‘कोरोना के आगे जहां और भी है। हम आज भी अपनी ताकत पर भरोसा कर सकते हैं। अगर आपने अपनी ताकत नहीं बनाई है तो आज कोरोना नहीं तो आगे कोई और बीमारी आपको ले डूबेगी। अभी मैं नार्वे में हूं और नार्वे भारत का 200वां अंश है। जनसंख्या के हिसाब से पटना और रांची जैसा। यहां कोरोना संक्रमण के दो सौ से ज्यादा मामले हैं और चार सौ से ज्यादा स्वास्थ्यकर्मी अपनी सेवा दे रहे हैं। लेकिन यहां बहुत ज्यादा पैनिक नहीं है’। आनलाइन गोष्ठी में जब लेखक और डॉ परवीन झा मुखातिब हुए तो काफी संख्या में लोग उनसे जुड़े।
प्रवीण झा ने बातचीत के दौरान कहा कि कोरोना से मृत्यु इस बात पर निर्भर करती है कि देह की प्रतिरोधक क्षमता कितनी है। हमारे क्षेत्र में तीन वेंटिलेटर हैं लेकिन किसी के इस्तेमाल की जरूरत नहीं पड़ी। उन्होंने कहा कि आप लाखों वेंटिलेटर जुटा लीजिए लेकिन जो हमने अपने अंदर प्रतिरोधक क्षमता बचा रखी है, वही हमें बचाएगी।
कोरोना से अलगाव के दौर में अब लेखक और प्रकाशक आनलाइन गोष्ठी का रुख कर रहे हैं। अब तक किताब के मेलों में पाठकों और रचनाकारों से घिरी रहने वालीं वाणी प्रकाशन समूह की निदेशक अदिति माहेश्वरी गोयल ने कहा कि जब 20 मार्च तक लगने लगा कि राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन हो जाएगा, तभी हमने अपने दिमाग में बैठा लिया था कि अब हमें रणनीति बदलनी पड़ेगी। हमारा मुख्य काम प्रकाशन करना और लोगों को जोड़े रखना है और वो अगर एक महीने नहीं होगा तो हम अपना सामाजिक उत्तरदायित्व कैसे पूरा करेंगे। यही सोच कर हमने ये आॅनलाइन मुहिम शुरू की और पहले इसका नाम ह्यआॅनलाइन साहित्य महोत्सवह्ण रखा क्योंकि हम एक खुशहाल माहौल रचना चाहते थे। लेकिन जब आनंद विहार अंतरराज्यीय बस अड्डे का हाल देखा तो लगा कि अभी तो माहौल खुशगवार हो ही नहीं सकता तो हमने इसका नाम बदल कर ह्यसाहित्य और समाज आॅनलाइन गोष्ठीह्ण कर दिया।
माहेश्वरी ने कहा कि इस मुहिम के जरिए हम कम से कम ढाई लाख लोगों तक पहुंच चुके हैं अब तक। एक बार में हम सवा लाख लोगों के बीच पहुंचे हैं। मुझे ये समझ आ रहा है कि लोग सुनना चाहते हैं, लेखक अपना सामाजिक उत्तरदायित्व निभाना चाहते हैं।
आनलाइन गोष्ठी में पाठकों से रूबरू हो चुकीं साहित्यकार गीताश्री ने कहा कि यह मेरा पहला अनुभव था जिसमें एक आभासीय निकटता थी। एक दैहिक निकटता होती है, एक आभासीय। दैहिक निकटता का ये मतलब नहीं होता कि आप किसी से लिपट जाएं। मुझे बातचीत के वक्त एक यह कसक महसूस हुई। दैहिक उपस्थिति जो आपके सामने होती है वो अद्भुत होती है जिसका शिद्दत से एहसास इस लॉकडाउन में हुआ। इसके पहले लगता बाकी पेज 8 पर था कि मुझे एकांत चाहिए, मैं लिखना चाहती हूं। फिर जब अपने साथ होने का समय आया तो लगा कि नहीं हमें सबके बीच होकर ही अपने साथ होना है।
चारों तरफ से आती आवाज और लोग आपको मानसिक रूप से सुरक्षा कवच का बोध देते हैं। अनेक आवाज और दैहिक उपस्थिति से आप एकांत ढूंढ़ते हो तो ये रचनात्मक होता है। ये एकांत मारक है। हमें गूंजता सन्नाटा चाहिए था, विलाप करता हुआ नहीं। मैंने जब संवाद किया तो मैं सबको देख पा रही थी लेकिन चेहरे से नहीं कमेंट से, लोग मुझे चेहरे से देख पा रहे थे। लेकिन यह प्रयास बहुत अच्छा है कि जो स्थगित हो रहे थे उनका संवाद तो शुरू हुआ। कुछ तो आवाजें आईं। बात करने के लिए दीवारों से सिर मारें- ऐसी नौबत आने से अच्छा है कि हम इस तरह के आनलाइन माध्यम से जुड़ जाएं।
साहित्यकार सुधा उपाध्याय ने कहा कि मैं आनलाइन आयोजन से लगातार जुड़ रही हूं और यह बहुत बढ़िया लग रहा है। हम जैसे लोगों की खुराक ही सरोकारों से संवाद है तो लगातार अपने जैसे लोगों से जुड़े रहना सुकून देता है।
रचनाकार रश्मि भारद्वाज ने कहा कि इतने भयंकर समय में जब हमारे सामने इतने सारे अवसाद हैं, मजदूरों का पलायन हो रहा है तो हमारा बात करना जरूरी है। हम जिस तरह से लाइव हो रहे हैं तो बहुत सी नकारात्मक प्रतिक्रियाएं भी आ रही हैं। लेकिन यह बहुत सकारात्मक चीज है कि हम इस समय में भी अपनी जिजीविषा बनाए रखते हुए, साहित्यिक रचनाओं के माध्यम से आॅनलाइन बात कर, लाइव हो यह समझना चाहते हैं कि हम किस तरह अपनी उम्मीद बरकरार रखें।
