Ajmer Sharif Dargah History: अजमेर में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर मुस्लिम समुदाय के लाखों लोग जाते हैं। कुछ महीने पहले दरगाह को लेकर यह दावा किया गया था कि इसे हिंदू और जैन मंदिरों को तोड़कर बनाया गया था, इसके बाद से इस दरगाह को लेकर तमाम तरह की चर्चाओं ने जोर पकड़ा। इस दरगाह के सर्वे की मांग वाली याचिका भी अदालत में दायर की गई थी। क्या है ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह का इतिहास?
हम आपको अजमेर शहर के साथ ही ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के इतिहास के बारे में भी बहुत अहम और ठोस जानकारी बताएंगे।
अजयमेरु था अजमेर का नाम
शुरू करते हैं अजमेर के शहर से। अजमेर शहर का पुराना नाम अजयमेरु था। हाल ही में भजन लाल शर्मा के नेतृत्व वाली राजस्थान की बीजेपी सरकार ने अजमेर के प्रसिद्ध होटल खादिम का नाम बदलकर अजयमेरु कर दिया था।
अजयमेरू प्राचीन वक्त में चौहान राजपूतों की राजधानी हुआ करता था। चौहान वंश का शासन मौजूदा राजस्थान से लेकर हरियाणा दिल्ली और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों तक था।
अफगान शासक मोहम्मद गौरी ने 1192 में तराइन के दूसरे युद्ध में चौहान वंश के तत्कालीन शासक पृथ्वीराज तृतीय जिसे पृथ्वीराज चौहान के नाम से जाना जाता है, उसे हरा दिया था। उसके बाद मोहम्मद गौरी की सेना ने इस शहर को लूट लिया था। अजमेर के रहने वाले हर बिलास सारदा अपनी किताब Ajmer: Historical and Descriptive (1911) में लिखते हैं कि मोहम्मद गौरी की सेना ने अजयमेरु में हत्याएं, लूटपाट की और मंदिरों के पिलर और उसकी बुनियाद को नष्ट कर दिया। हर बिलास सारदा की किताब का जिक्र अजमेर की अदालत में दायर याचिका में भी किया गया है।
सारदा अपनी किताब में लिखते हैं कि अजयमेरु शहर 400 साल तक ऐसे ही हालात में रहा, जब तक कि मुगल शासक अकबर ने इसे फिर से नहीं बनाया। वह अपनी किताब में यह भी लिखते हैं कि 15वीं शताब्दी के मध्य तक ऐसा कहा जाता है कि जहां आज ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह है वहां पर बाघ घूमते थे।
क्या कहते हैं रॉबर्ट हैमिल्टन इरविन?
इतिहासकार रॉबर्ट हैमिल्टन इरविन अपनी किताब Some Account of the General and Medical Topography of Ajmeer (1841) में एक कहानी बताते हैं जो उन्होंने अजमेर के ‘सबसे विद्वान खादिम’ (दरगाह के सेवक) से सुनी थी।
इरविन ने लिखा है, “एक जगह एक प्राचीन मंदिर था जो महादेव का था। इस मंदिर का शिवलिंग पत्तों और कूड़े से ढका हुआ था। ख्वाजा वहां ध्यान लगाने के लिए चालीस दिन तक रुके थे। हर दिन वह पेड़ की शाखा पर अपनी पानी की छोटी मशक टांगते थे। वह शाखा शिवलिंग के ऊपर थी और उस मशक से पानी शिवलिंग पर टपकता रहता था। आखिरकार महादेव बहुत प्रसन्न हुए और शिवलिंग से एक आवाज आई जिसमें ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की तारीफ की गई थी।”
ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती और भगवान शिव की मुलाकात की इस कहानी के बारे में इरविन लिखते हैं कि इस वजह से हिंदू भी ख्वाजा साहब का उतना ही सम्मान करते हैं जितना कि मुसलमान।
मोइनुद्दीन चिश्ती 14 साल की उम्र में ही अनाथ हो गए थे। उनकी आध्यात्मिक यात्रा की शुरुआत इब्राहिम कंदोजी नाम के एक बूढ़े फकीर से मिलने के बाद शुरू हुई थी। चिश्ती सूफी संप्रदाय में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती के अलावा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी, हजरत निजामुद्दीन औलिया और नसीरुद्दीन महमूद चिराग देहलवी जैसे संत भी हुए। चिश्ती सूफी संप्रदाय की परंपराएं यहां पहले से मौजूद स्थानीय प्रथाओं से काफी मिलती जुलती थीं। भारत में चिश्ती संतों ने सहिष्णुता का संदेश दिया।
‘सियार-उल-औलिया’ जिसमें सूफी संतों की जीवनी दर्ज है, के अनुसार, ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती 1192 ई. के आसपास फारस से अजमेर आए। अजमेर में मोहम्मद गौरी की सेना के द्वारा की गई लूटपाट और तबाही की वजह से लोगों की परेशानी देखकर मोइनुद्दीन चिश्ती यहीं रुक गए। मोइनुद्दीन अपनी पत्नी बीबी उम्मतुल्लाह जिनसे उनकी मुलाकात अजमेर में हुई थी, के साथ झोपड़ी में रहने लगे।
हर बिलास सारदा अपनी किताब में लिखते हैं कि ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की मृत्यु 1236 में हुई। सारदा लिखते हैं, “ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की मौत के बाद उनके शव को उसी कमरे में दफनाया गया जिसमें वह रहते थे। लेकिन उसके ऊपर कोई पक्की मजार नहीं बनाई गई।
अजमेर दरगाह के सफेद संगमरमर के गुंबद का निर्माण मुगल सम्राट हुमायूं के शासनकाल के दौरान 1532 में हुआ था और यह बात इमारत की उत्तरी दीवार पर लगे शिलालेख में लिखी है। लेकिन अजमेर में बड़े पैमाने पर काम अकबर के शासनकाल के दौरान हुआ।
इतिहासकार कैथरीन बी. अशर ने अपनी किताब Architecture of Mughal India (1992) में लिखा है कि 1579 तक अकबर अजमेर में मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर चौदह बार तीर्थयात्रा पर आ चुका था।
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