उत्तराखंड के चमोली में शुक्रवार को हुए हिमस्खलन के बाद लापता चार मजदूरों का पता लगाने के लिए सेना पूरी कोशिश में जुटी है। बचावकर्मियों का कहना है कि तीन कंटेनरों की खोज सबसे महत्वपूर्ण कदम है, क्योंकि यही वे स्थान हैं, जहां ये मजदूर ठहरे हुए थे। अब तक पांच कंटेनरों का पता लगा लिया गया है, लेकिन छह फीट गहरी बर्फ के कारण तीन कंटेनर अब भी लापता हैं।

सीमा सड़क संगठन (बीआरओ) की एक परियोजना पर काम कर रहे करीब 60 मजदूर हिमस्खलन की चपेट में आ गए थे। शनिवार शाम तक 51 लोगों को सुरक्षित बचा लिया गया, जबकि चार की मौत हो गई और चार अब भी लापता हैं। अधिकारियों का कहना है कि लापता कंटेनरों को खोजने के लिए सेना के खोजी कुत्तों को तैनात किया गया है और तीन टीमें लगातार गश्त कर रही हैं। बर्फ के नीचे दबे कंटेनरों का पता लगाने के लिए दिल्ली से ग्राउंड पेनेट्रेटिंग रडार मंगवाया गया है।

स्टील के बने ये कंटेनर खराब मौसम और हिमस्खलन का सामना करने में सक्षम हैं

बचावकर्मियों का कहना है कि ये कंटेनर—जो स्टील के बने हुए हैं और जिनमें बर्फबारी के दौरान मजदूर रुके थे—विनाशकारी हिमस्खलन और खराब मौसम का सामना करने में सक्षम हैं। इसी वजह से अधिकांश लोगों को सुरक्षित बचाया जा सका। सूत्रों के अनुसार, ये श्रमिक बद्रीनाथ के रास्ते माणा गांव को माणा दर्रे से जोड़ने वाली परियोजना पर काम कर रहे थे।

उत्तराखंड में भारतीय सेना के प्रवक्ता लेफ्टिनेंट कर्नल मनीष श्रीवास्तव ने बताया कि ये मजदूर बीआरओ की शिवालिक परियोजना में शामिल टीम का हिस्सा थे, जो गढ़वाल क्षेत्र में बुनियादी ढांचे के विकास से जुड़ी है। बीआरओ भारत-चीन सीमा के पास माणा में सड़कों का निर्माण कर रहा है, जहां मजदूर बर्फ हटाने, तारकोल बिछाने और सेना के लिए रास्ता सुलभ बनाने में लगे हुए थे। शिवालिक परियोजना के तहत चारधाम परियोजना का सड़क निर्माण कार्य भी शामिल है।

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श्रीवास्तव ने बताया कि कंटेनरों ने इन मजदूरों को ठंड और बर्फ से बचाने में मदद की। उन्होंने कहा, “अगर ये टेंट में होते, तो शायद जीवित नहीं बचते।” सेना और बीआरओ द्वारा ऊंचाई वाले क्षेत्रों में इस्तेमाल किए जाने वाले ये कंटेनर स्टील के बने होते हैं और इनमें प्रवेश और निकास का केवल एक ही रास्ता होता है। उन्होंने बताया, “ये कंटेनर अचानक होने वाली बर्फबारी के पहले प्रभाव को रोकने में मदद करते हैं और इनका इस्तेमाल लंबे समय से किया जा रहा है। हम शिविर लगाने से पहले नियमित जांच भी करते हैं, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि वे हिमस्खलन-प्रवण क्षेत्रों में न हों। हालांकि, प्राकृतिक आपदाओं पर इंसानी नियंत्रण सीमित होता है।”

पर्वतारोही और नेहरू पर्वतारोहण संस्थान के पूर्व प्राचार्य कर्नल अजय कोठियाल, जिन्होंने 2013 की केदारनाथ बाढ़ के दौरान बचाव अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, ने कहा कि श्रमिक आमतौर पर ऐसे टेंट में ठहरते हैं, जो हिमस्खलन के वेग और भार को सहन नहीं कर सकते।

