सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को राजद्रोह की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्र और राज्य सरकारों को पुनर्विचार होने तक आईपीसी की धारा 124ए के तहत नए मामले दर्ज न करने का निर्देश दिया। सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह कानून पर रोक लगाते हुए कहा कि इस मामले में जो भी आरोपी जेल में हैं, वे जमानत के लिए अदालत जा सकते हैं। केंद्र सरकार ने शुरू में इस प्रावधान का बचाव किया था, लेकिन दोबारा शीर्ष अदालत के समक्ष इस कानून की समीक्षा करने की बात कही।

क्या है राजद्रोह कानून?

राजद्रोह को परिभाषित करने वाली धारा 124ए के मुताबिक, जो कोई भी सरकार विरोधी या कानून विरोधी सामग्री लिखता या बोलता है या किन्हीं संकेतों के द्वारा इसका समर्थन करता है तो वह राजद्रोह का अपराधी होता है और इसके तहत उम्र कैद की सजा हो सकती है और साथ ही उस पर जुर्माना भी लगाया जा सकता है।

इस प्रावधान में तीन स्पष्टीकरण भी शामिल हैं: 1-‘असंतुष्टता’ की अभिव्यक्ति में विश्वासघात और दुश्मनी की सारी भावनाएं शामिल हैं। 2- कानूनी तरीकों से सरकार के उपायों पर असंतोष व्यक्त करने वाली टिप्पणी, जिसमें सरकार के खिलाफ हिंसा या अव्यवस्था फैलाने के इरादे से की गई टिप्पणी शामिल न हो, इस धारा के अंतर्गत अपराध की श्रेणी में नहीं आता है। 3- बिना नफरत फैलाए या हिंसा के लिए भड़काए बिना, सरकार की प्रशासनिक या अन्य कार्रवाई की आलोचना करने वाली टिप्पणी या अवमानना इस सेक्शन के तहत अपराध की श्रेणी में नहीं आता है।

भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) का ड्राफ्ट तैयार करने वाले थॉमस मैकाले ने राजद्रोह पर कानून को शामिल किया था, लेकिन इसे 1860 में अधिनियमित संहिता में नहीं जोड़ा गया था। कानूनी जानकारों का मानना ​​है कि यह चूक आकस्मिक थी। 1890 में विशेष अधिनियम XVII के जरिए राजद्रोह को आईपीसी की धारा 124A के तहत अपराध के तौर पर शामिल किया गया था।

1955 में काला पानी की सजा को हटाकर इसे आजीवन कारावास में संशोधित किया गया था। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान राजनीतिक असंतोष को रोकने के लिए इस प्रावधान का बड़े पैमाने पर उपयोग किया गया था। आजादी के पहले, कई स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए के तहत मामले हैं, उनमें बाल गंगाधर तिलक, एनी बेसेंट, शौकत और मोहम्मद अली, मौलाना आज़ाद और महात्मा गांधी शामिल हैं।