाले बच्चे जटिल मनोवैज्ञानिक समस्याओं से प्रभावित हो जाते हैं।
देखने में आ रहा है कि बच्चों के मनोविज्ञान को समझे बिना बड़े लोग अपनी इच्छाएं उन पर थोप देते हंै। ऐसे में बच्चे जिस अंतर्द्वंद्व की अवस्था से गुजरते हंै वह आखिरकार कई समस्याओं को जन्म देता है। कहा जा सकता है कि अगर बच्चों की इच्छाओं के समक्ष घुटने टेक दिए जाएंगे तो उनके और अधिक जिद्दी बनने और गलत रास्ते पर चलने की आशंका बढ़ जाएगी। निश्चित रूप से ऐसा हो सकता है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि हम बच्चों की इच्छाओं को कोई महत्त्व ही न दें। अमूमन होता यह है कि हम शुरू में बच्चे को बहुत अधिक प्यार करते हैं।
ऐसे में माता-पिता से बच्चे की अपेक्षाएं भी बढ़ जाती हैं। अपनी इन्हीं अपेक्षाओं के अनुरूप जब बच्चा अपनी इच्छाएं माता-पिता से बताता है तो वे उसे डांट-फटकार कर चुप कर देते हैं। माता-पिता का यह व्यवहार ही बच्चों को विद्रोही और चिड़चिड़ा बना देता है। जरूरत इस बात की है कि हम प्रारंभ से ही बच्चों के साथ एक संतुलित रवैया अपनाएं। बच्चों को ठीक ढंग से समझने के लिए हमें अपने अंदर एक मनोवैज्ञानिक नजर भी विकसित करनी होगी। बच्चों की इच्छाओं और भावनाओं को महत्त्व देते हुए हमें यह समझने की कोशिश करनी होगी कि वास्तव में वे चाहते क्या हैं? अगर बच्चे अपनी गलत जिद पर अड़े हुए है तो हमें मात्र डांट-फटकार का रास्ता न अपनाकर विवेक और प्यार का रास्ता अपनाना होगा। हमें कोशिश करनी होगी कि हम बच्चों को विश्वास में ले सकें।
इसके लिए हमें बहुत छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखते हुए अपने व्यवहार में भी परिवर्तन लाना होगा। माता-पिता द्वारा बच्चों पर अपनी इच्छाएं थोपने के अनेक रूप हो सकते हैं। अक्सर यह देखने में आया है कि माता-पिता स्वयं जिस लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाते हंै वे उस लक्ष्य तक अपने बच्चों को पहुंचाने की कोशिश करते हैं। वे इस जुनून में यह भी परवाह नहीं करते कि वास्तव में बच्चे की अपनी इच्छा क्या है? वे यह भी जानने की कोशिश नहीं करते कि बच्चे में उस लक्ष्य तक पहुंचने की क्षमता है भी या नहीं । बच्चे के उज्जवल भविष्य का स्वप्न देखना और उस स्वप्न को साकार करने का प्रयास करना गलत नहीं है, लेकिन यह सब यथार्थ के धरातल पर होना चाहिए।
सर्वप्रथम हमें यह तय कर लेना चाहिए कि पढ़ाई में बच्चे का स्तर क्या है? इसी आधार पर हमें उसके भविष्य का मार्ग तय करना चाहिए। जीवन का मूल उद्देश्य है सम्मानपूर्वक जीवन जीना। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि सम्मान किसी एक क्षेत्र की बपौती नहीं होता है। अगर हम ईमानदारी और लगन से कार्य करें तो किसी भी क्षेत्र में सम्मानपूर्वक जीवन जिया जा सकता है। इसलिए बच्चों की क्षमता को न देखते हुए किसी एक ही चीज का जुनून पालना गलत तो है ही, बच्चे के प्रति भी अन्याय है। अमूमन होता यह है कि माता-पिता बच्चे के स्तर से अधिक की आशा रखते हंै। ऐसे में आशानुरूप परिणाम न मिलने के कारण माता-पिता के डर से अनेक बच्चे आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाते हंै। इस तरह की अनेक घटनाएं अक्सर प्रकाश में आती रहती हैं।
आज की महानगरीय जीवन शैली में माता और पिता दोनों ही अपने-अपने कामों में व्यस्त रहते हंै। ऐसे में भी बच्चों की उचित और संपूर्ण देखभाल प्रभावित होती है। बच्चों को आया या नौकर के सहारे छोड़ दिया जाता है। व्यावसायिकता के इस दौर में किड-गार्डन संस्कृति भी खूब फल-फूल रही है। नौकर और किड गार्डन कुछ समय तक तो बच्चों की देखभाल कर सकते हैं लेकिन समस्या तब आती है जब अत्यधिक व्यवस्ता के कारण माता-पिता बच्चों को मात्र इस व्यवस्था के सहारे ही छोड़ देते हैं। कुछ मामलों में तो पति और पत्नी दोनों का काम पर जाना मजबूरी होती है।
लेकिन महानगरों में पति और पत्नी दोनों ही अपनी अलग-अलग जिंदगी जीना चाहते हैं। ऐसे में बच्चों को भगवान भरोसे छोड़ दिया जाता है। बच्चों के लालन पोषण के लिए मात्र सुख सुविधाओं की ही आवश्यकता नहीं होती है बल्कि सबसे अधिक आवश्यकता होती है उस स्नेह की जो सच्चे अर्थों में उनके अंदर एक विश्वास पैदा करता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि आज हमने और अधिक पैसा कमाने की होड़ और आधुनिक बनने के चक्कर में मानवीय मूल्यों को भी तिलांजलि दे दी है। आज बच्चों का एक वर्ग पहले की अपेक्षा अधिक जागरूक और समझदार है लेकिन बच्चों के इस वर्ग को कोई नैतिक दिशा नहीं मिल पा रही है। ०