Moinuddin Chishti Biography: अजमेर की एक स्थानीय अदालत के द्वारा अजमेर शरीफ दरगाह के नीचे शिव मंदिर होने वाली याचिका को स्वीकार करने के बाद काफी विवाद खड़ा हो गया है। इस मामले में अदालत की ओर से नोटिस भी जारी किया जा चुका है। अजमेर शरीफ दरगाह ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की है। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती को गरीब नवाज यानी गरीबों का भला करने वाला भी कहा जाता है।

इस दरगाह पर भारत के अलावा भी कई देशों के लोग आते हैं। कहा जाता है कि यह दरगाह 12वीं शताब्दी के अंत में बनाई गई थी।

अजमेर शरीफ दरगाह को लेकर हुए विवाद के बाद यह जानने की दिलचस्पी बहुत सारे लोगों के मन में है कि ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती कौन थे, वे कहां के रहने वाले थे, भारत कैसे आए, इसके साथ ही और भी कई सवाल।

अजमेर की अदालत ने केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय, आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया और अजमेर दरगाह समिति को नोटिस जारी किया गया है। यह नोटिस हिंदू सेना के प्रमुख विष्णु गुप्ता की याचिका को लेकर जारी किया गया है।

Ajmer Sharif Dargah News: ‘इंशाअल्लाह किसी की मुराद पूरी नहीं होगी..’, अजमेर शरीफ दरगाह को शिव मंदिर बताने पर बोले सरवर चिश्ती

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अंजुमन कमेटी के सचिव सरवर चिश्ती। (Source- सोशल मीडिया)

ईरान में हुआ था जन्म

ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती को मोइनुद्दीन या मुइन अल-दीन भी लिखा जाता है। मोइनुद्दीन का जन्म 1141 ई. में फारस (ईरान) के एक प्रांत सिस्तान में हुआ था, जो मौजूदा अफगानिस्तान की सीमा से सटा हुआ है। ऐसा कहा जाता है कि वह पैगम्बर मुहम्मद के वंशज थे।

मोइनुद्दीन 14 साल की उम्र में अनाथ हो गए थे। उनकी आध्यात्मिक यात्रा की शुरुआत इब्राहिम कंदोजी नाम के एक बूढ़े फकीर से मिलने के बाद शुरू हुई थी। बूढ़े फकीर के साथ खाना खाते वक्त मोइनुद्दीन ने उनसे पूछा कि क्या जीवन में अकेलेपन, मौत और विनाश के सिवा कुछ और भी है। फकीर ने उनसे कहा कि हर मनुष्य को खुद ही इस सच को खोजने और इसका अनुभव करने की कोशिश करनी चाहिए। यह बात मेहरू जाफर ने अपनी किताब द बुक ऑफ मुइनुद्दीन चिश्ती, 2008 में लिखी है।

इसके बाद मोइनुद्दीन चिश्ती आध्यात्मिक मार्ग पर आगे चल पड़े। 20 साल की उम्र तक उन्होंने बुखारा और समरकंद के मदरसों में धर्मशास्त्र, दर्शन, नैतिकता और धर्म की पढ़ाई की और दूर-दूर तक यात्राएं भी की। धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए वह हेरात (मौजूदा अफगानिस्तान) के पास चिश्ती संप्रदाय के प्रतिष्ठित सूफी गुरु ख्वाजा उस्मान हारुनी के पास पहुंचे। यहां वह ख्वाजा उस्मान के साथ कई सालों तक रहे और इसके बाद उनके गुरु ने उन्हें आध्यात्मिक के मार्ग पर आगे जाने को कहा।

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हिंदू सेना के प्रमुख विष्णु गुप्ता (पीले कुर्ते में)। (Source-VishnuGupta_HS/X)

