बिहार की राजनीति में 20-25 वर्ष पहले तक वामपंथी दलों की धमक सुनाई देती थी, लेकिन धीरे-धीरे चुनावी मैदान में उनकी हालत पतली होने लगी थी। ताजा चुनाव में वामपंथी दलों के दिन फिर बहुरते नजर आ रहे हैं। इतना ही नहीं, महागठबंधन को तीन अंकों का जीत का जो परिणाम मिला है, उसमें भी वामपंथी दलों की बड़ी भूमिका दिख रही है।
वर्ष 1995 में बिहार में वामपंथी विधायकों की संख्या 35 थी। वर्ष 2000 में नौ, 2005 में सात, 2010 में केवल भाकपा का एक और 2015 में भाकपा माले के तीन विधायक जीते थे। इस बार आंकड़ा दो अंकों में है। माना जा रहा है कि भाकपा माले, माकपा व भाकपा को मिली बड़ी जीत से अभी तक बिहार की सियासी जमीन पर सिमट चुका वामपंथ को जड़ें जमाने में भी मदद मिलेंगी।
माकपा के बिहार राज्य सचिव अवधेश कुमार के मुताबिक, 2015 के चुनाव में वाम दल बिखरे हुए थे और उन्होंने अलग-अलग चुनाव लड़ा था। जाहिर है, नतीजा किसी वाम दल के हक में नहीं हुआ था। लेकिन इस बार वाम दलों ने महागठबंधन के साथ चुनाव लड़ने का निर्णय लिया है। नतीजा फायदे का रहा। इतना ही नहीं, महागठबंधन के उम्मीदवारों को भी वामपंथी दलों के कैडर वोट का लाभ मिला।
माकपा के राज्य सचिव कुणाल के मुताबिक, पार्टी के प्रदर्शन में जनसंघर्ष की बड़ी भूमिका है और उन सार्थियों की कुर्बानी भी जिन्होंने बिहार की धरती पर सामंतवाद के खिलाफ गरीबों-मजदूरों व अकलियतों के हित में आंदोलन को जारी रखे हुए हैं। पिछले दो दशक से हमारी पार्टी को वोट डेढ़ से दो फीसद रहा है। लेकिन हमारे समर्थकों में उत्साह में कोई कमी नहीं रही है।
वर्ष 2015 के चुनाव में वामपंथी दलों को केवल तीन ही सीटों पर जीत हासिल हुई थी। ये तीनों ही सीटें भाकपा माले ने जीती थीं। तरारी विधानसभा सीट से भाकपा माले के सुदामा प्रसाद विजयी हुए थे। दरौली सीट से माले के सत्यदेव राम को जीत हासिल हुई थी। बलरामपुर सीट से महबूब आलम जीते थे। अतीत को देखें तो, वर्ष 1972 के विधानसभा चुनाव में भाकपा 35 सदस्यों के साथ मुख्य विपक्षी दल बनी थी, लेकिन वर्ष 1977 में हुए चुनाव में वामपंथी दल के विधायकों की संख्या घटकर 25 हो गई।1980 में हुए मध्यावधि चुनाव में भी वामपंथ ने अपनी मजबूत दावेदारी बरकरार रखी। भाकपा को 23, माकपा को छह और एसयूसीआइ को एक सीट मिली।
आइपीएफ को 1990 के विधानसभा चुनाव में भी सफलता मिली, जब उसके सात प्रत्याशी चुनाव जीते। इस चुनाव में भाकपा के 23 और माकपा के छह प्रत्याशी चुनाव जीते थे। वर्ष 2000 के चुनाव के बाद से विधानसभा में वामपंथी विधायकों की संख्या में गिरावट शुरू हुई।
2015 के चुनाव में वाम दल बिखरे हुए थे और उन्होंने अलग-अलग चुनाव लड़ा था। जाहिर है, नतीजा किसी वाम दल के हक में नहीं हुआ था। लेकिन इस बार वाम दलों ने महागठबंधन के साथ चुनाव लड़ने का निर्णय लिया है। नतीजा फायदे का रहा। इतना ही नहीं, महागठबंधन के उम्मीदवारों को भी वामपंथी दलों के कैडर वोट का लाभ मिला।
– अवधेश कुमार, सचिव, बिहार राज्य, माकपा ॉ