ज्योति सिडाना

एक समतामूलक और लैंगिक विभेद-मुक्त समाज के निर्माण के लिए महिलाओं के प्रति समाज में स्थापित पूर्वाग्रहग्रस्त सोच को बदलना आवश्यक है। महिलाओं की प्रतिभा को कम करके आंकना, उन्हें गैर-आर्थिक इकाई मानना, उन्हें केवल शरीर के रूप में स्वीकार करना, यह धारणा कि उनमें निर्णय लेने की क्षमता का अभाव होता है, कुछ ऐसे पक्ष हैं जो उन्हें भयमुक्त होकर अपनी अस्मिता को स्थापित करने से रोकते हैं।

विश्व के लगभग हर समाज में लैंगिक असमानता मौजूद है। प्राचीन काल से लेकर आज तक महिलाओं को निर्णय लेने, उन्हें आर्थिक इकाई के रूप में स्वीकार करने और सामाजिक संसाधनों तक उनकी पहुंच से उन्हें वंचित रखने की प्रथा का एक लंबा इतिहास रहा है। लैंगिक समानता का मतलब है कि दोनों को अवसरों और अधिकारों में समानता प्राप्त हो।

दोनों को सम्मानपूर्वक जीवन जीने का समान अधिकार प्राप्त हो और उनके साथ जाति, धर्म, लिंग, भाषा और रंग के आधार पर भेदभाव न किया जाए। सामान्यतया सभी समाजों में पुरुष या महिला होना केवल उनकी जैविक और शारीरिक विशेषताओं का बोध नहीं कराता, बल्कि पुरुषों और महिलाओं से अलग-अलग व्यवहार, आदतों और भूमिकाओं की अपेक्षा की जाती है।

पुरुषों और महिलाओं के बीच संबंध, चाहे परिवार में हों, कार्यस्थल पर या सार्वजनिक क्षेत्र में, पुरुषसत्ता द्वारा ही निर्धारित होते आए हैं। जबकि संविधान और मानवाधिकार घोषणा-पत्र में महिला-पुरुष की समानता का स्पष्ट उल्लेख है। लैंगिक समानता महिलाओं और पुरुषों के प्रति निष्पक्ष होने की प्रक्रिया है। इसे सुनिश्चित करने के लिए स्थानीय, राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर लंबे समय से प्रयास होते रहे हैं। लैंगिक समानता के लिए आवश्यक है कि महिला और पुरुष सामाजिक शक्ति, निर्णय क्षमता, अवसरों, संसाधनों और पुरस्कारों का समान रूप से लाभ उठा सकें।

वर्जीनिया वूल्फ ने अपने एक लेख में लिखा था कि महिला का अपना खुद का कमरा/ स्पेस होना चाहिए, जहां वह स्वयं को इतना स्वतंत्र अनुभव करे कि वह खुद को काल्पनिक और गैर-काल्पनिक दोनों रूपों में देख सके। जिस तरह काल्पनिक लेखन करते समय हम स्वतंत्र होकर जो मन में आता है वह लिखते हैं और अपनी कल्पनाओं को उड़ान देते हैं, ठीक उसी प्रकार अपने निजी स्पेस में महिला को बिना किसी भय के हर स्तर की उड़ान भरने की स्वतंत्रता प्राप्त करनी चाहिए, ताकि उसकी सूक्ष्म और वृहद स्तर की बौद्धिकता प्रतिबिंबित हो सके।

उसके निजी स्पेस में कौन उपस्थित हो सकता है, यह चुनाव उसका होना चाहिए। तभी संभवत: वह अपने विचार, अपने पूर्वाग्रहों, अपनी आवश्यकताओं, अपनी भाषा, अपने प्रतीक और यहां तक कि अपनी यौनिकता के सवाल को भी उन्मुक्त भाव से प्रस्तुत करने की क्षमता रख सके, जैसा कि कोई पुरुष अपने लेखन में करता है। ये निजी कमरे महिलाओं को स्वतंत्र और बिना किसी रुकावट के सोचने की क्षमता देते हैं।

हाल में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम का 2023 ‘जेंडर सोशल नार्म्स इंडेक्स’ जारी हुआ, जो महिलाओं के खिलाफ पूर्वाग्रहों का आकलन करता है। इस सूचकांक में चार प्रमुख आयामों के आधार पर महिलाओं की भूमिकाओं के प्रति लोगों के दृष्टिकोण को दर्शाया गया है- राजनीतिक, शैक्षणिक, आर्थिक और शारीरिक अखंडता। सूचकांक से पता चलता है कि दुनिया की लगभग 90 फीसद आबादी महिलाओं के प्रति किसी न किसी प्रकार का पूर्वाग्रह रखती है। मसलन, लगभग आधी आबादी को लगता है कि पुरुष, महिलाओं की तुलना में बेहतर राजनीतिक नेता बनते हैं।

पुरुषों और महिलाओं के बीच मतदान की दर समान होने के बावजूद दुनिया भर में केवल 24 फीसद संसदीय सीटें महिलाओं के पास हैं और 193 सदस्य राज्यों में से केवल दस में सरकार की प्रमुख महिला हैं। रिपोर्ट में प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार 28 फीसद लोग सोचते हैं कि एक पुरुष के लिए अपनी पत्नी को पीटना उचित है।