कुतुबुद्दीन के साथ गए मुल्तान

अफगानिस्तान में यात्रा के दौरान मोइनुद्दीन ने कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी को अपना पहला अनुयायी बनाया। कुतुबुद्दीन के साथ वह मुल्तान चले गए जहां वे लगभग पांच साल तक रहे, संस्कृत की पढ़ाई की, हिंदू विद्वानों से बात की और फिर लाहौर चले गए, जहां वे अली हुजवीरी की दरगाह पर पहुंचे।

लाहौर से मोइनुद्दीन दिल्ली और फिर तत्कालीन चौहान साम्राज्य की राजधानी अजमेर पहुंचे। ‘सियार-उल-औलिया’ जिसमें सूफी संतों की जीवनी दर्ज है, के अनुसार, ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती 1192 ई. के आसपास फारस से अजमेर आए और भारत में चिश्ती सूफी संप्रदाय की नींव रखी। उन्होंने अपनी शिक्षाओं में प्रेम और शांति पर जोर दिया। तब उनकी उम्र लगभग 50 वर्ष हो गई थी।

अजमेर में ही रुक गए मोइनुद्दीन

1192 में तराइन (मौजूदा वक्त में हरियाणा में है) की दूसरी लड़ाई में मुहम्मद गौरी से हारने के बाद चौहान वंश का शासन समाप्त हो गया। मुहम्मद गौरी की सेना ने चौहानों की राजधानी अजमेर को लूटा और तबाही मचाई। अजमेर में तबाही और लोगों की परेशानी देखकर मोइनुद्दीन यहीं रुक गए। मोइनुद्दीन अपनी पत्नी बीबी उम्मतुल्लाह जिनसे उनकी मुलाकात अजमेर में हुई थी, के साथ झोपड़ी में रहने लगे।

मेहरू जाफर ने अपनी किताब द बुक ऑफ मुइनुद्दीन चिश्ती में लिखा है कि मोइनुद्दीन और उनकी पत्नी इस छोटे से घर से जरूरतमंदों की मदद करने लगे। इस वजह से मोइनुद्दीन को गरीब नवाज यानी गरीबों पर दया करने वाला कहा जाने लगा।

मेहरू जाफर लिखते हैं,”… बेघर लोगों के लिए एक बड़ी खुली रसोई या लंगरखाना था, इसमें हर इंसान का स्वागत किया जाता था और उसे खाना खिलाया जाता था, चाहे उसका धर्म कुछ भी हो।”

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हिंदू और मुस्लिम पक्ष के अपने-अपने दावे। (Express Photo by Gajendra yadav)

मोइनुद्दीन ने हिंदू संतों और रहस्यवादियों के साथ बातचीत की और इस बात को महसूस किया कि उनकी और इन संतों की बातें एक जैसी हैं। मोइनुद्दीन ने अपनी शिक्षा में समानता, ईश्वरीय प्रेम और मानवता की बात की और यह वह वक्त था जब भारतीय उपमहाद्वीप में राजनीतिक उथल-पुथल चल रही थी।

चिश्ती पंथ की स्थापना 10वीं सदी में अबू इशाक शामी ने हेरात के पास चिश्त नामक जगह पर की लेकिन इसे भारतीय उपमहाद्वीप में फैलाने का श्रेय मोइनुद्दीन और उनकी शिक्षाओं को मानने वालों को ही जाता है। उनके प्रमुख शिष्यों में से एक कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी (1173-1235) थे, जिन्होंने दिल्ली में चिश्ती पंथ का केंद्र स्थापित किया।

कहा जाता है कि कुतुब मीनार का नाम काकी के नाम पर ही रखा गया है। उनकी दरगाह महरौली में है। काकी के शिष्य बाबा फरीदुद्दीन (1173-1265) ने पंजाब में चिश्ती पंथ की शिक्षा का प्रसार किया।

निजामुद्दीन औलिया और उनके उत्तराधिकारी चिराग देहलवी ने मोइनुद्दीन के निधन के बाद उनके संदेशों को आगे बढ़ाया।

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