शंकर जालान
वैसे तो उज्जैन स्थित महाकालेश्वर मंदिर में भस्म आरती होती है और वाराणसी के काशी विश्वनाथ मंदिर में भी आरती के लिए चिता की अग्नि का इस्तेमाल किया जाता है। भगवान शंकर के ये दोनों ही मंदिर द्वादश ज्योतिर्लिंग में शामिल हैं, लेकिन इसके अतिरिक्त अगर देश में कोई अन्य ऐसा शिवालय है जहां आरती की ज्योत प्रज्जवलित करने के लिए जलती हुई चिता की लकड़ी का सहारा लिया जाता है वह मंदिर है कोलकाता के नीमतल्ला घाट के समीप बना बाबा भूतनाथ मंदिर। जी हां, बाबा भूतनाथ मंदिर भले ही द्वादश ज्योतिर्लिंग में शामिल न हो, बावजूद इसके शिवभक्तों की अटूट आस्था और विश्वास का केंद्र है।
जानकारों के मुताबिक मंदिर करीबन सवा तीन सौ साल पुराना है, जिसकी स्थापना नीमतल्ला श्मशान घाट पर रहने वाले एक अघोरी बाबा ने की थी। शुरुआती दिनों में मंदिर के नाम पर केवल एक शिवलिंग था और अघोरी बाबा के अलावा आसपास के अन्य लोग जलाभिषेक व पूजा-अर्चना करते थे। भूतनाथ मंदिर का इतिहास खंगालने पर पता चला है कि बिल्कुल श्मशान भूमि पर ही शिवलिंग यानी मंदिर था, इसीलिए आरती के वक्त जब ज्योति प्रज्जवलन की जरूरत होती थी तब पुजारी किसी भी जलती हुई चिता से एक लकड़ी उठा लेता था। यह प्रथा तब से आज तक जारी है।
गंगा नदी के पश्चिम किनारे पर बने भूतनाथ मंदिर के भव्य व दिव्य मंदिर के संचालन का जिम्मा हिंदू सत्कार समिति पर है, जबकि प्रबंधन का कार्य मंदिर कमिटी देखती है। हिंदू सत्कार समिति के संयुक्त सचिव चंदन घोष के मुताबिक 1932 से समिति ने मंदिर का संचालन अपने हाथों में लिया और साल-दर-साल मंदिर का विस्तार व प्रचार होता गया। उनके मुताबिक 1940 के आसपास कोलकाता नगर निगम की पहल पर मंदिर और श्मशान घाट के बीच एक दीवार खड़ी कर दोनों से पृथक किया गया।
उनके मुताबिक मंदिर स्थापना की निश्चित तिथि किसी के स्मरण में नहीं है, इसलिए मंदिर संचालन समिति, प्रबंध कमिटी, पुजारी और नित्य आने वाले भक्तों की रजामंदी से साल के पहले दिन यानी पहली जनवरी को मंदिर का स्थापना दिवस मान लिया गया और इसी दिन मंदिर का वार्षिकोत्सव मनाया जाने लगा। इसकी पूर्व संध्या यानी 31 दिसंबर की रात मंदिर के समक्ष भजन-कीर्तन होता है, जिसमें लाखों भक्तों की मौजूदगी में देश के ख्याति प्राप्त भजन गायक अपनी-अपनी मधुर आवाज में बाबा के भजनों की गंगा प्रवाहित करते है।
इसके अलावा महाशिवरात्रि पर भव्य आयोजन होता है और पूरे सावन महीने के दौरान भक्तों द्वारा अलौकिक शृंगार, संगीतमय भजन-कीर्तन और महारुद्राभिषेक कराया जाता है। भूतनाथ मंदिर के प्रति लोगों के विश्वास का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मंदिर परिसर में कोरोना के कारण प्रवेश पर रोक के बावजूद भगवान शिव के अति प्रिय सावन महीने में रोजाना हजारों लोग मंदिर की चौखट पर माथा टेकने पहुंच रहे हैं।
इसे बाबा भूतनाथ के किसी चमत्कार से कम नहीं कहा और माना जाता सकता है कि मंदिर के स्थापनाकाल (सवा तीन सौ साल पहले) से अभी मंगला आरती (सुबह चार बजे) और संध्या आरती (शाम साढ़े छह बजे) की की ज्योत चिता की आग से प्रज्जवलित हो रही है। बाबा की आरती के वक्त पुजारी को कोई ना कोई जलती चिता अवश्य मिल जाती है, जिसकी लकड़ी से दीपक की ज्योत जलाई जाती है। इतने लंबे इतिहास में एक बार भी ऐसा नहीं हुआ कि आरती के वक्त किसी की चिता न जल रही हो।
अपने किसी मनोरथ पूर्ण होने पर स्वेच्छा से मंदिर में शृंगार या विशेष पूजा के लिए भी भक्तों को अपनी पारी के लिए लंबा इंतजार करना पड़ता है। लाखों खर्च कर मंदिर परिसर की पूरी दीवार रजत (चांदी) बनवाई है। इसके अलावा नंदी, त्रिशूल, डमरू और अर्धनारीश्वर के अतिरिक्त भगवान शंकर के कई रूप चांदी के हैं, जिन्हें बारी-बारी से हर शाम सुसज्जित कर भक्तों के दर्शनार्थ शिवलिंग पर विराजित किया जाता है। इन सबसे अलग एक और बात है जो केवल भूतनाथ में ही देखने को मिलेगी और वह यह कि सर्व भूतों के स्वामी भूतनाथ नमामि का यह मंदिर सात दिनों और चौबीस घंटे खुला रहता है।
कहते हैं नियमित रूप से इस मंदिर में आकर कपूर जलाने वाले और उसकी कालिख का टीका लगाने वाले भक्तों की बाबा हर मनोकामना पूर्ण करते है।