पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितंबर 1916 को यूपी के नागला चंद्रबान गांव में हुआ था। यह गांव मथुरा से 30 किलोमीटर दूर स्थित है। जब उपाध्याय लोगों के बीच मशहूर हो रहे थे, तब 11 फरवरी 1968 को मुगलसराय रेलवे स्टेशन पर वे मृत मिले थे। उनकी मौत की वजह का खुलासा अभी तक नहीं हुआ है। भाजपा और आरएसएस उनकी जन्म शताब्दी मना रही हैं। मौजूदा सामाजिक-आर्थिक विचारों के खिलाफ अपने ‘ एकात्म मानववाद ‘ को बढ़ाने के लिए शताब्दी मनाई जा रही है। ऐसे में हम आपको बता रहे हैं दीन दयाल उपाध्याय के सहिष्णुता पर विचार।
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उपाध्याय के असहिष्णुता के मुद्दे पर विचारों का उनके लेखन में कई जगह जिक्र देखने को मिलता है। उन्होंने कहा था, ‘वैदिक सभा और समितियां लोकतंत्र के आधार पर आयोजित की जाती हैं और मध्यकालिन भारत के कई राज्य पूरी तरह से लोकतांत्रिक थे।’ एक समारोह में उनके उस बयान को दोहरा गया, जिसमें उन्होंने कहा था, ‘आपने जो कहा मैं उसे नहीं मानता, लेकिन आपके ये कहने के अधिकार की मैं आखिरी वक्त तक रक्षा करूंगा।’
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उपाध्याय के मुताबिक लोकतंत्र की मुख्यधारा सहिष्णु रही है। इसके बिना चुनाव, विधायिका आदि कुछ भी नहीं है। सहिष्णुता भारतीय संस्कृति का आधार है। यह हमें ये ढूढ़ने की ताकत देता है कि जनता की क्या इच्छाएं हैं। दूसरी जगह उन्होंने लिखा है कि लोकतंत्र केवल बहुमत का राज नहीं है। इस सिस्टम में जनता का एक वो हिस्सा भी होगा जिसकी आवाज को दबाया जाएगा, हालांकि ये सही भी हो सकता है। इसलिए अगर कोई बहुमत से अलग मत रखता है, चाहें वो अकेला ही क्यों न हो। उसके विचारों की इज्जत की जानी चाहिए और शासन में शामिल किया जाना चाहिए।
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साथ ही उन्होंने भीड़ के शासन के खिलाफ भी लिखा था। उन्होंने एक जगह लिखा है कि जो लोग ब्रूटस के साथ मिलकर कुछ पल पहले जूलियस सीजर की हत्या का जश्न मना रहे थे, वही लोग मार्क एंटनी के भाषण के बाद ब्रूटस के खिलाफ हो गए। इसलिए लोकतंत्र को सरकार के दो रूपों भीड़तंत्र और निरंकुशता के बीच जिंदा रखना मुश्किल है।