तमिलनाडु के राज्यपाल एन रवि को जब से सुप्रीम कोर्ट से झटका लगा है, इस मामले में कई अहम मोड़ आ चुके हैं। बड़ी बात यह रही है कि सर्वोच्च अदालत की तरफ से राष्ट्रपति को लेकर भी कुछ अहम टिप्पणियां की गई हैं। एक तरफ पहली बार सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि किसी भी बिल को तीन महीने के भीतर मंजूर करना चाहिए, अब इसी कड़ी में अदालत ने यहां तक कहा है कि कुछ स्थितियों में राष्ट्रपति को अदालत की राय लेनी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति पद के लिए क्या बोला?
असल में जेपी पारदीवाला और आर महादेवन की बेंच ने कहा कि हम ऐसा मानते हैं कि आर्टिकल 143 के तहत किसी भी बिल को कोर्ट में भेजना कोई अनिवार्य नहीं है, लेकिन वो बिल जो असंवैधानिक दिखाई पड़ते हैं, उस स्थिति में राष्ट्रपति अदालत की राय ले सकते हैं। सुनवाई के दौरान कई मौकों पर कहा गया कि अगर सिर्फ इस आधार पर किसी बिल को मंजूरी नहीं मिल रही कि वो संविधान के खिलाफ जा सकता है, उस स्थिति में एग्जीक्यूटिव को संभलकर अपनी ताकत का इस्तेमाल करना चाहिए। उस स्थिति में यूनियन को कोर्ट की जिम्मेदारी नहीं निभानी चाहिए और ऐसे मामलों को आर्टिकल 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट के हवाले कर देने चाहिए।
क्या सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रपति को सलाह दे सकता है?
सुप्रीम कोर्ट ने इस बात का भी जिक्र किया कि राज्य स्तर पर राज्यपाल के पास यह ताकत नहीं रहती कि वो फैसला ले पाए कि किस बिल को संवैधानिक कोर्ट में भेजना है या नहीं। ऐसे में सविधान तो सिर्फ एक ही रास्ता दिखाता है, राज्यपाल उस बिल को राष्ट्रपति के पास भेज दे और फिर राष्ट्रपति आर्टिकल 143 का इस्तेमाल करे। सर्वोच्च अदालत के मुताबिक सरकरिया और Punchhi कमिशन भी स्पष्ट रूप से कह चुका है कि आर्टिकल 143 के तहत राष्ट्रपति कोर्ट से सुझाव ले सकता है जब किसी बिल की संवैधानिक वैधता पर सवाल आता है।
सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने दो स्थितियों का भी जिक्र किया। कोर्ट का कहना रहा कि अदालत को यह देखना पड़ेगा कि आर्टिकल 143 के तहत जो बिल उनके पास आया है, उसे किस आधार पर चुनौती दी गई है- वो चुनौती क्या उसकी संवैधानिक वैधता को लेकर है या फिर वो सिर्फ सरकार की पॉलिसी को लेकर। अगर सरकार की पॉलिसी को लेकर सवाल है, उस स्थिति में पूरी सुनवाई के बाद सर्वोच्च अदालत अपना विचार देने से बच भी सकता है। ऐसा इसलिए क्योंकि अगर बात संवैधानिक वैधता की आएगी, तब अदालत को फैसला लेना है।
SC की राष्ट्रपति को लेकर अहम टिप्पणी
लंबित बिल्स को लेकर सुप्रीम कोर्ट की दो टूक
जानकारी के लिए बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने इसी मामले की सुनवाई के दौरान लंबित पड़े बिलों को लेकर भी अहम टिप्पणी की थी, राष्ट्रपति की ताकत को लेकर भी कुछ बातें बोली गई थीं। असल में जस्टिस जेबी पारदीवाला और आर महादेवन ने कहा था कि हम एक बात स्पष्ट रूप से कहना चाहते हैं, अगर कोई संविधानिक अथॉरिटी समय सीमा में अपने कर्तव्यों का निर्वाहन नहीं करेगी तो कोर्ट भी शक्तिहीन नहीं रहने वाला है और हस्तक्षेप किया जाएगा। बेंच ने इस बात को स्वीकार किया है कि आर्टिकल 201 को लेकर सेंटर और राज्य के बीच में तनाव रहा है, किसी भी बिल को पारित करने की कोई समय सीमा नहीं दी गई है, ऐसे में विवाद होता रहता है।
सुनवाई के दौरान बेंच ने सरकरिया कमिशन का भी जिक्र किया था क्योंकि उसी कमिशन में सुझाव दिया गया था कि टाइमलाइन जरूर सेट होनी चाहिए जिससे समय रहते बिलों को मंजूरी मिल सके। बाद में Punchhi कमिशन में भी ऐसे ही सुझाव बताए गए थे। बेंच ने अपने फैसले में इस बात को स्वीकार किया है कि जब किसी बिल पर मंथन करना होता है तो राष्ट्रपति के लिए समय सीमा तय नहीं की जा सकती है, लेकिन फिर भी इसे निष्क्रिय रहने का कारण नहीं माना जा सकता।