यह सौ फीसदी सच है कि किसे वोट देना है यह फैसला करने में जाति एक बड़ा कारक बनती है। फिर भी विश्लेषण के लिए जाति आधारित वोटिंग का कॉन्सेप्ट मुझे कभी समझ में नहीं आया। यह चुनाव से जुड़े ट्रेंड या परिणामों के बारे में कुछ भी जानकारी नहीं देता। मैं हाल ही में पांच दिन बिहार में रह कर आया हूं। मैं ग्रामीण इलाके में भी गया। मैंने कई लोगों से बात भी की। दिलचस्प रहा कि इनमें से बहुत कम लोगों ने जाति के आधार पर वोट देने की बात मानी। ज्यादातर का कहना था कि वे विकास को लेकर मोदी और नीतीश के एजेंडे के आधार पर ही किसी एक को चुनेंगे। तो जाति आधारित वोटिंग का गणित लगा कर इस बात का कोई अनुमान नहीं निकाला जा सकता कि कौन जीत रहा है।
तो क्या होगा बिहार में? इसका जवाब ढूंढने के लिए कोई ठोस आधार उपलब्ध नहीं है। 12 अक्टूबर को पहले चरण का मतदान होने से पहले 11 सर्वे सामने आए थे। इनके नतीजे मिले-जुले थे। चार में भाजपा की जीत बताई गई थी। दो ने नीतीश गठबंधन की जीत का अनुमान लगाया था और पांच ने त्रिशंकु विधानसभा की संभावना जताई थी। सट्टा बाजार की बात करें तो एनडीए को 110 सीटें मिलने की बात कही जा रही है। यानी पूर्वानुमान के किसी भी तरीके से सही तस्वीर नहीं मिल रही। जाति के आधार पर अनुमान निकाला नहीं जा सकता, ओपीनियन पोल के मुताबिक टाई हो रहा है और सट्टा बाजार कांटे का मुकाबला बता रहा है। ऐसे में सबसे अच्छा है पुराने ट्रेंड के आधार पर अनुमान निकाला जाए।
पहला ट्रेंड यह कहता है कि जब भी कांटे का मुकाबला बताया जाता है तो अमूमन किसी एक पार्टी की जीत होती है। हाल के दो उदाहरण ब्रिटेन और कनाडा में हुए चुनावों के हैं। दूसरा ऐतिहासिक ट्रेंड यह कहता है कि राष्ट्रीय चुनाव के दो वर्ष के भीतर हुए चुनावों में सत्ताधारी पार्टी को वोटों और सीटों का नुकसान उठाना पड़ता है। भारत में सन 1980 से ही यह ट्रेंड रहा है कि लोकसभा चुनाव के दो वर्ष बाद तक हुए चुनावों में सत्ताधारी (केंद्र में) पार्टी को करीब 6 फीसदी वोटों का नुकसान हुआ है।
पर चुनाव नतीजे केवल वोट शेयर के आधार पर ही तय नहीं होते। यह इस पर भी निर्भर करता है कि मुकाबले में कितनी बड़ी पार्टियां शामिल हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में कई पार्टियों के बीच मुकाबला था। भाजपा एकजुट थी। विपक्ष (जेडीयू, आरजेडी, कांग्रेस) बंटा हुआ था। विधानसभा चुनाव क्षेत्र के आधार पर नतीजा ये रहा था कि 243 में से 172 सीटों पर भाजपा/एनडीए की जीत हुई थी। अगर विपक्ष अभी की तरह 2014 में भी एकजुट होता तो एनडीए की जीत केवल 92 विधानसभा क्षेत्रों तक सिमट गई होती और जेडीयू+ 145 सीटों पर जीता होता।
दूसरे शब्दों में कहें तो एकजुट विपक्ष का असर एनडीए की 80 सीटें कम होने के रूप में दिखता। एनडीए के खिलाफ प्रत्येक एक फीसदी वोट स्विंग जेडीयू खेमे में आठ सीटें जोड़ देता। अगर लोकसभा चुनाव जीत कर केंद्र में सरकार बनाने वाली पार्टी के खिलाफ औसत नेगेटिव स्विंग का ऐतिहासिक चलन इस बार भी जारी रहा तो बिहार में एनडीए की सीटें 50 से भी कम हो सकती हैं।
एनडीए को जीतने के लिए क्या चाहिए होगा? उसके पक्ष में चार फीसदी से भी ज्यादा वोटों का स्विंग। बिहार के जिन मतदाताओं ने लोकसभा चुनाव में एनडीए को वोट नहीं दिया था, उनमें से ज्यादातर को विधानसभा चुनाव में एनडीए के पक्ष में आना होगा। 2014 में लालू की पार्टी को 20.5 वोट मिले थे। कांग्रेस के खाते में 8.6 फीसदी वोट गए थे। इस बात की संभावना कम ही दिखती है कि कांग्रेस और राजद के वोटर्स पाला बदल कर एनडीए में जाएं। लालू को मिलाने के चलते नीतीश से खफा हुए उनके वोटर्स एनडीए खेमे में जा सकते हैं। लेकिन ऐसे वोटर्स की तादाद बहुत ज्यादा होगी नहीं। ऐसे में एनडीए के लिए हालात अनुकूल नहीं लगते।
लेखक ओक्सस इनवेस्टमेंट के चेयरमैन और द इंडियन एक्सप्रेस के कॉन्ट्रिब्यूटिंग एडिटर हैं। उनका अंग्रेजी में लिखा मूल आर्टिकल ये है..
बिहार चुनाव: अंतिम चरण में 60 फ़ीसद मतदान, 8 नवंबर को नतीजा
Bihar Exit Polls: चाणक्य ने बताया NDA की भारी जीत, बाकी ने कहा- JDU का पलड़ा भारी
Take Our Pollये भी पढ़ें: GROUND REPORT: पूर्णिया में लोगों को पप्पू यादव तो पसंद हैं, पर उनके उम्मीदवार नहीं