हालांकि सूचकांक और हालिया घटनाओं से पता चलता है कि अब इस तरह की सोच में बदलाव आ रहा है। यूएनडीपी जेंडर टीम की राकेल लगुनास का कहना है कि दुनिया भर में महिलाओं के अधिकारों के प्रदर्शन और ‘मी-टू’ आंदोलन ने संकेत दिया है कि नए मानदंडों और विकल्पों की आवश्यकता है और लोग लैंगिक समानता के लिए अभियान चलाने के लिए सक्रिय हैं।

मगर यह भी एक तथ्य है कि हमारे समाज में प्रचलित अनेक प्रथाएं और पूर्वाग्रह लैंगिक समानता की राह में बाधा उत्पन्न करती हैं। मसलन, राजस्थान के कई जिलों में आटा-साटा नामक कुप्रथा प्रचलित है, जिसमें लड़की के बदले लड़की का लेन-देन किया जाता है। यानी जिस घर से बेटी ली जाती है उसी घर में अपनी बेटी दी जाती है। ऐसा विशेष रूप से उन घरों में होता है, जिनके लड़कों की शादी किसी कारण से नहीं हो रही होती या उम्र ज्यादा होने के कारण उनकी शादी में रुकावट आ रही होती है।

ऐसे में लड़की वालों को अदला-बदली का प्रस्ताव दिया जाता है। इसके पीछे तर्क दिया जाता है कि ऐसा करने से कई शादियों का खर्चा बच जाता है या कम खर्च में कई जोड़ों का विवाह हो जाता है। पर इस प्रथा में भी अधिकतर लड़कियों को उनकी पसंद-नापसंद से समझौता करना पड़ता है। कई बार तो छोटी उम्र में ही लड़कियों की अदला-बदली हो जाती है। समय-समय पर ऐसी अनेक घटनाएं सामने आती रही हैं, जिनमें इस कुप्रथा के कारण महिलाओं ने आत्महत्या कर ली। क्योंकि अगर वे अपनी शादी तोड़तीं तो उनके भाई का घर भी खराब होता। इस डर से वे आत्महत्या का रास्ता चुनने को बाध्य होती हैं।

आज समाज में महिलाओं के विरुद्ध हिंसा और अपराध की घटनाओं में वृद्धि का बड़ा कारण है उसे केवल एक शरीर के रूप में देखा जाना। उसके पास ज्ञान, अर्थतंत्र, शक्ति, विचार और राजनीतिक समझ भी है, इसकी हमेशा से उपेक्षा की जाती रही है। समाज में अनगिनत ऐसे उदाहरण हैं, जो सिद्ध करते हैं कि महिलाओं की इन सभी क्षेत्रों में सक्रिय सहभागिता रही है।

और समाज उसके शरीर को केंद्र में रखकर इन सभी प्रक्रियाओं में उसकी सहभागिता और योगदान को दरकिनार कर देता है। ऐसा नहीं कि प्राचीन काल से अब तक महिलाओं की स्थिति में कोई सकारात्मक बदलाव नहीं आया है, पर यह भी सच है कि महिलाओं के प्रति पुरुष समाज की मानसिकता में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया है।

इसीलिए समाजवैज्ञानिक सुझाव देते हैं कि महिलाओं को दमनात्मक और गैर-दमनात्मक शक्ति को समाप्त करने के लिए स्वायत्तता, स्वतंत्रता, मानवाधिकार जैसे पक्षों के तहत अपने आप को खोजना होगा। क्योंकि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि महिलाओं की चेतना में खुद महिला अस्तित्व में नहीं है। वह केवल पति, बच्चे, रसोई, कपड़े और घर तक अपने दायरे और सोच को सीमित रखती आई है। यह भी सच है कि वर्तमान समाज में कार्यशील महिलाओं की भूमिका में व्यापक परिवर्तन देखे जा रहे हैं।

अब महिलाएं अपने दायित्वों के साथ-साथ अधिकारों के प्रति भी सजग हुई हैं। सतत विकास लक्ष्यों की सूची में लैंगिक समानता को पांचवें स्थान पर रखा गया है, जिन्हें 2030 तक प्राप्त करने का लक्ष्य निर्धारित है। पर जिस गति से महिलाओं के विरुद्ध हिंसा और दुर्व्यवहार की घटनाओं में वृद्धि हो रही है, 2030 तक इस लक्ष्य को प्राप्त करना आसान नहीं लगता।

एक समतामूलक और लैंगिक विभेद-मुक्त समाज के निर्माण के लिए महिलाओं के प्रति समाज में स्थापित पूर्वाग्रहग्रस्त सोच को बदलना आवश्यक है। महिलाओं की प्रतिभा को कम करके आंकना, उन्हें गैर-आर्थिक इकाई मानना, उन्हें केवल शरीर के रूप में स्वीकार करना, यह धारणा कि उनमें निर्णय लेने की क्षमता का अभाव होता है, कुछ ऐसे पक्ष हैं जो उन्हें भयमुक्त होकर अपनी अस्मिता को स्थापित करने से रोकते हैं। इसके साथ ही राज्य, प्रशासन और अकादमिक बुद्धिजीवियों को इस दिशा में कठोर कदम उठाने होंगे, ताकि महिलाओं को एक सुरक्षित समाज उपलब्ध कराया जा सके।