उन्होंने बताया, “इस तरह के कंटेनर मौसमरोधी और सीलबंद होते हैं, जिससे समय बीतने के साथ ऑक्सीजन का स्तर कम होने लगता है। हालांकि, अगर श्रमिक टेंट में होते, तो घटना के चार घंटे बाद तक जीवित नहीं रह पाते।” हालांकि, अधिकारियों का कहना है कि ऐसे कंटेनरों की गतिशीलता को लेकर सवाल उठते रहे हैं, लेकिन श्रमिकों ने लंबे समय तक इनका उपयोग किया है।

माउंट एवरेस्ट पर चढ़ चुके कोठियाल ने बताया, “आमतौर पर, माणा को सर्दियों में खाली कर दिया जाता है, क्योंकि यह हिमस्खलन के लिए अतिसंवेदनशील क्षेत्र है। हालांकि, इस बार बर्फबारी कम थी, तापमान बढ़ रहा था, इसलिए श्रमिक वहीं रुके रहे। अगर टेंट और कपड़े के साथ शिविर लगाया जाए और बर्फ जम जाए, तो उसमें दबे लोगों को निकालना बेहद मुश्किल हो जाता है।”

बचाए गए मजदूरों में से एक, 35 वर्षीय नरेश बिष्ट के पिता धन सिंह बिष्ट ने बताया कि उन्होंने गुरुवार रात अपने बेटे से बात की थी। नरेश ने उन्हें बताया था कि लगातार हो रही बर्फबारी के कारण मौसम खराब था।

उन्होंने कहा, “उसे यह खतरनाक लग रहा था, लेकिन उसका कंटेनर पहाड़ों से नीचे था, इसलिए हमने ज्यादा चिंता नहीं की। वह एक साल से वहां काम कर रहा था और वीडियो कॉल पर हमें अपना ठिकाना दिखाता था। उसके कंटेनर में बिस्तर और शौचालय की व्यवस्था थी। खराब मौसम में वे अंदर ही रहते थे। इन धातु के बक्सों की वजह से ही वे आज जीवित हैं।”

उन्होंने बताया कि नरेश तीन अन्य मजदूरों के साथ कमरा साझा करता था, जबकि उनका भतीजा दीक्षित उसी कैंप में एक अलग कमरे में रहता था। नरेश सड़क निर्माण के लिए इस्तेमाल होने वाली मशीनें चलाता था।

धन सिंह बिष्ट ने बताया, “हम दोपहर करीब 1:30 बजे लंच कर रहे थे और टीवी देख रहे थे, तभी हमें इस घटना के बारे में पता चला। हमने तुरंत नरेश का नंबर मिलाया, लेकिन बात नहीं हो पाई। बाद में फोन बंद हो गया। शाम को हेल्पलाइन नंबर पर संपर्क करने पर हमें बताया गया कि नरेश सुरक्षित बचा लिया गया है और अस्पताल में भर्ती है। आज सुबह उसने हमें फोन कर बताया कि वह ठीक है। मेरा भतीजा दीक्षित भी बच गया है, जो दूसरे कंटेनर में था।”

मृतकों की पहचान उत्तराखंड के आलोक यादव, उत्तर प्रदेश के मंजीत यादव और हिमाचल प्रदेश के जितेंद्र सिंह व मोहिंद्र पाल के रूप में हुई है। फंसे हुए मजदूरों में हिमाचल प्रदेश के हरमेश चंद, उत्तर प्रदेश के अशोक और उत्तराखंड के अनिल कुमार व अरविंद कुमार सिंह शामिल हैं। पर्यावरणविद् और चारधाम राजमार्ग परियोजना पर उच्चाधिकार प्राप्त समिति के पूर्व अध्यक्ष रवि चोपड़ा ने कहा कि इस क्षेत्र में हिमस्खलन होना आम बात है।

उन्होंने कहा, “इन जगहों पर लोग स्थायी रूप से नहीं रहते। सालभर वहां काम करना संभव नहीं है, क्योंकि यह इलाका अधिकतर बर्फ से ढका रहता है। कुछ साल पहले जोशीमठ से मलारी दर्रे तक एक हिमस्खलन हुआ था, जिसमें कई सड़क निर्माण मजदूरों की मौत हो गई थी।”