राकेश सिन्हा

साधारण व्यक्तिवाद नकारात्मक माना जाता है। यह मनुष्य को स्व-केंद्रित और स्वार्थी बनाता है। पर यह अर्धसत्य है। इसकी अपनी उपयोगिता है और उसके सकारात्मक परिणाम है। व्यक्तिवाद के दो स्वरूप होते हैं। पहला, भौतिक सुख, संसाधनों और समृद्धि के लिए स्व-केंद्रित होना और अपने मानवीय पर्यावरण से अलग-थलग रहना।

यह समाज में अस्वीकार्य होता है। ऐसा व्यक्तिवाद मानवीय संवेदना से विमुख रहता है। लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है। व्यक्तिवाद मनुष्य को पूरी तरह से सामुदायिक चेतना में विलीन नहीं होने देता है। ‘मैं’ की अहमियत का पूरी तरह से समाप्त होना चेतना के प्रवाह को, चिंतन की निर्भयता को, कदम बढ़ाने की क्षमता को समाप्त कर देता है।

यह मस्तिष्क को बंजर बना देता है। सोच के लिए दूसरों पर निर्भरता बढ़ जाती है। और ऐसा समाज आर्थिक प्रगति तो करता है, पर मानसिक उन्नति की अल्पता दिखाई पड़ती है। चिंतक और उनके दर्शन को मानने वालों के बीच फर्क भी समाप्त हो जाता है। ऐसे संकट से ही नए-नए प्रतिष्ठानों, समुदायों, संप्रदायों की उत्पत्ति होती है। विवेचन करने पर उनके बीच अंतर पाटने लायक रहता है।

इसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम विचारों के सृजन पर पड़ता है। जब-जब व्यक्तिवाद का ‘मैं’ जागरूक अभिव्यक्ति बनता है, विचार सृजन तेज होता है। विचारों की मौलिकता हमें झकझोरती है और हम अपने मस्तिष्क को परिवर्तन के लिए तैयार कर लेते है। जब विचार स्थिर हो जाता है, उसमें संशोधन की संभावना समाप्त का दी जाती है, तब वह विचारधारा के रूप में यथावत प्रस्तुत होती रहती है। परिवर्तन की गुंजाइश मृतप्राय रहता है।

इसलिए मस्तिष्क को मौलिकता से साक्षात्कार कराना ही पुनर्जागरण होता है। पुनर्जागरण का नेतृत्व करने वाले जोखिम की चिंता नहीं करते हैं। वे अलग-थलग होने का अहसास करते हैं। पर वे परिवर्तन के सारथी बनते है। मार्टिन लूथर ने 31 अक्तूबर, 1517 को विट्टेनवर्ग चर्च के सामने पंचानबे आध्यात्मिक-वैचारिक बिंदु प्रस्तुत किए थे। इसे ‘95 थेसिस’ के नाम से जाना जाता है।

इसने व्यापक सुधार को जन्म दिया। तब उनकी उम्र मात्र तैंतीस वर्ष की थी। उन्नीसवीं शताब्दी में ईश्वर चंद विद्यासागर ने विधवा विवाह के समर्थन में अभियान चलाया। उन्हें राधाकांत देव से टकराना पड़ा। देव के पास समुदाय का समर्थन था। जहां विद्यासागर को मात्र 987 लोगों का समर्थन मिला, देव को 37,787 लोगों का समर्थन था।

महात्मा गांधी ने 1933-34 में अस्पृश्यता के खिलाफ अभियान छेड़ा। कांग्रेस नेताओं की मानसिक सहमति नहीं थी। पर यह अभियान जो ‘हरिजन यात्रा’ के नाम से जाना जाता है, एक सफलतम प्रयास था। गांधी ने अस्पृश्यता निवारण के लिए धन संग्रह किया। आठ लाख रुपए मिले। इसमें एक भिखारी का एक पैसा था, जो एक सौ ग्यारह रुपए में नीलाम हुआ।

व्यक्तिवाद का यह सकारात्मक पक्ष मनुष्य को निडर और आग्रही बना देता है। वह तात्कालिकता के जंजाल से मुक्त रहता है। यही निडरता सुकरात के व्यक्तिवाद में थी। 2400 वर्ष पूर्व उसे मौत की सजा दी गई थी। उसका कारण उसकी विवेकवादी अभिव्यक्ति था। अधिनायकवादी शासन का नाम लिए बगैर वह सत्य का विवेचन करता था। उस पर राजद्रोह का इल्जाम लगा। 500 न्यायाधीशों के सामने मुकदमा चला। तर्क और तथ्य में उसे दोषी नहीं माना जा सका। आखिरकार बहुमत से उसे सजा दी गई, लेकिन उस अधिनायकवाद के समय भी 220 न्यायाधीश सुकरात के साथ खड़े होने का साहस दिखा सके।

यह व्यक्तिवाद मनुष्य को छद्म बंधनों, बाध्यताओं, लज्जा और नकारात्मक परिणामों के भय से मुक्त करता है। तभी वह परिणामकारी हस्तक्षेप कर पाता है। समुदायों, संगठनों और परंपराओं की भीड़ में मनुष्य मकड़जाल में फंसकर अपरिणामकारी विचारों का जनक बनकर रह जाता है। कभी-कभी उसका मन विवेकवाद से टकराता है और वह असहनीय पीड़ा का शिकार हो जाता है। ऐसी ही घटना प्रसिद्ध चिंतक साने गुरुजी के साथ हुई। वे सुधारक, चिंतक और लेखक थे। 73 रचनाओं के प्रणेता, मूल्यों के गिरावट से उद्वेलित थे और उन्होंने 11 जून, 1950 को आत्महत्या कर ली। जेब में अंतिम संस्कार के लिए तीस रुपए थे।

भारत में आधुनिकता और पुनर्जागरण खंड-खंड में अवतरित होता है। इसमें समग्रता और व्यापकता की अल्पता रहती है। इसका बड़ा कारण चिंतन-सृजन-सुधारवाद में व्यक्तिवाद का अभाव है। ‘संगच्छध्वम् संवहम्’ तो आदर्श सिद्धांत है जो सामूहिकता की मिठास को प्रतिबिंबित करता है। पर अल्पायु से ही मस्तिष्क को परिवार से लेकर विचार प्रवाह तक दृढ़ता विहीन बनाने की प्रक्रिया ने सामान्य भारतीय को स्थायी मानसिक अवकाश में भेजने का काम किया है। यह अब यूरोप में भी संकट की तरह है।

विचारों की उत्पत्ति समूह में नहीं, व्यक्तिगत साधना में होती है। वही विचारक व्याख्याकार या समालोचक नहीं, नव सृजनकार होता है। स्थापित ताकतों-विचारों से लोहा लेता है। परिणाम उसे सताता है, पर पीढ़ियों का प्यार उसे मिलता है। चिंतन-सृजन-सुधार में व्यक्तिवाद की खोज ही हमारी सार्थकता सिद्ध कर सकता है।