राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विनायक दामोदर सावरकर को हिंदुत्व के जनक के रूप में पेश करता है। लेकिन ऐसा लगता है कि संघ सावरकर की कुछ धारणाओं से बिल्कुल ही अनजान है। विनायक दामोदर सावरकर के बारे में एक किताब में कई नई बातें सामने आई हैं। इस किताब को वैभव पुरंदरे ने लिखा है।

हिंदुत्व के नायक पर आधारित इस किताब में पुरंदरे लिखते हैं कि सावरकर मानते थे कि लोगों को अपनी पसंद के अनुसार खाना चाहिए। लोग वह सब खा सकते हैं जिसका खर्च वहन करने में वे सक्षम हैं। किताब में बताया गया है कि सावरकर गोपूजा के कड़े विरोधी थे।

इसके अनुसार सावरकर वाम का चेहरा माने जाने वाले एमएन रॉय से अक्सर बातचीत करते थे। उनका मानना था कि धार्मिक कर्मकांड के लिए पैसे एकत्रित करने से बेहतर है कि इन पैसों को गरीबों में बांट दिया जाए। 1950 के दशक में सावरकर ने शाकाहारियों के अंडे और मछली खाने की पैरवी की थी।

कट्टर सुधारवादी सावरकर और आरएसएस प्रमुख एमएस गोलवलकर कई मुद्दों पर अलग-अलग राय रखते थे। सावरकर ने गोलवलकर की दाढ़ी वाले तपस्वी के रूप में उनकी सराहना नहीं की क्योंकि उन्हें लगता था कि भारत की आध्यात्मिक महानता अतीत में है। इसे केवल बाहरी दिखावे के आधार पर ग्रहण नहीं किया जा सकता है।

उन्होंने यह भी महसूस किया कि गोलवलकर ने अपने भाई बाबूराव के सिद्धांतों को स्वीकार कर लिया और उन्हें खुद से दूर कर दिया। उन्होंने एक बार आरएसएस के स्वयंसेवकों के बारे में सावधानीपूर्वक टिप्पणी की थी। उन्होंने कहा था कि आरएसएस में शामिल होने के अलावा उन्हें ऐसा लगता था कि उनके जीवन में कुछ कमी है।

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इससे पहले वाल्टर के. एंडरसन और श्रीधर दामले द्वारा लिखी गई किताब ‘दि ब्रदरहुड इन सैफ्रन, दि आरएसएस एण्ड दि हिंदू रिवाइवलिज्म’ में सावरकर को लेकर कई दावे किए गए थे। इसमें लिखा गया था कि सावरकर और संघ के बीच एक समय मतभेद इतने गहरे हो गए थे कि उन्होंने (सावरकर) ने हिंदू महासभा के कार्यकर्ताओं को संघ छोड़ने की हिदायत दे दी थी। इसका जिक्र 3 मार्च, 1943 को सावरकर द्वारा लिखे एक पत्र में बताया गया है।