इस साल जुलाई की शुरुआत में आतंकी संगठन हिज्बुल मुजाहिद्दीन के कमांडर बुरहान वानी के मारे जाने के बाद कश्मीर में भड़की हिंसा में अब 50 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। कश्मीर के कई इलाकों में अभी भी कर्फ्यू जारी है। इस हिंसा में स्थानीय युवकों की भागीदारी केंद्र के लिए चिंता का सबब बनता जा रहा है। लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। पिछले कुछ सालों से इस तरह की घटनाओं में तेजी आई है। जून 2010 में तीन नौजवानों के मुठभेड़ में मारे जाने के बाद घाटी में अभूतपूर्व स्तर पर हिंसा भड़क उठी। भारतीय सेना ने दावा किया था कि मारे गए नौजवान ‘पाकिस्तानी घुसपैठिए’ थे। लेकिन जांच में सामने आया कि तीनों नौजवान स्थानीय निवासी थे। इसके बाद घाटी में हजारों लोगों ने सड़क पर उतरकर हिंसक विरोध प्रदर्शन किया जिसमें पहली बार बड़े पैमाने पर पत्थरबाजी (स्टोन पेल्टिंग) की गई। सेना की जवाबी कार्रवाई में 100 से ज्यादा लोग मारे गए। मरने वालों में एक 12 वर्षीय किशोर समेत कई नाबालिग लड़के शामिल थे।

स्थिति की गंभीरता समझते हुए उस समय केंद्र में सत्ताधारी कांग्रेस गठबंधन की ने अक्टूबर 2010 में कश्मीर पर वार्ताकारों का एक समूह बनाया। अकादमिक विद्वान राधा कुमार, वरिष्ठ पत्रकार दिलिप पडगांवकर और पूर्व सूचना आयुक्त एमएम अंसारी इस समूह के सदस्य थे। इन वार्ताकारों को कश्मीर के सभी राजनीतिक दलों, अलगाववादियों, युवाओं और छात्रों एवं अन्य आम नागरिकों से बातचीत करके समस्या के समाधान के लिए सुझाव पेश करना था। वार्ताकार समूह ने 2012 के शुरुआत में अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंप दी जिसे सरकार ने उसी साल मई में
सार्वजनिक किया। इस समूह पर गृह मंत्रालय के 70 लाख रुपये खर्च हुए थे। इस रिपोर्ट के कुछ मुख्य सुझाव निम्न प्रकार थे।

वार्ताकार समूह ने सुझाव दिया था कि भारत सरकार के संवैधानिक समिति (सीसी) बनाए जो 1952 के बाद के जम्मू-कश्मीर से जुड़े सभी केंद्रीय कानूनों की समीक्षा करे। संवैधानिक समिति अपना सुझाव छह महीने के अंदर दे। वार्ताकार समूह के अनुसार समिति को इसकी समीक्षा करनी चाहिए कि क्या कुछ केंद्रीय कानूनों से राज्य के विशेष दर्जे में कोई कमी आई है। भारत के वही केंद्रीय कानून जम्मू-कश्मीर पर लागू होने चाहिए जिनसे देश की सुरक्षा या अहम आर्थिक हित (खासकर ऊर्जा और जल संसाधन के क्षेत्र में) का संबंध हो।

अन्य राज्यों की तरह जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल का चुनाव राष्ट्रपति करते हैं। वार्ताकार समूह ने सुझाव दिया कि राज्य के राज्यपाल की नियुक्ति के लिए राज्य सरकार को तीन नामों का सुझाव देने का अधिकार दिया जाए। उन तीन नामों से राष्ट्रपति किसी एक को चुन सकते हैं। हालांकि राज्यपाल की नियुक्ति के मामले में अंतिम अधिकार राष्ट्रपति के पास ही रहना चाहिए। जम्मू, कश्मीर और लद्दाख के अलग-अलग क्षेत्रीय परिषदों का गठन किया जाए और उन्हें निश्चित विधायी, कार्यकारी और वित्तीय अधिकार दिए जाएं। वार्ताकार समूह के अनुसार क्षेत्रीय परिषदों को जेल सुधार, सार्वजनिक स्वास्थ्य, सड़क, पुल और मत्स्य पालन जैसे विभाग सौंपे जा सकते हैं।

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वार्ताकार समूह ने जब रिपोर्ट तैयार की उस समय जम्मू-कश्मीर में केंद्र सरकार की 16 योजनाएं जारी थीं लेकिन इनके लिए आए पैसे का इस्तेमाल काफी हद तक नहीं किया जा सका था। वार्ताकार समूह ने सुझाव दिया कि इन योजनाओं में आए पैसे का समुचित उपयोग हो सके इसके लिए एक कारगार सिस्टम बनाना होगा। इसके अलावा वार्ताकार समूह ने एक राज्य की आर्थिक जरूरतों की समीक्षा करने के लिए एक विशेषज्ञ समिति बनाने का भी सुझाव दिया। समूह ने राज्य में पनबिजली परियोजनाओं की संभावना को पूर्ण उपयोग की भी सिफारिश की। समूह ने सुझाव दिया कि केंद्र सरकार को पनबिजली परियोजनाओं के विकास का पूरा खर्च उठाना चाहिए।

राज्य के कारोबारी इमारतों और संस्थानों को सुरक्षा बलों से खाली कराया जाए। पूर्वोत्तर के राज्यों की तर्ज पर जम्मू-कश्मीर को भी विशेष वित्तीय सुविधाएं दी जाएं। पहाड़ी और सुदूरवर्ती इलाकों को स्पेशल डेवलपमेंट जोन घोषित किया जाए। इंटरनेट और मोबाइल पर रोक लगाने से जुड़े प्रावधानों की समीक्षा की जाए। वार्ताकार समूह ने 2012 में उन सभी पत्थरबाजों और राजनीतिक बंदियों को जेल से रिहा करने के लिए कहा था जिनपर गंभीर अपराध के अभियोग नहीं थे। वार्ताकार समूह ने आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पॉवर्स एक्ट, 1990 और जम्मू एंड कश्मीर पब्लिक सेफ्टी एक्ट 1978 की समीक्षा और संशोधन का भी सुझाव दिया था। समूह ने जम्मू-कश्मीर की राज्य सरकार को कश्मीरी पंडितों की वापसी के लिए प्रयाक करने का भी सुझाव दिया था। साथ ही कश्मीर में गुमनाम लोगों की कब्रों के मामले की न्यायिक जांच कराने और उनमें दफन लोगों की पहचान कराने का भी सुझाव दिया था।

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